भारत-पाकिस्तान विभाजन: जैसा मैंने देखा – डा. लक्ष्मण सिंह

 संस्मरण

मैं जब जाट हाई स्कूल की प्रथम कक्षा में दाखिल हुआ, उस समय 10-11 वर्ष का था। स्कूल जींद के रेलवे स्टेशन से पूर्व की ओर आधा-पौना कोस पर स्थित है। स्कूल के आसपास कोई बस्ती नहीं थी। स्कूल भवन के पश्चिम में एक कुआं था, जिसमें से विद्यार्थी स्वयं ही डोल से पानी निकाल सकते थे। 10-12 बड़े मटके भी उत्तर की दीवार के पास रखते थे। चार-पांच लोटे भी मोटे तारों से बांध कर रखे थे। उनके हैंडल भी बने थे। हम उनको फंटी कहते थे। पानी मटके से निकाल कर ‘ओक’ से पीते थे।

            स्कूल का मेन गेट (मुख्य द्वार) पश्चिम की ओर खुलता था। दस-बारह मध्यम आकार के कमरे थे। इनमें से कुछ अंदर ओर बाहर रोड की ओर यानी दोनों ओर खुलते थे।

            चौथी श्रेणी तक के छोटे विद्यार्थी तप्पड़ पर बैठते थे, जो एक फुट से डेढ़ फुट चौड़ा और तीस-चालीस फुट लंबा होता था। वह पटसन का बना होता था। छुट्टी के समय पहाड़े कहने से पहले उसे लड़के लपेट-लपेट कर रख देते थे।

            मिडिल व मैट्रिक के विद्यार्थी भी वहीं पढ़ते थे। कमरों में बैंच होते थे। वे उन पर बैठकर पढ़ते थे। कमरों में किसी भी श्रेणी में तीस से अधिक विद्यार्थी नहीं थे। प्राइमरी कक्षाओं में ही अधिक संख्या में विद्यार्थी थे। उस समय प्राइमरी चौथी श्रेणी तक होती थी। पांचवीं से अंग्रेजी की पढ़ाई चालू होती थी।

            स्कूल का वातावरण बहुत शांत था। हम पहली जमात में उर्दू का कायदा पढ़ते थे। बस! एक कायदा ही था हमारी पुस्तक। तख्ती को धोकर, उसे  गांदनी (खड़िया) मिट्टी से पोतकर सुखा लेते थे धूप में। मिट्टी की दवात में पानी में सुखी काली स्याही को फोल कर अच्छी तरह मिला लेते थे। एक छोटी सी लकड़ी की डंडी रखते जरूर थे, हाथ में पर मारते किसी को नहीं थे।

            जींद में दसवीं तक के दो ही स्कूल थे। एक जाट हाई स्कूल और दूसरा राजकीय हाई स्कूल। यह रानी तालाब के पास जींद शहर के अंतिम छोर पूर्व की ओर स्थित था। उसमें केवल शहर के लड़के ही (प्राईमरी में) पढ़ते थे। गांवों में कहीं-कहीं प्राइमरी स्कूल थे। हमारे स्कूल में रेलवे की गार्ड लाईन, लोको, कैरेज एंड वैगन्ज विभाग के विद्यार्थी पढ़ते थे खासतौर पर प्राइमरी तक। हमारी जमात में 25-30 विद्यार्थी थे, जिनमें 10-12 बच्चे मुसलमान थे।

जब हम दूसरी जमात में थे, तो दिसम्बर 1946 में  कुछ मुसलमान लड़कों ने बताया कि ऊपर से (रेलवे के बड़े अधिकारियों से) चिट्ठी आई है कि वे हिन्दुस्तान में रहना चाहते हैं या पाकिस्तान में जाना चाहते हैं। हमें यह तो पता लग गया था कि हिन्दुस्तान में जहां मुसलमान ज्यादा रहते हैं – वो भाग पाकिस्तान बनेगा, पर यह हमारे लिए सोचने की बात थी कि रेलवे कर्मचारियों से अपनी इच्छा क्यों मांगी गई। हमारे स्कूल में, जींद में तो सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था।

            हम पहले टी.एक्स.आर. की कोठी के साथ बने क्वार्टर में रहते थे। हैड टी.एक्सर संतराम सैनी थे। जब मैं क्वार्टर पर अकेला होता था, तो वे मुझे कोठी पर बुला लेते थे। पहले तो मेरी आयु-कद-काठी के हिसाब से पहली कच्ची क्लास में दाखिले को लेकर मजाक उड़ाते थे। धीरे-धीरे वे लिखने में मेरी मदद करने लगे। एक तख्ती, एक स्लेट-बत्ती, कलम-दवात, एक कायदा, बस हमारे पास पढ़ने का यही सामान थ। इसी को दो तनियों वाले झोले  (थैले) में डालकर रखते थे। रोशनी के लिए बड़े घरों में लैंप या बड़ी लालटेन, मध्यम परिवारों में बीच की लालटेन और गरीब घरों में छोटा सा गोल बत्ती का लैंप, जिसको हम ढिबरी कहते थे। प्रकाश के लिए केवल यही कुछ था। न बिजली थी, न रेडियो, न ट्रांजिस्टर।

             रेलवे स्टेशन से शहर में तांगे जाते थे। सड़कें इंटों की थी, टूटी-फूटी। रेलवे के किसी विद्यार्थी के पास साईकिल नहीं था। सभी स्कूल में पैदल जाते थे। रोजाना का काम था – कभी महसूस नहीं हुआ। सभी खुश रहते थे। खेलते-कूदते भागते-दौड़ते थे। कुश्ती-कबड्डी का शौक था। रात होते ही सब जगह सुन्न-सन्नाटा हो जाता था।

            कभी-कभी दिल्ली से रेलवे कर्मचारियों के परिवारों को दिखलाने के लिए पिक्चर आ जाती थी और वह रेल के डिब्बे के पर्दे पर ही दिखाई जाती थी। लोग सामने बैठ जाते थे और ब्लैक एंड व्हाईट फिल्म का मजा लेते थे। एक पिक्चर हमने भी देखी थी। नाम क्या था यह तो नहीं मालूम, पर यह गाना था -‘आया आया रे रेलू गंडेरी वाला।’ उस पिक्चर का हमने ‘रेलू गंडेरी वाला’ ही नाम रख लिया था। जींद में कोई सिनेमा नहीं था।

            जींद रेलवे स्टेशन पर बिजली नहीं थी। बड़े-बड़े पैट्रोमेक्स  के हंडे जलते थे। वे भी कहीं-कहीं जहां जरूरत हो। हम रौनक-मेला देखने के लिए रेल-गाड़ियों के समय पर रेलवे स्टेशन पर चले जाते थे। शाम को मैदान में कबड्डी होती थी। रेलवे स्टेशन के पास एक रेलवे इंस्टीच्यूट था, जहां इंडोर गेम खेले जाते थे। कभी-कभी हम देखने चले जाते थे। खेल हमें कोई खेलना नहीं आता था। पास में ही कबड्डी का ग्राऊंड बना हुआ था – वहीं लड़कों ने जमीन खोद कर मिट्टी नरम करके कुश्ती के लिए अखाड़ा बना रखा था।

            जब हम दूसरी जमात में थे, तो दिसम्बर 1946 में  कुछ मुसलमान लड़कों ने बताया कि ऊपर से (रेलवे के बड़े अधिकारियों से) चिट्ठी आई है कि वे हिन्दुस्तान में रहना चाहते हैं या पाकिस्तान में जाना चाहते हैं। हमें यह तो पता लग गया था कि हिन्दुस्तान में जहां मुसलमान ज्यादा रहते हैं – वो भाग पाकिस्तान बनेगा, पर यह हमारे लिए सोचने की बात थी कि रेलवे कर्मचारियों से अपनी इच्छा क्यों मांगी गई। हमारे स्कूल में, जींद में तो सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था।

            जब मस्जिद से मुल्ला ऊंची आवाज में बोलता था, तो  मुसलमान मस्जिद में चले जाते थे – नमाज पढ़ते थे। सन् 1946 की ईद पर हिन्दू-मुसलमान गले मिलते हमने खूब देखे। पांचवीं जमात में एक मुसलमान लड़का मुहम्मद (मुझे पूरा नाम याद नहीं) ईद के दिन मेरे गले से लग कर बहुत खुश हुआ। प्राइमरी स्कूल तक की कक्षाओं में उसकी बड़ी धाक थी और वह हर किसी को पीट देता था। एक बार उसने मुझ पर भी हल्ला बोला था। पिछले वर्ष जब मैं पहली कक्षा में था। पर मैंने उसको लंबा पाकर लात-मुक्कों-घुसों से उसकी खूब छिताई की थी। यहां तक कि उसके मुंह से खून बह निकला था। उसने छाती से मिलने के बाद कहा था – भाई लछमन! मेरे अब्बा की बदली पाकिस्तान की हो गई है – गलती मैंने बहुत की है। मुझे माफ कर देना। अब क्या पता कभी मिलें या न मिलें और उसकी आंखों से पटर-पटर आंसू ढुलकने लगे। मैंने यही कहा, ‘जिन्दे जी आदमी मिलता रहता है। इसमें जी छोटा करने की क्या बात है? उसने हाथ मिलाया और कई बार कस के हिलाया और आंखें पोंछता हुआ चला गया। दो-तीन लड़के और भी खडे़ थे।  मैंने महसूस किया कि व्यक्ति बिछोड़े के वक्त कितना सहृदय हो जाता है!

            1947 का नया साल आरंभ हुआ। तब मैं तीसरी जमात में था। पहली में भी प्रथम रहा था दूसरी में भी। ईनाम में तो कापी पैंसिल ही मिली, पर यश तो बढ़ा। मैं जब भी प्रथम आता था, तो बड़ा भाई मुझे एक आना (इकन्नी) ईनाम में देता था। और मैं उसे खुशी-खुशी ग्रहण करता था। चाट-भल्ले-पानी-पताशे पहले भी थे और आज भी। बल्कि पहले शुद्ध और अच्छे तेल/घी  के होते थे, पर मेरा शौक घी, दूध, मक्खन, मलाई, खीर, हलवे में था। यानी दूध की बनी हुई खाद्य सामग्री में, जिसमें खोआ शामिल है। दाल न बनी तो कटोरी में शक्कर में घी मिलाकर रोटी के साथ खा लेता था। ये सारी चीजें घर पर ही होती थी – सो पैसा भी खर्च नहीं होता था।

            नए सत्र में हमारी जमात में विद्यार्थियों की संख्या घट गई। मुसलमान लड़के दो-तीन ही रह गए थे। वे भी जाने की बातें करते थे। अब हमारी किताबें भी बढ़ गई। गणित (हिसाब) की पुस्तक भी मोटी हो गई और उर्दू की भी मुटिया गई। हमारे गुरु व मेरे बड़े ताऊ जी देश के स्वतंत्रता सेनानियों महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद, सरदार भगत सिंह, लाला लाजपत राय, राजगुरु,  सुखदेव, पं. जवाहर लाल नेहरू,  सरदार व वल्लभ भाई पटेल, डा. बी.आर. अम्बेडकर और बहुत से अन्य बांके बहादुरों के बारे में बतलाया करते थे। अब तो सारा देश उन यौद्धाओं के गीत गा रहाथा। भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहा था। हिटलर का नाम भी सुना था और जर्मनी के ऊपर परमाणु बम्ब की विनाश लीला भी सुन रखी थी।

            गर्मियों की दो महीने की छुट्टियां हो गई। इस बार मुझे कहीं बाहर नहीं जाने दिया। पिता जी कभी-कभी मुझे अपने साथ पशु चराने ले जाते थे। कभी-कभी हमारे पास शेष बची जमीन में जो दो बड़े परिवारों की थी, में ले जाते थे। दो महीने गांव में ही बीते। गांव का मैं पहला ही विद्यार्थी हूं। उससे पहले कोई भी अपनी किसी संतान को स्कूल नहीं भेज पाया। स्कूल नरवाना में था – ज्यादा दूर भी नहीं था। पर कोई पढ़ता ही नहीं था। न कोई प्रेरणा ही देने वाला था। हमारे परिवार के लोग मुझ पर बड़ी-बड़ी उम्मीदें लगाए बैठे थे।

            खैर! अगस्त आया। स्कूल में गहमा-गहमी बढ़ी। बड़े लड़के नाटक व अन्य सांस्कृतिक कार्यों की रिहर्सल करने लगे। पं. जवाहर लाल नेहरू को  स्वतंत्रा भारत के प्रथम प्रधानमंत्राी के रूप में पद व गोपनीयता की शपथ ग्रहण करवाई। पं. जवाहर लाल नेहरू ने भारत के प्रथम प्रधानमंत्राी के रूप में लाल किले की प्राचीर से तिरंगा झंडा फहराया। पूरा भारत उल्लासित था। कालेज व स्कूलों में झंडा फहराने का पावन कर्म प्राचार्य व मुख्याध्यापक कर रहे थे। देशभर में देश भक्ति के नाटक, सांस्कृतिक कार्यक्रम  किए जा रहे थे – झांकियां निकाली जा रही थी। देश में खुशी की लहर दौड़ रही थी। हम नाटक-सांस्कृतिक कार्यक्रम देखकर बहुत प्रसन्न थे। स्कूल की ओर से प्रत्येक विद्यार्थी को चार-चार लड्डू भी मिले थे।

            उल्लास के बाद धीरे-धीरे उमस के बादल छाने शुरू हो गए। आठ-दस दिन ही गुजरे होंगे, कहीं-कहीं से साम्प्रदायिक दंगों की खबरें आने लगी। कभी कोई गुरु जी बतला देते थे, कभी कोई वरिष्ठ साथी। रेलवे के कर्मचारी भी इस तरह की बातें करते थे। वे आठ-आठ,दस-दस की टोली में रहने लगे थे। हमारे क्वार्टर के पिछली लाईन में  एक कर्मचारी अब्दुल्ला रहता था – वह बहुत  डरा हुआ था। पर उस क्षेत्र के बहुत से कर्मचारी साथियों ने उसकी सुरक्षा का आश्वासन दे रखा था। एक दिन 20-25 आदमी लाठी भाले लिए शहर की तरफ जा रहे थे – बहुत गुस्से में थे कि क्या माजरा है। हमें बतलाया गया कि कोई बख्शी नाम का मुसलमान है। उसने अपनी हवेली में आसपास के मुसलमानों को संरक्षण दे रखा है – वे उसे ही सबक सिखाने जा रहे हैं। हवेली बहुत बड़ी है और उसके ऊपर चारों ओर बंदूकधारी बैठे हैं। पर अभी तक किसी प्रकार की वारदात की खबर नहीं आई है।

दो-ढाई बजे होंगे नरवाना की ओर से एक ट्रेन आई। उसमें औरतें, आदमी, बच्चे दुख-दर्द के साथ कराह रहे थे। मैं उठकर देखने चला गया। बहुतों के पट्टियां बंधी थी। किसी के हाथ में, किसी के सिर में और कुछ के तो खून रूक कर सूख भी गया था। वे लोगों को आपबीती बतला रहे थे। बेहद हृदय-विदारक दृश्य था। कुछ मृतक तो पिछले स्टेशनों पर उतार लिए गए थे।

            कई स्थानों पर मुसलमानों को पाकिस्तान सुरक्षित भेजने के कैंप लगे हुए थे। एक कैंप टोहाना में था। बाकी और कहां थे, मुझे पता नहीं था। हमारी तीस हजारी में भी दहशत का माहौल था। रात के एक-डेढ़ बजे मेरा बड़ा भाई क्वार्टर पर आया और मुझे और भाभी को जगाया। भाभी की गोद में एक लड़की थी। थैले में कुछ कपड़े डाले और कहा-‘चार बजे की शटल से नरवाना जाना है। जींद में दंगे होने का खतरा है। गांव में ठीक रहेगा।’ हम उसके पीछे-पीछे चल दिए। सात-आठ आदमी भाई के साथ और आए हुए थे। हम लाईनें पार करके स्टेशन पर पहुंचे और स्टेशन पर बने कार्यालयों की कतार में पहले आफिस के बरांडे में बैठ गए। इस प्रकार से कि दो ओर से दीवार की आड़ लेकर सुरक्षित हो सकें। वह बरांडा टी.एक्स.आर. के कार्यालय का था।

            दो-ढाई बजे होंगे नरवाना की ओर से एक ट्रेन आई। उसमें औरतें, आदमी, बच्चे दुख-दर्द के साथ कराह रहे थे। मैं उठकर देखने चला गया। बहुतों के पट्टियां बंधी थी। किसी के हाथ में, किसी के सिर में और कुछ के तो खून रूक कर सूख भी गया था। वे लोगों को आपबीती बतला रहे थे। बेहद हृदय-विदारक दृश्य था। कुछ मृतक तो पिछले स्टेशनों पर उतार लिए गए थे।  कुछ गंभीर जख्मी भी पिछले स्टेशनों पर उतार कर अस्पतालों में भेजे जा चुके थे। जो लोग उस गाड़ी में थे – वे तो फर्स्ट एड करके आगे भेजे गए थे। गाड़ी को आगे दिल्ली जाना था।

            स्टेशन पर पहले से ही शहर के लोगों ने और विभिन्न संस्थाओं तथा स्वास्थ्थ्य विभाग ने खाने-पीने का, भोजन के पैकेट वगैरह का प्रबंध कर रखा था। वहां पर बहुत से डाक्टर, कम्पाऊंडर और नर्सें सेवा में लगी थी। वातावरण बहुत संवेदनशील  हो रहा था – सेवादारों और दर्शकों में बहुत क्षोभ था। मैंने कई डिब्बों में घायल पुरुष-स्त्राी-बच्चों को देखा-क्षोभ भी था, दुखी भी। मैं इसके अतिरिक्त कर भी क्या सकता था। इतने में ही एक आदमी ने मुझे पीछे  से पकड़ कर खींच लिया-‘ये रहा’ वह बोला। वह हमारी तीस हजारी का ही एक रेलवे कर्मचारी था। मुझे बुरा-भला कहकर वह मुझे बरांडे में ले गया। भाई ने भी कहा-‘मनै कह्या था अक उरैए बेठिये – निचला नी रह्या गया।’ मैं चुपचाप सुनता रहा – ‘इब हाल्या, तौ छितैगा।’ और वह घूरता हुआ चला गया।

            कुछ देर के बाद वह पांच-सात आदमियों के साथ फिर आया। ‘उरैए बैठे रहियो, दंगे भड़कण का खतरा सै। हाम ‘सटल’ देख क्यै आर्हे सां।’ पांच-सात मिनट बाद ही मेरे कान के पास से एक जोरदार सीं की आवाज गुजरी। भाभी बोली – ‘गोली चाल रही सैं, उरै आज्या।’ और उसने मुझे खींच लिया। ‘कुछ नी होन्दा।’ मैंने कहा, पर उसने मेरी बात अनसुनी कर दी – हाथ पकड़े रखा।

            कुछ देर बाद भाई आया और बोला, ‘चलो, सटल जावैगी।’ हम उसके पीछे-पीछे चल दिए। तीन-चार लाईनें पार करने के बाद हम एक डिब्बे में बैठ गए। बड़े भाई की हमारे साथ नरवाना जाने की योजना नहीं थी, लेकिन उनके साथियों ने कहा कि उसे साथ जाना चाहिए। जींद की उसकी ड्यूटी का काम वे संभाल लेंगे।

            थोड़ी देर बाद ‘पकड़ो! पकड़ो’ का शोर फिर सुनाई दिया और बीस-तीस लोगों का झुंड किन्हीं दो लोगों को पकड़ कर ले गया। हमें बाद में भाई ने बतलाया कि दोनों मुसलमान थे। बोले  ‘हिन्दू हैं, पर पिछाण लिए। उनको मार-पीट कर कुछ लोग लेगे।’  आगे क्या बनेगा उसे पता नहीं था। मैंने सोचा ‘जो बनना था, बन चुका, अब और क्या बनेगा।’ साढ़े चार बजे से चली शटल (शटल एक ट्रेन का नाम है, जो जींद से जाखल और जाखल से जींद आती-जाती थी।) छह बजे नरवाना पहुंची। एक घंटे की यात्रा डेढ़ घंटे में पूरी की। पर सुरक्षित पहुंच गई। सूरज निकल आया था।  हमारा गांव सुन्दरपुरा नरवाना रेलवे स्टेशन से दक्षिण की ओर लगभग दो मील की दूरी पर है। हम गांव की तरफ चल दिए।

            रेलवे स्टेशन के साथ लगता क्षेत्रा बहुत बड़ा मैदान था। उसके पश्चिम में 10-15 मकान बने हुए थे, जिन्हें ढाणी कहा जाता था। उस मैदान में आक और झाड़ियां ही थी। मैदान के पश्चिम में रजबाहा था और उस पर एक पुलिया बनी हुई थी।  मैदान में दो-तीन लाशें पड़ी थीं-आसपास ही लहू भी बिखरा पड़ा था। कई जगह खून के लौंदे (ज्यादा खून) पड़े थे। वहां का वातावरण भी भयावह था। जो ट्रेन जींद गई थी, वह ट्रेन पहले नरवाना आई थी और उसी के भयंकर दृश्य को देखकर लोगों का खून खोल गया। ये लाशें सुबह सैर करने आए या निबटने आए मुसलमानों की थी। उस समय अंधेरगर्दी चल रही थी। नेता लोग शांति व सद्भाव बनाए रखने की अपील कर रहे थे, पर कानून व्यवस्था के लिए जिम्मेवार सरकारी मशीनरी की स्वयं चूलें हिली हुई थी। उस समय  था जंगल का राज। जिसकी लाठी उसकी भैंस। हत्याओं के साथ-साथ लूटपाट तथा अन्य सभी संभव अपराध जारी थे। पुरानी रंजिशें भी इन अपराधों में जलती आग में घी का काम कर रही थी।

             हम सात बजे के लगभग गांव में पहुंचे। नरवाना की घटनाओं का सभी को पता था। गांव में दो परिवार लुहारों के और एक तेलियों का था। कुल तीन परिवार मुसलमानों के थे। पूरा गांव उनकी सुरक्षा के लिए अड़ा हुआ था। उसी रात उन तीनों परिवारों  को बैलगाड़ी, रेहड़े में उनके खास-खास सामान के साथ टोहाना के कैंप में ले जा रहे थे। पिता  जी भी रक्षा दल के साथ गए थे। हमारे गांव  से तो लुहारों व तेलियों को भेजना पड़ा, क्योंकि हमारा गांव छोटा है और वह नरवाना के पास भी है। बहुत से बड़े गांवों ने लुहारों व तेलियों  को भेजा भी नहीं। कारण कि ये दोनों पेशेवर कौमें हर गांव की आवश्यकताएं पूरी करती हैं। इनके बिना किसान का काम नहीं चल सकता।

            जब मैं दस-बारह दिन बाद जींद आया, तो जींद में हुई घटनाओं से भी दो-चार हुआ। बख्शी की हवेली में इकट्ठे हुए मुसलमानों ने वहां ली थी शरण, पर सरकार उन्हें कैंप में सुरक्षित भेजना चाहती थी। बख्शी और उसके साथियों ने उन्हें बहकाया और जाने नहीं दिया। जहां वे खुद मौत का शिकार हुए, वहां अन्य मुसलमानों को भी नुक्सान का सामना करना पड़ा। उस हवेली को लोगों ने घेर रखा था और अंदर से गोलियां चलाई जा रही थी। इसमें  हिन्दू और मुसलमानों दोनों को ही नुक्सान उठाना पड़ा। अब्दुल्ला परिवार सहित उसी रात को क्वार्टर से निकल गया था। किसी को  भी पक्का पता नहीं था – उसका क्या हुआ? कुछ कहते थे कि वह परिवार सहित मारा गया, कुछ कहते थे उसे टोहाना के कैंप में देखा गया।

सौ में से 98 आदमी तो सुख-शांति से रहना चाहते हैं – अधिकतर लोग एक-दूसरे की सहायता भी करते हैं – आटे में नमक जितने लोग ही क्रूर, अतिवादी और कट्टर साम्प्रदायिक होते हैं और वे ही सौहार्द के पनपने में विषधर बनते हैं।

            हमारी जमात में कुछ विद्यार्थी नए आ गए। वे मुलतान, झंग, लायलपुर यहां तक कि पेशावर तक से आए थे। उन्होंने भी अपने दुख-दर्द की बीती कहानी सुनाई। वह उससे भी वीभत्स थी, जो हमने देखी थी। शरीर पर लगे घाव तो धीरे-धीरे भर जाते हैं, पर दिल व दिमाग पर लगे घाव तो भरने में ही नहीं आते। जीवन का ढर्रा तो बिना रूके चलता रहता है  -एक पुराना जाता है, दूसरा नया आता है। यादें भी धीरे-धीरे पुरानी होती जाती हैं।

            जींद के लोगों ने नए आए लोगों को गले लगाया, उनकी हरसंभव सहायता की। सौ में से 98 आदमी तो सुख-शांति से रहना चाहते हैं – अधिकतर लोग एक-दूसरे की सहायता भी करते हैं – आटे में नमक जितने लोग ही क्रूर, अतिवादी और कट्टर साम्प्रदायिक होते हैं और वे ही सौहार्द के पनपने में विषधर बनते हैं। एक-दो लड़कों ने कुछ दिनों बाद उन नए आए लड़को को रिफ्यूजी और पाकिस्तानी कहा, पर स्कूल के हैडमास्टर ने एक दिन प्रार्थना सभा के बाद सभी विद्यार्थियों को अपने भाषण में कहा-‘ वे अपने ही देश अपनी ही जमीन से अपने ही देश, अपनी ही जमीन पर आए हैं। वे पाकिस्तानी नहीं हैं। पहले भी हिन्दुस्तानी थे, अब भी हिन्दुस्तानी हैं। आप सभी विद्यार्थी ध्यान से सुनें। कोई भी इन्हें पाकिस्तानी न कहे। ये हमारी तरह ही शुरू से ही हिन्दुस्तानी हैं। अगर बाहर का कोई आदमी भी गलत बात करे, तो उसे समझाएं। ये हमारे ही पुराने पंजाब, फरन्टियर आदि छोड़ कर अपने ही देश में आए हैं। आप यह सच्चाई उन गुमराह लोगों को समझाएं।’

            हम सभी जल्दी ही आपस में घुल-मिल गए। रेलवे में भी कुछ नए लोग आ गए थे। वहां भी सब कुछ ठीक-ठाक था। प्रकृति का नियम है कि पुराना धीरे-धीरे स्मृति पटल पर मद्धम पड़ता जाता है और समय बीतने पर विस्मृत हो जाता है। जब खुशी के लम्हें नहीं रहते तो दुख-दर्द के क्यों रहेंगे – ये भी एक दिन चले जाएंगे। आशावाद ही जीवन को आबाद करता है।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (नवम्बर-दिसम्बर, 2015), पृ.-64 से 67 तक

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