आईना

सिल्विया प्लैथ (1932-1963) अनुवाद दिनेश दधीचि  

रुपहला हूँ मैं, और बिलकुल सही; बनी-बनाई नहीं धारणा मेरी कोई.
जो कुछ भी मैं देखूं उसको तुरत निगल जाता हूँ
जैसा हो, बिलकुल वैसा ही. प्यार और नफ़रत धुंधलाती नहीं मुझे.
नहीं, नहीं निर्दय, केवल सच्चा हूँ मैं.
इक चौकोर देवता की हूँ आँख समझ लो.
ज़्यादा वक़्त तो सामने की दीवार पे सोचा करता हूँ.
रंग गुलाबी इसका, कुछ धब्बे हैं इस पर.
इतना अरसा इसे देखता रहा हूँ अब तक
लगता है यह मेरे दिल का ही हिस्सा है.
लेकिन यह दीवार सदा जलती-बुझती है.
बार-बार चेहरे आते हैं बीच हमारे
और अँधेरा भी हमको अलगा देता है.
अब मैं एक झील हूँ; मुझ पर झुकी हुई है महिला कोई
क्या है वह दरअसल –– खोजती है मेरे कोनों में जा कर
फिर मुड़ जाती है वो उन झूठों की जानिब – मोमबत्तियां हों कि चन्द्रमा.
देख रहा हूँ पीठ उसी की; सच्चा बिम्ब बना देता हूँ.
बहुत ज़रूरी हूँ मैं उसके लिए — तभी वह आती-जाती ही रहती है.
रोज़ सुबह उसका ही तो चेहरा लेता है स्थान अँधेरे का आ कर.
उसके आँसू ही मेरा ईनाम समझ लो,
देखो वह बेचैनी उसके हाथों में जो झलक रही है.
यूँ मुझमें उसने डुबो दिया है इक युवती को, और अब मुझमें
वृद्धा एक उभरती जाती है दिन-प्रतिदिन.
जैसे कोई भयावह जलचर!

Sylvia Plath (1932-1963)

Mirror

I am silver and exact. I have no preconceptions.
Whatever I see I swallow immediately
Just as it is, unmisted by love or dislike.
I am not cruel, only truthful—
The eye of a little god, four-cornered.
Most of the time I meditate on the opposite wall.
It is pink, with speckles. I have looked at it so long
I think it is a part of my heart. But it flickers.
Faces and darkness separate us over and over.
Now I am a lake. A woman bends over me,
Searching my reaches for what she really is.
Then she turns to those liars, the candles or the moon.
I see her back, and reflect it faithfully.
She rewards me with tears and an agitation of hands.
I am important to her. She comes and goes.
Each morning it is her face that replaces the darkness.
In me she has drowned a young girl, and in me an old woman
Rises toward her day after day, like a terrible fish.
 
 

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