हरियाणा में कीटनाशकों का कहर
रणबीर सिंह दहिया
कीट नाशकों के अनियन्त्रित इस्तेमाल ने हरित क्रांति के दौरान हरियाणा में जमीन, पशुओं और मानव जाति को काफी नुकसान पहुंचाया है। कीट नाशकों के अंधाधुंध प्रयोग से पर्यावरण से लेकर जन जीवन को होने वाले नुकसान से हम सभी परिचित हैं। पर इसके प्रयोग को लेकर जैसी सावधानी की सरकार से अपेक्षा थी वैसी कहीं देखने में नहीं आ रही है। इन कीट नाशकों की मानव शरीर में जाँच करने की मशीन तक रोहतक के चिकित्सा महाविद्यालय में नहीं है।
कृषि मंत्री शरद पवार ने राज्यसभा में यह स्वीकार किया था कि 67 कीटनाशक जो पूरी दुनिया में प्रतिबंधित और नियंत्रित हैं, भारत में मुक्त रूप से उपयोग किये जा रहे हैं। एक प्रश्न के उत्तर में कृषि मंत्री ने बताया कि एन्डोसल्फान सहित 13 कीट नाशकों को नियंत्रित आयात की अनुमति दी गयी है।
भारत सरकार के कृषि विभाग द्वारा अभी हाल में जारी रिपोर्ट के अनुसार देश भर के विभिन्न हिस्सों में फल, सब्जियों, अण्डों और दूध में कीट नाशकों की उपस्थिति पर किए गए अध्ययन से स्पष्ट हुआ है कि इन सभी में इनकी न्यूनतम स्वीकृत मात्रा से काफी अधिक मात्रा पाई गई है। इस रिपोर्ट के अनुसार सत्र 2008 और 2009 के बीच देश के विभिन्न हिस्सों से एकत्र किए गए खाद्यान्न के नमूनों का अध्ययन देश की 20 प्रतिष्ठित प्रयोगशालाओं में किया गया तथा अधिकांश नमूनों में डी.डी.टी.,लिण्डेन और मानोक्रोटोफास जैसे खतरनाक और प्रतिबंधित कीटनाशकों के अंश इनकी न्यूनतम स्वीकृत मात्रा से अधिक मात्रा में पाए गए हैं। इलाहाबाद से लिए गए टमाटर के नमूने में डी.डी.टी.की मात्रा न्यूनतम् से 108 गुनी अधिक पाई गई है, यहीं से लिए गए भुट्टे के नमूने में प्रतिबंधित कीटनाशक हेप्टाक्लोर की मात्रा न्यूनतम स्वीकृत मात्रा से 10 गुनी अधिक पाई गई है, उल्लेखनीय है कि हेप्टाक्लोर लीवर और तंत्रिका तंत्र को नष्ट करता है।
गोरखपुर से लिए सेब के नमूने में क्लोरडेन नामक कीटनाशक पाया गया जो कि लीवर, फेफड़ा, किडनी, आँख और केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र को नुकसान पहुँचाता है। अहमदाबाद से एकत्रित दूध के प्रसिद्ध ब्रांड अमूल में क्लोरपायरीफास नामक कीटनाशक के अंश पाए गए है यह कीटनाशक कैंसरजन्य और संवेदीतंत्र को नुकसान पहुँचाता हैं।
मुम्बई से लिए गए पोल्ट्री उत्पाद के नमूने में घातक इण्डोसल्फान के अंश न्यूनतम स्वीकृत मात्रा से 23 गुना अधिक मात्रा में मिले हैं। वही अमृतसर से लिए गए फूलगोभी के नमूने में क्लोरपायरीफास की उपस्थिति सिद्ध हुई है।
असम के चाय बागान से लिए गए चाय के नमूने में जहरीले फेनप्रोपथ्रिन के अंश पाए गए जबकि यह चाय के लिए प्रतिबंधित कीट नाशक है।
गेहू और चावल के नमूनों में ऐल्ड्रिन और क्लोरफेनविनफास नामक कीट नाशकों के अंश पाए गए हैं ये दोनों कैंसर कारक है।
इस तरह स्पष्ट है कि कीट नाशकों के जहरीले अणु हमारे वातावरण के कण-कण में व्याप्त हो गए हैं। अन्न, जल, फल, दूध और भूमिगत जल सबमें कीट नाशकों के जहरीले अणु मिल चुके हैं और वो धीरे-धीरे हमारी मानवता को मौत की ओर ले जा रहें हैं। ये कीट नाशक हमारे अस्तित्व के लिए खतरा बन गए हैं। कण-कण में इन कीट नाशकों की व्याप्ति का कारण है आधुनिक कृषि और जीवन शैली। कृषि और बागवानी में इनके अनियोजित और अंधाधुंध प्रयोग ने कैंसर, किडनी रोग, अवसाद और एलर्जी जैसे रोगों को बढ़ाया है। साथ ही ये कीट नाशक जैव विविधता के लिए खतरा साबित हो रहे हैं। आधुनिक खेती की राह में हमने फसलों की कीटों से रक्षा के लिए डी.डी.टी, एल्ड्रिन, मेलाथियान एवं लिण्डेन जैसे खतरनाक कीट नाशकों का उपयोग किया इनसे फसलों के कीट तो मरे साथ ही पक्षी, तितलियाँ फसल और मिट्टी के रक्षक कई अन्य जीव भी नष्ट हो गए तथा इनके अंश अन्न, जल, पशु और हम मनुष्यों में आ गए।
पिछले कुछ समय से पंजाब की खेती फिर से सुर्खियों में है। मुख्य कारण यह भी रहा है कि खेती में रासायनिक खादों और कीट नाशकों की खपत बढ़ती गई। यही नहीं, फिर ऐसे कीट नाशक भी इस्तेमाल होने लगे जो ज्यादा घातक थे। पंजाब में यह सबसे अधिक हुआ है और इसके भयावह नुकसान हुए हैं। इन कीट नाशकों के संपर्क और फसलों में आए उनके असर से कैंसर सहित अनेक गंभीर बीमारियां पनपी हैं। हालत यह हो गई कि पंजाब के मालवा क्षेत्र से राजस्थान की ओर जाने वाली एक ट्रेन को इसलिए ‘कैंसर ट्रेन’ के नाम से जाना जाने लगा था, क्योंकि सस्ते इलाज के लिए हर रोज इस बीमारी के शिकार लगभग सौ लोग बीकानेर जाते थे। गनीमत है कि इससे संबंधित खबरों में जब यह तथ्य सामने आने लगा कि कीट नाशकों के बेलगाम इस्तेमाल के कारण ही पंजाब के मालवा क्षेत्र में यह स्थिति बनी है, तो राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस पर स्वतः संज्ञान लेकर राज्य सरकार को जरूरी कार्रवाई करने के निर्देश दिए। नतीजतन पंजाब सरकार ने सेहत के लिए बेहद खतरनाक साबित हो रहे कीट नाशकों के उपयोग, उत्पादन और आयात पर पाबंदी लगा दी है। गौरतलब है कि पिछले कुछ सालों से पंजाब के बठिंडा, फरीदकोट, मोगा, मुक्तसर, फिरोजपुर, संगरूर और मानसा जिलों में बड़ी तादाद में गरीब किसान कैंसर के शिकार हो रहे हैं। सत्तर के दशक में पंजाब में जिस हरित क्रांति की शुरुआत हुई थी, उसकी बहु प्रचारित कामयाबी की कीमत अब बहुत सारे लोगों को चुकानी पड़ रही है। उस दौरान ज्यादा पैदावार देने वाली फसलों की किस्में तैयार करने के लिए रासायनिक खादों और कीट नाशकों का बेलगाम इस्तेमाल होने लगा। किसानों को शायद यह अंदाजा न रहा हो कि इसका नतीजा क्या होने वाला है। लेकिन क्या सरकार और उसकी प्रयोगशालाओं में बैठे विशेषज्ञ भी इस हकीकत से अनजान थे कि ये कीट नाशक तात्कालिक रूप से भले फायदेमंद साबित हों, लेकिन आखिरकार मनुष्य की सेहत के लिए कितने खतरनाक साबित हो सकते हैं?
विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र, चंडीगढ़ स्थित पीजीआई और पंजाब विश्वविद्यालय सहित खुद सरकार की ओर से कराए गए अध्ययनों में ये तथ्य उजागर हो चुके हैं कि कीट नाशकों के व्यापक इस्तेमाल के कारण कैंसर का फैलाव खतरनाक स्तर तक पहुंच चुका है। लेकिन विचित्र है कि चेतावनी देने वाले ऐसे तमाम अध्ययनों को सरकार ने सिरे से खारिज कर दिया और स्थिति नियंत्रण में होने की बात कही। देर से सही, राज्य सरकार ने इस मसले पर एक सकारात्मक फैसला किया है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए। कीट नाशकों की बाबत किसानों को जागरूक करने के साथ-साथ कैंसर के इलाज को गरीबों के लिए सुलभ बनाने की दिशा में कदम उठाना राज्य सरकार की जिम्मेदारी है।
यह ध्यान रखने की बात है कि कीट नाशक या रासायनिक खाद छिड़कने के जोखिम भरे काम में ल��े ज्यादातर लोग दूसरे राज्यों से आए मजदूर होते हैं और उन्हें स्वास्थ्य बीमा या सामाजिक सुरक्षा की किसी और योजना का लाभ नहीं मिल पाता है। पंजाब के अनुभव से सबक लेते हुए देश के दूसरे हिस्सों में भी कीट नाशकों के इस्तेमाल को नियंत्रित करने और खेती के ऐसे तौर-तरीकों को बढ़ावा देने की पहल होनी चाहिए जो सेहत और पर्यावरण के अनुकूल हों।
फसलों में अंधाधुंध प्रयोग किए जा रहे पेस्टीसाइड के कारण दूषित हो रहे खान-पान तथा वातावरण को बचाने के लिए जींद कृषि विभाग में एडीओ के पद पर कार्यरत डा. सुरेंद्र दलाल ने वर्ष 2008 में जींद जिले से कीट ज्ञान की क्रांति की शुरूआत की थी। डा. सुरेंद्र दलाल ने आस-पास के गांवों के किसानों को कीट ज्ञान का प्रशिक्षण देने के लिए निड़ाना गांव में किसान खेत पाठशालाओं की शुरूआत की थी। डा. दलाल किसानों को प्रेरित करते हुए अकसर इस बात का जिक्र किया करते थे कि किसान जागरूकता के अभाव में अंधाधुंध कीट नाशकों का प्रयोग कर रहे हैं। जबकि कीटों को नियंत्रित करने के लिए कीट नाशकों की जरूरत है ही नहीं, क्योंकि फसल में मौजूद मांसाहारी कीट खुद ही कुदरती कीटनाशी का काम करते हैं। मांसाहारी कीट शाकाहारी कीटों को खाकर नियंत्रित कर लेते हैं। डा. दलाल ने किसानों को जागरूक करने के लिए फसल में मौजूद शाकाहारी तथा मांसाहारी कीटों की पहचान करना तथा उनके क्रियाकलापों से फसल पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में बारीकी से जानकारी दी। पुरुष किसानों के साथ-साथ डा. दलाल ने वर्ष 2010 में महिला किसान खेत पाठशाला की भी शुरूआत की और महिलाओं को भी कीट ज्ञान की तालीम दी।
यह इसी का परिणाम है कि आज जींद जिले में कीट नाशकों की खपत लगभग 50 प्रतिशत कम हो चुकी है और यहां के किसान धीरे-धीरे जागरूक होकर जहर मुक्त खेती की तरफ अपने कदम बढ़ा रहे हैं। आज यहां की महिलाएं भी पुरुष किसानों के साथ मिलकर कीट ज्ञान की इस मुहिम को आगे बढ़ा रही हैं। दुर्भाग्यवश वर्ष 2013 में एक गंभीर बीमारी के कारण डा. सुरेंद्र दलाल का देहांत हो गया था। इससे उनकी इस मुहिम को बड़ा झटका लगा था लेकिन उनके देहांत के बाद भी यहां के किसान उनकी इस मुहिम को बखूबी आगे बढ़ा रहे हैं।
कीट नाशक किस तरीके से शरीर में पहुँचता है?
- पानी में कम घुलनशील कीट नाशक वे वसा और कार्बनिक तेलों में आसानी से घुल जाते हैं। आसपास के जल स्रोतों में रहने वाले प्राणियों में और वनस्पति में भी इनके अंश संचित हो जाते हैं और जब ये जीव या वनस्पति दूसरे किसी जीव द्वारा खाये जाते हैं तो ये उनके शरीर की वसा में संचित हो जाते हैं।
- पानी के जल स्रोतों के माध्यम से।
- फलों, सब्जियों के माध्यम से
- भूसे और पशु आहार से पशुओं में और फिर मनुष्य में।
- हवा के माध्यम से- जब हम छिड़काव करते हैं तो कीट नाशक की छोटी-छोटी बूँदें हवा में मिल जाती हैं। इसी कारण हमें कीट नाशक की महक आती है। जब हम खुली हवा में साँस लेते हैं तो ये बूँदें हमारे फेफड़ों में पहुँच जाती हैं। फिर रसायन फेफड़े की गीली दीवारों से हो कर खून में पहुँच जाता है। इस से बचने के लिए मुँह पर कपड़ा बाँध कर रखें। बिना मुंह ढके छिड़काव का मतलब है ज़हरीले रसायन को पीना।
- त्वचा के द्वारा – हम सभी जानते हैं कि हमारी त्वचा में छोटे-छोटे छिद्र होते हैं। इन छिद्रों से पसीना एवं तैलीय पदार्थ निकलता है। जब हम शारीरिक मेहनत करते हैं तो शरीर पर पसीने की एक पतली परत बन जाती है। यह परत कीट नाशक के अणुओं को घोल लेती है। फिर हमारी त्वचा इसे सोख लेती है। साँस के माध्यम से भी यह हमारे शरीर में जा सकता है । कभी-कभी कीट नाशक हमारे शरीर पर गिर जाता है। इस से वह और अधिक मात्रा में हमारे शरीर में पहुँच जाता है। हवा की दिशा के विपरीत छिड़काव करते समय खतरा और भी बढ़ जाता है। तब साँस द्वारा भी यह हमारे शरीर में पहुँचने लगता है।
इसलिए हमें शरीर को पूरी तरह ढक कर ही छिड़काव करना चाहिए। ऐसा न करने पर हमारी त्वचा पर अच्छी मात्रा में ज़हर जमा हो जाएगा। इस ज़हर को हमारे शरीर के अन्दर जाने में अधिक समय नहीं लगेगा। एक बात और, हम इस ज़हर को साँस के माध्यम से बाहर नहीं निकाल पाते। इसी तरह त्वचा द्वारा भी इसे शरीर के बाहर (वाष्पीकरण द्वारा) नहीं निकाला जा सकता। दूसरी बात, हमारे शरीर के विभिन्न अंग भिन्न-भिन्न गति से कीट नाशक को सोखते हैं।
- मुंह द्वारा – हमारे मुंह के रास्ते भी कीट नाशक बहुत जल्दी शरीर में पहुँच सकता है। बहुत से किसान या मज़दूर छिड़काव के दौरान बीड़ी इत्यादि पीते हैं। इस बीच वे पानी पीने या कुछ खाने के लिए भी एक-दो बार रुकते हैं। अगर छिड़काव शाम तक होना है तो वे उसी या बगल वाले खेत में खाना भी खाते हैं।
छिड़काव वाले खेत के आसपास काफ़ी मात्रा में कीट नाशक जमा हो जाते हैं। जहाँ सीधे छिड़काव नहीं किया जाता वहाँ भी कीट नाशक की सफेद परत पौधों की पत्तियों पर देखी जा सकती है। उसी तरह की सफेद परत वहाँ की सभी वस्तुओं पर जमी रहती है। इन में बरतन या खाने का सामान भी हो सकता है। अगर पानी खुला रखा है तो कीट नाशक के कुछ कण उस में भी घुल जाते हैं।
इसलिए खेत के पास खाते-पीते या धूम्रपान करते हुए हम ज़रूर कुछ कीट नाशक खा लेते हैं। बिना नहाए-धोए खाने-पीने से भी उस का कुछ भाग हमारे शरीर में पहुँच जाता है। धूम्रपान करते हुए या कुछ खाते हुए छिड़काव करने वालों को तो ईश्वर ही बचाये।
- बर्तन एवं कपड़ों से – छिड़काव के बर्तन, बाल्टी एवं उपकरण भी होता है, जिस से दिन में काम किया है। कीट नाशक शरीर पर, कपड़ों पर, बर्तनों तथा उपकरणों पर चढ़े हुए हैं।
परिणाम यह है कि जन स्वास्थ्य के प्रति सतर्क कई विकसित देश तो हमारे फल-सब्जियों के निर्यात पर पाबंदी लगाने जैसे कदम भी उठा रहे हैं। इसके बावजूद हमारे देश में वैसी सतर्कता और चेतना देखने को नहीं मिल रही है जैसी कि इतने संवेदनशील मुद्दे पर अपेक्षित है। क्या है समस्या और कैसे हो इस का हल ? हमें समय रहते चेतना होगा ।
कीट नाशकों से होने वाली बीमारियां-
कीट नाशकों के प्रयोग से मनुष्य कई प्रकार की बीमारियों की चपेट में आ सकता है। सबसे प्रमुख है – इम्यूनोपैथोलोजिकल इफैक्टस-आटो इम्युनिटी,अक्वायरड इम्युनिटी,हाईपर सैंसिविटी के स्तर पर विकार अलग अलग ढंग से, कारसिनोजैनिक इफैक्ट, मुटाजेनिसिटी, टैटराजैनिसिटी, न्यूरोपैथी, हैपेटोटोक्सीयिसटी, रिपरोडक्टिव डिस्आर्डर, रिकरैंट इन्फैक्सन्ज। इन पर यहां विस्तार से चर्चा न करके कुछ बीमारियों के बारे चर्चा की जा रही है।
1- तीव्र विषाक्तता (एक्यूट प्वायजनिंग)
इसमें कीटनाशक प्रयोग करने वाला व्यक्ति ही इसकी चपेट में आ जाता है। इनके प्रभाव में आने के तुरन्त बाद या 24 घण्टे के अन्दर इनके कुप्रभाव सामने आने लगते हैं। कितना गहरा ���सर होगा यह कीट नाशक की मात्रा पर भी निर्भर करता है। हमारे देश में तो यह समस्या काफी देखने में आती है। इसमें सिर दर्द होना, जी मितलाना,चक्कर आना, पेट में दर्द, चमड़ी और आंखों में परेशानी, बेहोश हो जाना व मृत्यु तक शामिल हैं।
2 – क्रोनिकः असर लम्बे समय तक कीट नाशक के शरीर में इकट्ठे होते जाने के कारण होते हैं। कीट नाशक के प्रयोग से होने वाली दूसरी बड़ी बीमारियां हैं
कैंसर: विशेष रूप से खून और त्वचा के कैंसर इस कारण से काफी देखने में आते है। इनके प्रभाव में आने वाले लोगों में दिमाग के, स्तनों के, यकृत-जिगर-लीवर के, अगनश्य- पैंर्कियाज के, फेफड़ों-लंग्ज के कैंसर का रिस्क बढ़ जाता है।
इसके अलावा श्वास संबंधी बीमारियां और शरीर के अपने डिफेंस तंत्र के कमजोर होने की समस्या इसके कारण काफी देखने में आती है। कई बार यह नर्वस प्रणाली को चपेट में ले लेता है। इसी प्रकार चमड़ी की बीमारियां भी इनके प्रभाव के कारण ज्यादा होती हैं। नपुंसकता की संभावना बढ़ जाती है।
मां की औरनाल के रास्ते गर्भ में बच्चे में ये कीटनाशक प्रवेश पा जाते हैं और जन्म जात विकृतियों का रिस्क बढ़ जाता है खासकर तंत्रिका तंत्रिका-नरवस सिस्टम के।
इसी प्रकार पारकिन्सोनिज्म बीमारी का रिस्क 70 प्रतिशत बढ़ जाता है। बच्चों में अग्रेसिवनैस बढ़ने का कारण भी हो सकते हैं। किसानों में आत्म हत्याएं करने की मानसिकता पैदा करने में भी इनके कुप्रभावों की भूमिका हो सकती है।
कीट नाशकों के कारखानों, घर में, खाने में, पानी में, पशुओं में मौजूद कीट नाशक हमारे शरीर में पहुंच कर हमारे फैट में, खून में इकट्ठा होते रहते हैं और नुकसान पहुंचाते हैं। स्टॉक होम कन्वैंसन ऑन परसिस्टैंट आरगेनिक पोलुटैंटस के मुताबिक 12 में से 9 खतरनाक और परसिस्टैंट कैमिकल ये कीटनाशक हैं। कई सब्जियों और फलों में धोने के बावजूद कीटनाशकों के अवशेष पाये गये हैं। अंडों में, मीट में, भैंस और गाय के दूध में भी इन कीटनाशकों के अवशेष पाये गये हैं।आज कल के बच्चों में बढ़ता अग्रेसिव एटीच्यूड व किसानों में बढ़ती आत्महत्या की मानसिकता में भी इन कीटनाशकों के अवशेषों की भूमिका देखी जा रही है।
लगभग 20 प्रतिशत खाद्य पदार्थों में भारत में कीटनाशकों के अवशेष की मात्रा टोलरेंस लेवल से ज्यादा पाई गई है। जबकि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर यह 2 प्रतिशत ही है। महज 49 प्रतिशत भारतीय खाद्य पदार्थों में नो डिटैक्टेबल रेजिड्यू पाये गये जबकि अन्तराष्ट्रीय स्तर पर यह प्रतिशत 80 का था।
मेरे तीस पैंतीस साल के अनुभव मुझे यह सोचने पर मजबूर करते रहे कि पेट दर्द की लम्बी बीमारी जहाँ बाकी सभी टेस्ट नार्मल आते हैं उन मरीजों में पेट दर्द का कारण ये कीट नाशक ही होते हैं। रिसर्च के लिये सुविधा न होने के कारण मेरा ये मिशन पूरा नहीं हो सका।
कीटों और सूक्ष्म जीवों को मारने में प्रयुक्त होने वाला कीट नाशक मूल रूप से यह जहर ही है। अगर कीटनाशकों का दुरूपयोग किया जा रहा है तो इसके बहुत गंभीर परिणाम हो सकते हैं। यह उन सभी के लिए हानिकारक होता है जो कि इसके संपर्क में आता है। किसान-कम-उपभोक्ता, जानवर सभी के लिए यह नुकसानदेह हो सकता है। इसलिए कीटनाशकों के इस्तेमाल पर सवालिया निशान खड़े हो गए हैं। उपयोग तभी किया जाना चाहिए जबकि उनकी जरूरत हो। भारत के कुछ क्षेत्रों जैसे हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तरी प्रदेश, आंध्रप्रदेश से विशेषरूप से कीटनाशकों का अधिक प्रयोग करने की खबरें आ रही हैं।
कीटनाशकों के उपयोग का सबसे बेहतर तरीका यह है कि उनका इस्तेमाल ‘इंटीग्रेटिड पेस्ट मैनेजमेंट’ के अंतर्गत किया जाए। अर्थात कीटनाशकों का प्रयोग कीट नियंत्रण के अन्य उपायों के साथ एक उपाय के रूप में किया जाए। एकमात्र उपाय के रूप में नहीं किया जाए। भारत में यह देखने में आता है कि अधिकांश लोग कीट नियंत्रण के लिए कीटनाशकों पर निर्भर हो गए हैं। प्रायः तब भी कीटनाशकों का छिड़काव कर दिया जाता है जबकि उनकी जरूरत ही न हो। जबकि कीटनाशकों को प्रयोग तब होना चाहिए जबकि ऐसा लगे कि फसल में कीट लगना बढ़ सकता है। इसके साथ ही गैर रासायनिक जैविक कीटनाशकों के प्रयोग को भी प्राथमिकता देने की जरूरत है।
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (नवम्बर-दिसम्बर, 2015), पृ. 41से 43