पूरे देश में पिछले दो दशकों से खेती लगातार घाटे का सौदा बनती जा रही है। इसके परिणामस्वरूप खेती-किसानी से जुड़े करोड़ों लोगों का जीवन यापन कर पाना कठिनतम होता जा रहा है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश में औसतन हर घंटे 15 किसान आत्महत्या कर रहे हैं। अब तक तीन लाख से भी ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। गंभीर बात तो यह है कि यह आंकड़ा आधा अधूरा है। बहुत सारी आत्महत्याएं बीमारी आदि के कारण बताकर इसमें नहीं जोड़ी जाती हैं। हरित क्रांति का अग्रणी प्रदेश होने के बावजूद भी वर्तमान में हरियाणा इस संकट का अपवाद नहीं है, बल्कि कई मायनों में तो यहां संकट और भी ज्यादा गहरा है।
हरियाणा में सीधे तौर पर छोटे और मंझले किसान व भूमिहीन लोग ही बंटाई या ठेके पर जमीन लेकर खेती करते हैं। बड़ी जोतों के मालिक ज्यादातर अबसेंटी फार्मर हैं व शहरों में रहते हैं या शहर व गांव दोनों जगह रिहायश बनाए हुए हैं। इसी हिस्से को पिछले 20 वर्षों की सारी सरकारी छूट व नौकरियों का बड़ा हिस्सा मिला है। साथ ही ये वर्ग पक्ष-विपक्ष की सभी राजनीतिक पार्टियों में दबदबा भी रखता है। इसलिए खेती किसानी के संकट से यह अप्रभावित है। वास्तविक रूप से खेती किसानी करने वाले 50 प्रतिशत से भी ज्यादा दलित व पिछड़ी जातियों से संबंधित हैं। बेशक इसमें आधा हिस्सा सवर्ण जातियों के आर्थिक रूप पिछड़े लोग भी हैं। उपरोक्त तथ्य कई बड़े विवादों को जन्म देता है। जैसा कि इस बार यह प्राकृतिक आपदा के कारण बर्बाद हुई फसलों के मुआवजा वितरण के समय जमीन मालिकों और वास्तविक किसानों के अनगिनत झगड़ों के रूप में सामने आया।
हरियाणा 44212 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। 2011 की जनगणनना में इसकी आबादी ढाई करोड़ बताई गई है। पिछले दशक की वृद्धि दर 2.5 प्रतिशत सालाना है। इसी दौरान शहरी आबादी में 6 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है व ग्रामीण आबादी में इतनी ही कमी। इन दोनों कारणों से ही खेती की जमीन गहराई से प्रभावित हुई है। देश की राजधानी दिल्ली के तीन तरफ एनसीआर हरियाणा का है।
पिछले दस सालों में सोनीपत गुड़गांव फरीदाबाद व झज्जर जिलों की खेती लायक जमीन का बड़ा हिस्सा रीयल एस्टेट कम्पनियों, बड़े कार्पोरेट व भू-माफिया ने सरकारों से गठजोड़ करके हथिया लिया है। यह प्रक्रिया अब मेवात, पलवल, करनाल व पानीपत तक भी पहुंच चुकी है। हरियणा के बाकी हिस्सों में भी बड़े पावर प्लांटस, उद्योग, रिहायशी व प्राईवेट शिक्षण संस्थान, विलासिता स्थल व एक्सप्रेस वे बनाने के लिए बड़े पैमाने पर जमीन का अधिग्रहण किया गया है। सरकार के पास इसका कोई सही आंकड़ा नहीं है। पर एक मोटे अनुमान के अनुसार हरियाणा बनने के बाद से लेकर लगभग एक तिहाई खेती लायक जमीन उपरोक्त कार्यों में चली गई है। इसका एक दूसरा गंभीर प्रभाव यह होता है कि खेती सिंचाई में प्रयुक्त होने वाले पानी का बड़ा हिस्सा उपरोक्त कार्यों में चला जाता है। परिणामस्वरूप जल संकट व भूमिगत जल का अंधाधुंध दोहन। यहां तक कि शीर्ष अदालत को इस दोहन पर रोक लगानी पड़ रही है। इसी पृष्ठभूमि के मद्देनजर ही हरियाणा की खेती की प्रक्रिया का अध्ययन करना उचित रहेगा।
हरियाणा के सिंचित क्षेत्रों में दशकों से गेहूं-धान व गेहूं-अमेरिकन कपास (नरमा) फसल चक्र अपनाया जा रहा है। बरानी इलाकों में ग्वार-बाजरा/सरसों-जौ फसल चक्र अपनाया जाता है। दालों की खेती न के बराबर है। शहरों के नजदीक के कुछ क्षेत्रों में सब्जियों व चारे की खेती होती है। हरित क्रांति की शुरूआत में ही, मुख्य फसलों की उपज बढ़ाने के लिए बौनी किस्में विकसित की गई जो पानी व रासायनिक खाद के इस्तेमाल से भरपूर पैदावार देती हैं। यह सारी प्रक्रिया दो स्तंभों पर टिकी थी। ये हैं एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन व एकीकृत कीट प्रबंधन। इनके मायने हैं सही समय पर सही मात्रा में मुख्य व सूक्ष्म पोषक तत्वों व कीटनाशियों का प्रयोग सुनिश्चित करना। यह जिम्मेवारी डाली गई कृषि विश्वविद्यालय व कृषि-विभाग पर। बड़े स्तर पर टीमें गठित की गई, जिन्हें मिट्टी-पानी आदि की जांच करके फसलानुसार खादों की मात्रा तय करके व उसका डालने का समय, किसानों को समझाना था। साथ ही कीटनाशियों के प्रयोग के मामले में आर्थिक कगार स्तर (ईटीएल) किसानों को समझाना था। यह प्रत्येक फसल में अलग-अलग कीटों की संख्या का औसतन स्तर होता है, जिसको पार करने के बाद ही कीटनाशी का प्रयोग आर्थिक रूप से किसानों के लिए फायदेमंद होता है। वरना कीटनाशियों का छिड़काव केवल पैसे की ही बर्बादी होता है। यह आर्थिक कगार स्तर सुबह के समय हर खेत में 8-10 पौधों पर पत्तों व अन्य हिस्सों पर कीटों की गिनती करके तय करना होता है। हर फसल का व हर कीट का अलग-अलग आर्थिक कगार स्तर निश्चित है।
असल में हुआ क्या? खाद, बीज व कीटनाशी बनाने वाली कम्पनियों ने (जिनमें से ज्यादातर बहुर्राष्ट्रीय हैं।) युद्धस्तर पर सेल्जमेनों की भर्ती करके व हरियाणा के हर गांव तक अपनी डीलर-नेटवर्क तैयार करके 100 प्रतिशत किसानों तक अपनी पहुंच बनाकर खादों व दवाइयों का अंधाधुंध प्रयोग करवाया। इस तरह इस पूरे कार्यक्रम का अपहरण कर लिया गया और इसे एक शानदार ‘बिक्री कैम्पेन’ में बदल दिया गया। सरकारी संस्थानों ने इसे रोकने की बजाए इसमें सहयोग का ही रवैया अपनाया। नतीजा, सभी फसलों की पैदावार एक स्तर पर आकर ठहर ही नहीं गई, बल्कि गिरना शुरू हो गई। अंधाधुंध खादों के प्रयोग से विशेषकर यूरिया व डीएपी से भूमि की उर्वरा शक्ति कमजोड़ पड़ गई। भूमिगत जल प्रदूषित हो गया व कीटों का प्रयोग बढ़ गया। इसको रोकने के लिए कीटनाशियों का अंधाधुंध प्रयोग करवाया गया, जिससे पूरी खाद्य श्रृंखला प्रदूषित हो गई। मित्र कीटों व पक्षियों का पूर्णतः सफाया हो गया। मित्र कीटों की अनुपस्थिति में हर दूसरे-तीसरे साल कोई एक कीट महामारी बनने लगा। उदारहणार्थ कपास में 2001 में अमेरिकन सुंडी व 2013 व 2014-15 में सफेद मक्खी, जिससे पूरे-पूरे क्षेत्रों में 80 से 90 प्रतिशत तक फसल बर्बाद हो जाती है। इसका एक बड़ा दुष्परिणाम जल है।
दूध व सब्जियां, फल व अन्य सभी खाद्य पदार्थों के प्रदूषित होने के कारण कैंसर जैसी खतरनाक बीमारी व तेजी से फैलना। एक-एक गांव में कैंसर के सौ-सौ रोगी मौजूद हैं। पशुओं में गंभीर लाईलाज बीमारियां आनी शुरू हो गई है। स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण होने के बाद कैंसर के इलाज में बड़े पैमाने की लूट हो रही है। लोग लगातार बर्बाद हो रहे हैं।
केवल उपज की मात्रा कम होने की ही बात नहीं है। पिछले एक दशक में कृषि में प्रयोग होने वाली हर चीज का दाम आठ से दस गुणा बढ़ा है। जबकि फसलों के दामों में पिछले चार सालों में ही (गेहूं व परमल धान को छोड़ कर) भारी गिरावट दर्ज की गई है। गेहूं व परमल धान का भी सरकारी खरीद मूल्य बहुत ही कम है। इसे लागत का डेढ़ गुणा करने की बात कही गई थी पर यह लागत के आसपास ही ठहरा हुआ है। इन सारी परिस्थितियों म��ं आमदनी लगातार कम होती गई है व लागत व खर्च बढ़ता ही गया है। परिणामस्वरूप कर्ज का फंदा कसता ही जाता है। फिर यह फंदा प्राकृतिक आपदा या कीटों की महामारी के साल में फांसी के फंदे में बदल जाता है। सरकारें तब फसल बीमे की ठगी व औना-पौना मुआवजे की नौटंकी करती हैं। तब यह सारा घटनाक्रम बहुत ही वीभत्स दृश्य में बदल जाता है।
खेती का घाटे का सौदा बनना, नीतियों का मामला है। यह खेती के कारपोरेटीकरण का मामला है। यह एक अंतर्राष्ट्रीय मसला है। इसके मायने हैं, फसल के बीजों, भावों, सबसिडी व तकनीकों का फैसला अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर डब्ल्यूटीओ आदि में होना। भारत में अभी भी आधी आबादी सीधे तौर पर खेती-किसानी से जुड़ी है। यहां उपरोक्त माडल के लागू होने का मतलब होगा 60 करोड़ लोगों का बेरोजगार हो जाना। इतनी बड़ी संख्या को कहां खपाया जाएगा, जबकि दूसरे सभी क्षेत्रों में रोजगार लगातार सिकुड़ता जा रहा है। हरियाणा उपरोक्त माडल के लागू होने की अग्रणी प्रयोगशाला है। भारी संख्या में किसानों को बड़ी रकम के क्रेडिट कार्ड देकर वापस यही पैसा मालों के उपयेाग में लगवा लेने की सरकारी योजना इसी साजिश का हिस्सा है। यह एक तरह से बड़े पैमाने पर खेती की जमीनों का जबरन हस्तांतरण साबित होगा।
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (नवम्बर-दिसम्बर, 2015), पृ. 38 से 39