इत दिल्ली उत आगरा मथुरा सू बैराठ।
काला पहाड़ की शाळ में बसै मेरी मेवात।।
इस मेवाती दोहे में मेवात का भौगोलिक फैलाव दिल्ली से लेकर फतेहपुर सीकरी के बीच बताया गया है, जिसमें गुड़गांव, फरीदाबाद, भरतपुर, दौसा, अलवर, मथुरा, आगरा, रेवाड़ी जिलों के बीच का भाग शामिल है। इस पूरे क्षेत्र को मेवात के नाम से जाना जाता रहा है, लेकिन आजादी के बाद पुनर्गठन हुआ और मेवात सिमट कर अलवर से लेकर सोहना तक और हथीन से लेकर तिजारा, भिवाडी तक रह गया है। तात्पर्य यह है कि पहले की अपेक्षा मेवात काफी छोटा हो गया है। इस क्षेत्र में अधिकता में मेव जाति निवास करती है। उसी के नाम पर इसका नाम मेवात पड़ा।
भारत में इस तरह क्षेत्रों के जातियों के नाम पर पहले से ही हैं। जैसे अहीरवाल, जंटियात, मीणावाही आदि। मेवात को पहले से ही लोग पसंद करते आए हैं। इसीलिए इसको मेवा भी कहा जाता रहा है। इस क्षेत्र का अपना इतिहास रहा है। इनके लिए वतन हमेशा धर्म व जाति से ऊपर रहा। राजा हसनखां मेवाती ने बाबर का साथ न देकर राणा सांगा का साथ दिया था और भी बहुत से किस्से प्रसिद्ध हैं।
एक-एक क्षेत्र की और उसमें बसने वाली कौम की अपनी अलग भाषा, लोक साहित्य, लोक संस्कृति तथा सोच होती है। जो उसको कई मायनों में दूसरे क्षेत्रों से अलग करती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि भाषा मनुष्य के पास ऐसी वस्तु है, जो समग्रता में उसके चरित्र का निर्धारण करती है। भाषा ही मनुष्य के भावों व विचारों की वाहिका है। मनुष्य को मनुष्य बनाने का श्रेय भाषा को ही प्राप्त है। यही वह साधन है, जिसके कारण वह दया, ममता, करूणा आदि उच्च भावों से मंडित है। दुनिया की सभी संस्कृतियां भाषा के जरिए ही पहचानी जाती हैं। संस्कृति के अलावा ज्ञान-विज्ञान की अन्य बातें भी हम भाषा के जरिए सीखते हैं।
सांस्कृतिक दृष्टि से मेवात में हिन्दू और मुसलमान काफी घुले-मिले हुए हैं। वो होली, दीवाली, ईद आदि त्यौहारों को मिल कर मनाते रहे हैं। यहां धर्म के मामले में उदारता रही है। भाषिक दृष्टि से भी यहां हिन्दू और मुसलमानों में भेद करना कठिन है। पहले कहा जा चुका है कि मेवात वासी, छल, कपट, धोखा आदि से कोसों दूर माने जाते है।
भाषा का निर्माण किसी विशेष जाति, धर्म, वर्ग अथवा सम्प्रदाय द्वारा नहीं होता है। यह तो स्वाभाविक रूप से बनती-बिगड़ती है। डा. पं. सुभरोकोव ने लिखा है – ‘‘भाषाओं की रचना पढ़े-लिखे लोगों द्वारा नहीं, बल्कि लोगों द्वारा और सिर्फ सोचने-विचारने वाले लोगों द्वारा नहीं, बल्कि सभी तरह के लोगों द्वारा की जाती है।’
सांस्कृतिक दृष्टि से मेवात में हिन्दू और मुसलमान काफी घुले-मिले हुए हैं। वो होली, दीवाली, ईद आदि त्यौहारों को मिल कर मनाते रहे हैं। यहां धर्म के मामले में उदारता रही है। भाषिक दृष्टि से भी यहां हिन्दू और मुसलमानों में भेद करना कठिन है। पहले कहा जा चुका है कि मेवात वासी, छल, कपट, धोखा आदि से कोसों दूर माने जाते है।
हृदय से निकली बात चाहे वह बातचीत हो, लोकगीत हो, लोकगाथा हो, चाहे कोई और माध्यम हो उसमें भोलापन आना स्वाभाविक है और भोलापन अपने-आप में मीठा व रसीला होता है। मेवाती में शिष्ट साहित्य न के बराबर है। यहां अपना लोक साहित्य है, जिसमें लोकगीत, लोक दोहे, लोक कथा, लोक गाथा तथा पहेलियां खूब प्रचलित हैं। मेवाती दोहों के माध्यम से मीठा बोलने और परोपकार करने के लिए इस प्रकार प्रेरित किया गया है।
‘खट रस, मिठ रस, प्रेम रस, कन रस लीजो तोल,
सब रस भाई जुबान में चाहे जैसो बोल।।
अर्थात खट्टा, मीठा, प्रेम और कड़वापन इसी जबान में निहित है। यह मनुष्य पर निर्भर करता है वह कैसा बोले अर्थात इसमें मीठा बोल बोलने के लिए उत्साहित किया गया है।
कागा कोयल एक सा, बैठा एकई डाल।
बोली सू परख लै, ई कोयल ई काग।।
अर्थात् मनुष्य की वाणी से ही पहचान होती है।
लोक साहित्य लोक मन का आईना होता है। मेवात भी उससे अछूता नहीं है। मेवाती लोक गीतों को सुनते ही अवसान भी या तो थिरकने लगता है या करूणा से भर जाता है।
एक श्रृंगारी गीत दृष्टव्य है –
राजा हम प चलै न तेरी चाक्की
हमारी पतली सी कमरिया रे
ना गोरी मारुं ना गोरी छेडूं
दुहरी लगा दूं पीसणहारी,
तिहारी पतली सी कमरिया रे
राजा हम प खिंचे ना तेरो पाणी
हमारी बाली सी उमरिया रे
ना गोरी मारुं न गोरी छेडूं
दुहरी लगा दूं पणिहारी,
तिहारी बाली उमरिया रे
इसमें नायक नायिका के लिए पूरी तरह समर्पित है। संयोग, श्रृंगार का मनोहारी चित्रण हुआ है।
एक और गीत वियोग श्रृंगार से संबंधित है देखिए –
अइये मेरो रो-रो गुलीबंद भीजे
अईये सुबकिन सू गलो मेरो दूखे
सास मेरी दीखे, ससुर मेरो दीखे
अइये हरबाबी बलम ना दीखे
अइये मेरो रो-रो गुलीबंद भीजे
देवर भी दीखे, दौराणी भी दीखे
अइये छरचंदो बलम ना दीखे
अईये मेरो रो-रो गुलीबंद भीजे।
इस गीत में प्रोषितपतिका, पति को संबोधित करते हुए कहती है कि मैंने रो-रो कर बुरा हाल बना लिया है। यहां पर सभी हैं पर तुम नहीं हो।
मेवाती महाभारत में एक जगह बड़ी कलात्मकता से कुरुक्षेत्र का वर्णन किया है। युद्ध से पहले युद्ध के लिए जगह खोजी जाती है। उसी समय मेवाती में कहा गया एक लोकगाथा गीत का अंश प्रस्तुत है।
हीन अचम्बो देख, बाप ने बेटा मारो
तनक करी ना काण, पकड़ धोरा में डालो
ऊपर सूं, माटी धरी, नक्को दियो जमाय
अरजन या भुम्म है चाक लै, हीन पिता पूत कूटवाय
यहां मेवाती की कलात्मकता देखते ही बनती है। पहले दोहों के बारे चर्चा हो चुकी है। नीति परक और श्रृंगारिक दोहे कहने की परम्परा मेवात में पुरानी है। नीति हमेशा मंगलमय होती है। उसमें किसी का अहित नहीं होता और जिस बोली से किसी का अहित नहीं होता, वह मीठी लगती है तथा समाज के लिए लाभदायक होती है।
- पर नारी पैनी छुरी, मत लगाओ अंग
रावण जैसा खप गया पर नारी के संग।। - पर नारी पैनी छुरी, तीन ठोड़ सू खाय
बान भटे, जोबन घटे, लाज कुटम की जाए।। - जै सुख चहावै जीव को, काम छोड़ दे चार,
चोरी, चुगली, जामनी, चौथी पराई नार।।
मेवाती में ऐसे हजारों दोहे हैं, जो किसी भी समय सुनाए जा सकते हैं और सुनने वाला प्रभावित हुए बगैर नहीं रह सकता।
मेवात का अपना एक लोकगीत प्रकार है। उसी को लोग मेवाती गीत समझते हैं। यह दो पंक्तियों का छोटा सा गेय मुक्तक होता है। इसकी लय और तान और समय-समय पर बदलती रहती हैं। इसके द्वारा क्षणिक हृदय उद्गार बड़े ही सटीक ढंग से उजागर होते हैं जैसे –
कस कू रोकेगो मोटर में भक्क कै सीट
खंदा दै माई मत रोके।।
यह गीत कोमल भावना से ओतप्रोत है। इसमें पति पत्नी को लाने उसके मायके में जाता है। तब उसकी सास उसकी पत्नी को उसके साथ भेजने से मना कर देती है। तब वह निराश होकर चल देता है। तभी उसकी पत्नी गीत के माध्यम से अपनी मां से कह उठती है। माई मुझे इसके साथ भेज दो। रास्ते में यह सीट किस लिए रोकेगा। अर्थात हर बार जब मैं इसके साथ जाती हूं, तो यह भागकर बस में सीट खोजता है। मेवाती गीतों में अधिकतर गीत दाम्पत्य जीवन पर आधारित हैं।
मेवात में बहुत सी लोकगाथाएं प्रचलित हैं, जिनमें राज बासक की बात, कृष्ण मूजरी की बात, महादेव गौरा को छल, इन लोकगाथा गीतों को मेवात में बात कहा जाता है। मेवात में इनको गाने वाली जाति मीरासी होते हैं। ये पूरी रातभर मेवों को संगीत के साथ इनको सुनाते रहे हैं।
मेवात में बहुत सी लोकगाथाएं प्रचलित हैं, जिनमें राज बासक की बात, कृष्ण मूजरी की बात, महादेव गौरा को छल, इन लोकगाथा गीतों को मेवात में बात कहा जाता है। मेवात में इनको गाने वाली जाति मीरासी होते हैं। ये पूरी रातभर मेवों को संगीत के साथ इनको सुनाते रहे हैं। एक लोक गाथा गीत का अंश प्रस्तुत है –
इतनी सुणकर बात, घात भीतर धर लीनी
धरो भीलनी भेस, गेल परबत की लीनी
पोहंची हून जार, बीणती ढौले लकड़ी
देखी शंकर नार, मची वाके दिल में हुड़की
तेरा अजब कंटीला नैन, बणी तू सुंदर नारी
धोनी धोया दंत, बोलती लागे प्यारी
काई तू कारीगर ने घड़ी, अरस सू परी उतरी
देही प दो गुरज, जिगर सू दीखे न्यारी
सुण भीलनी तोसू कहूं, सुनो हमारी बात
सारा परवत की राणी करूं, जै तू रहे हमारे साथ।।
हिन्दू धर्म के मिथक मेव समाज में मेवाती बोली में बड़े ही कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किए गए हैं। कहा जा सकता है। यहां शब्दों की बनावट, लहजा, मिठास से ओतप्रोत है।
मेवात में बहन से, बांहण, लाली, भैंना कहकर पुकारा जाता है। ‘भाई-बाहण कहां सूं आई है।’ बहन- ‘भई मैं तो हींनी सू आई हूं।’ यहां भाई से बीरा, भई, लाला कहकर बुलाया जाता है। मां से माई कहकर पुकारते हैं। यहां पिता, मां, और पति को ‘तू’ कहकर बुलाया जाता है।
मेवात में एक जैसी बोली नहीं है। जो कई तरह से बोली जाती है। इनका लहजा, शब्दों की बनावट भिन्न-भिन्न है। अलवर जिले में बोली जाने वाली बोली भी एक बानगी देखिये –
आपा ई तो लड़ैं, आपा ई जेल जावां
आपा ई लुटे, भाया सारी गलती हमारी है।
भाया ना तो हम पढ़ां, न लिखां, हम तो ढोर हां ढोर।।
हरियाणा में भयाना की बोली – एक बानगी
हमी तो लड़ें, हमीं जेल जावें, हमीं लुटां-खुसां, भई ऐसो अ सारी गलती हमारी है। देखा न हम पढें, न लिखें, हम तो ढोर या ढोर ही हैं।
हृदय को छूने वाला एक संवाद –
भई यहां कोय तू
भई मैं तो सिहरावट को हूं
यार तैने जब सू कीना बताई, तू तो रिश्तेदार है।
आजा बैठजा, थोड़ी रूक्कै चलो जाए।
ओ छोरा पैप्सी ला भक्क कै।
यहां मेहमान नवाजी चरमोत्कर्ष पर है।
जहां गरीब व अनपढ़ लोगों की अधिकता हो, वहां सभ्य, सुसंस्कृत व शब्दों की जादूगरी होना कठिन है, लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि मिठास का संबंध भावना से होता है। कोमल भावना रखने वाला मनुष्य कटुभाषी होना मुश्किल है। उसमें बेढबपन हो सकता है पर कटुता नहीं।
मेवात बोली के लिहाज से व्यवहार के लिहाज से और कोमल भावनाओं के लिहाज से मेवा है। यहां ज्यादातर सरकारी कर्मचारी दूसरे क्षेत्रों से संबंध रखते हैं लेकिन वे आने के बाद यहां से जाने का नाम नहीं लेते। वो इसमें रम जाते हैं। दूसरी बात यह है कि मेवात में मेव समाज ने अभी तक धर्मशाला या सेलहर नहीं बनाया है। इसका कारण यह है कि बाहरी अनजान आगंतुक को किसी घर में बिना हिचक ठहरने की इजाजत मिल सकती है। कुछ असामाजिक तत्व समाज को बदनाम किए हुए हैं लेकिन आज भी अधिकता में भोलापन विद्यमान है।
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (नवम्बर-दिसम्बर, 2015) पृ.- 30 से 32