अवाम का कवि उस्ताद दामन – एस.के.सेठी –

https://www.youtube.com/watch?v=bK5JmUmB7i0

‘भावें मूहों ना कहिये, पर व्हिच्चों व्हिच्ची
खोए तुसी वी ओ, खोए असी वी आँ
इन्हाँ अज़ादियाँ हत्थों बरबाद होणा,
होए तुसी वी ओ, होए असी वी आँ
कुछ उमीद ऐ जि़न्दगी मिल जावेगी,
मोए तुसी वी ओ, मोए असी वी आँ
ज्यूंदी जान ई मौत दे मूँह अन्दर,
ढोए तुसी वी ओ, ढोए असी वी आँ
जागण वाल्याँ रज्ज के लुट्या ए,
सोए तुसी वी ओ, सोए असी वी आँ
लाली अखियाँ दी पई दसदी ए,
रोए तुसी वी ओ, रोए असी वी आँ।’

1950 में दिल्ली में हुए हिन्द-पाक मुशायरा में जब उस्ताद दामन ने ये कविता कही तो बहुत सी आँखें नम हो गईं, कुछ लोग सुबक पड़े तो कुछ रो दिए। विभाजन के घाव तब हरे थे और लोगों के मन भारी। सुन कर हर कोई अश-अश कर उठा। उस मुशायरे में जवाहरलाल नेहरू भी मौजूद थे। उन्होंने उस्ताद दामन से विनती की कि वे भारत में ही बस जाएँ पर वे न माने और कहने लगे कि लाहौर उन से नहीं छुटेगा। वहीं पैदा हुए, बड़े हुए,वहीं रहेंगे और उसी मिट्टी में मौत की आग़ोश में चले जाएँगे।

https://www.youtube.com/watch?v=l3ofFxHAFVU

दिल में उतर जाने वाली ऐसी ही कविता कहते थे उस्ताद दामन। वे सदा हिन्दू-मुस्लिम-सिख एकता के अलमबरदार रहे और देश के बंटवारे के खि़लाफ़।

उस्ताद दामन (असली नाम चिराग़ दीन) का जन्म 1911 में लाहौर में हुआ था। उन की माँ धोबी का काम करती थी, पिता रेलवे में मुलाजि़म थे और साथ ही ख़ाली वक्त में सिलाई का काम भी करते थे। दामन पिता के सिलाई के काम में उन का सहयोग बचपन से ही देते चले आए थे। मैट्रिक पास कर लेने के बाद जब दामन को कोई नौकरी न मिली तो वे पूरी तरह से सिलाई के काम में लग गए। वे अक्सर कहते थे कि माँ के व्यवसाय के कारण उन का मन निर्मल और सोच साफ़ है, और पिता के काम की वजह से वे जि़न्दगी के टुकड़ों की सिलाई कर के उन्हें जोडऩे का काम करते हैं।

कपड़ों की सिलाई करते समय उस्ताद दामन अपनी कविताएँ गाते रहते थे और इस बात के लिए वे लाहौर के अपने पड़ोसी मोहल्लों में मशहूर थे। 1930 में लाहौर के एक प्रमुख मुस्लिम कांग्रेसी नेता ने उन्हें एक सूट सिलने के लिए दिया और जब उंन्होंने उस्ताद को गाते हुए सुना तो वे बहुत ज़्यादा प्रभावित हुए। उन्हीं दिनों लाहौर में कांग्रेस एक बहुत बड़ी सभा करने जा रही थी। उन नेता ने उस्ताद दामन को उस सभा में अपना कलाम सुनाने के लिए निमन्त्रण दिया। उस बड़े जलसे में इन की कविता को बहुत पसन्द किया गया और उन का बड़ा नाम हुआ। उसी जलसे में जवाहरलाल नेहरू भी मौजूद थे। उन्होंने उस्ताद को आज़ादी के शायर का खि़ताब दिया और ईनाम से भी सुशोभित किया। इस घटना के बाद इन की प्रसिद्धि उत्तर भारत में फैलनी शुरू हुई।

अधिकतर कविताएँ उस्ताद दामन पंजाबी ज़ुबान में ही कहते थे। लेकिन उन के कलाम में उर्दू की शायरी भी ख़ूब मिलती है। उन की असली प्रसिद्धि मुशायरों और जलसों में अपना कलाम सुनाने के कारण जन-जन तक पहुँची। ये उनके चाहने वाले श्रोता ही थे जिन्होंने उनके गुजऱ जाने के बाद उन की कविताओं को संकलित किया। उनकी पहली किताब ‘दामन दे मोती’ शाहमुखी में ही प्रकाशित हुई। लेकिन यह सब उन के देहान्त के बाद हुआ। पाकिस्तान सरकार की सोची-समझी नीति प्रान्तीय भाषाओं और क्षेत्रीय संस्कृतियों की मुख़ालफ़त कर के उनके आगे बढऩे में रुकावट पैदा करने की रही थी। पंजाबी और पंजाबियत भी इसी उपेक्षा का शिकार हुए लेकिन उस वक्त का पंजाबी साहित्य बहुत समृद्ध था और अधिकतर शाहमुखी में प्रकाशित हो कर जन-जन तक पहुँचता था। पंजाबी साहित्य के महान लेखकों में बाबा फऱीद, बुल्ले शाह, वारिस शाह और समान्तर कवि शाहमुखी में छपते थे। अख़बार और रिसालों में भी कविता ख़ूब छपती थी। ये सब शाहमुखी में ही छापा और पढ़ा जाता था।

यहाँ ‘शाहमुखी’ और ‘गुरुमुखी’ लिपियों का अन्तर जानना ज़रूरी होगा। अगर पंजाबी ज़ुबान को फ़ारसी-अरबी के अक्षरों में लिपिबद्ध किया जाए तो उसे ‘शाहमुखी’ कहेंगे और अगर उसी ज़ुबान को ‘गुरुमुखी’ लिपि में लिखा और छापा जाए तो उसे गुरुमुखी कहा जाता है। पाकिस्तान में पंजाबी साहित्य अब भी शाहमुखी में छापा और पढ़ा जाता है जब कि भारत वाले पंजाब में यह सब गुरुमुखी लिपि में होता है। शाहमुखी दरबार और कचहरी की परम्परागत लिपि रही है जब कि सिख धर्म के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ गुरुमुखी का प्रचलन बढऩे लगा और धार्मिक रचनाएँ उस में छपने लगीं। यहाँ यह भी जान लेना ज़रूरी है कि शाहमुखी ‘मुसलमान’ हो गई और गुरुमुखी’सिख’ क्योंकि सरकारी नीतियों ने ऐसा ही किया।

उस्ताद दामन के कलाम का शाहमुखी में छपना और उस की लोकप्रियता एक सीमा में ही बंधे रहना उस्ताद की सीमित प्रसिद्धि के लिए बड़े तौर पर जि़म्मेदार था। आज़ादी के कुछ समय बाद उस्ताद का कलाम पंजाब (भारत) में भी गुरुमुखी में छपने लगा और सराहा गया। इन सभी कोशिशों के पीछे पंजाबी प्रवासी भारतीयों और विश्वविद्यालयों का विशेष योगदान रहा है।

1911 में ही फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का जन्म काला कादर, जि़ला सियालकोट में हुआ। यह वही साल था जिस में दामन पैदा हुए। फ़ैज़ उर्दू में कहते थे और दामन पंजाबी में। दोनों अपने-अपने क्षेत्र में एक ऊँचा स्थान रखते हैं। दोनों बहुत अच्छे मित्र रहे और इन दोनों में लम्बी मुलाकातें भी होती रहती थीं। फ़ैज़ साहब दामन को अपना उस्ताद या मेन्टर मानते थे। जैसे दोनों जीए संग-संग, तो मरने में भी फ़ैज़ दामन से केवल 13 दिन पहले गुजऱे और उनकी इच्छा के अनुसार उनका जनाज़ा दामन के घर से हो कर ही कब्रिस्तान ले जाया गया। उस्ताद दामन उन दिनों काफ़ी बीमार थे और हस्पताल में दाखि़ल थे। वहीं से वे रिक्शा लेकर कब्रिस्तान जा पहुँचे। मित्रों ने जब उन्हें देखा तो कहा कि ऐसी हालत में आप को नमाज़-ए-जनाज़ा में नहीं आना चाहिए था। उस्ताद ने कहा कि मन नहीं माना और चला आया। और 13 दिन बाद उस्ताद दामन भी इस जहान-ए-फ़ानी से कूच कर गए।

फ़ैज़ साहब से जब किसी ने पूछा कि उन्होंने पंजाबी में कविता क्यों नहीं की,तो उन का जवाब था-पंजाबी में सुलतान बाहू,बाबा बुल्ले शाह, फऱीद और वारिस शाह जैसे कद्दावर कवि हुए हैं और वर्तमान युग में तो उस्ताद दामन ही उनके कद के कवि बैठते हैं। ऐसे में मेरा उर्दू की ओर जाना ही मुनासिब था।

अपनी शायरी में दामन ने पंजाब के सभी रंगों को बख़ूबी उजागर किया है। उन की कविता में व्यंग्य और कटाक्ष ख़ूब नजऱ आता है। वे हमेशा सच्चाई का पक्ष लेते, और पूरे ज़ोर से लेते। झूठ, फऱेब और बेईमानी की खुलकर मुख़ालफ़त करते। दामन हमेशा गऱीबों, किसानों, मज़दूरों और दबे-कुचले वर्गों के हक़ में आवाज़ बुलन्द करते रहे। वे पंजाबी को उसका सही स्थान दिलाने के लिए उम्र भर संघर्षरत रहे। नेताओं द्वारा साजि़श कर पंजाबी को देश-निकाला दे कर उसकी जगह उर्दू को सरकारी भाषा बनाने वाले सरपरस्तों को जम कर कोसते और उन का विरोध करते रहे। वे कहते हैं कि वे उर्दू ज़ुबान के खि़लाफ़ नहीं हैं लेकिन पंजाबी को उस की माँ-बोली के हक़ से वंचित करना बिल्कुल अनुचित है। उनकी सोच दोनों पंजाबों में एक पुल का काम करती रही।

फ़ैज़ साहब और दामन, दोनों का कलाम आवाम के हक़ की बात करता है। दोनों की सोच साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित थी और दोनों सदा ही मुल्क की आज़ादी की बात करते थे। देश के विभाजन के विरुद्ध दोनों खुल कर बोलते थे। दोनों मित्र प्रगतिशील लेखक आन्दोलन से जीवन भर जुड़े रहे लेकिन कुछ मुद्दों पर दोनों अलग-अलग भी खड़े नजऱ आते हैं। जहाँ फ़ैज़ ने उर्दू साहित्य में नाम कमाया और अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर अपना स्थान बनाया, कई-कई भाषाओं में उन का अनुवाद हुआ, वहीं दामन पंजाबी में कविता कहते और पंजाबी बोलने वालों में उन का एक अलग और ऊँचा स्थान रहा। जहाँ फ़ैज़ साहब की किताबें उन के जीवन में ही प्रकाशित होनी शुरू हुईं, वहीं उस्ताद की पहली किताब उन की मौत के बाद शाहमुखी में प्रकाशित हुई। फ़ैज़ साहब ने काफ़ी समय तक उत्तर भारत के एक अग्रणी अंग्रेज़ी अख़बार का सम्पादन किया और इस से पहले वे फ़ौज में ऊँचे पद पर भी रहे, वहीं दामन अपनी जि़न्दगी मुफ़लिसी में काटते रहे। फ़ैज़ साहब अपनी आलोचना में सौम्य, शालीन और नर्म भाषा का प्रयोग करते – वहीं दामन साफ़, स्पष्ट और चुटीली भाषा में खुली आलोचना करते थे। इसी कारण सरकार से उन की कभी नहीं पटी। सज़ा का ख़ौफ़ भी उन को साफग़ोई से कभी न रोक पाया। भुट्टो ने जब शिमला समझौते पर हस्ताक्षर किए तो उस्ताद कह उठे –

कदी शिमले जाना एँ
कदी मरी* जाना एँ
लाही खेस जाना एँ
खिच्ची दरी जाना एँ
ऐ की करी जाना एँ?
ऐ की करी जाना एँ?
धसा धस जाना एँ
धुसा धुस जाना एँ
जित्थे जाना एँ तूँ
बन के जलूस जाना एँ
ऐ की करी जाना एँ?
ऐ की करी जाना एँ?
कदी चीन जाना एँ
कदी रूस जाना एँ
बन के तूँ अमरीकी
जसूस जाना एँ
ऐ की करी जाना एँ?
ऐ की करी जाना एँ?
लाही कोट जाना एँ
टंगी बाह्वाँ जाना एँ
उडाई कौम दा तूँ
फलूस जाना एँ
ऐ की करी जाना एँ?
ऐ की करी जाना एँ?

(*मरी – एक हिल स्टेशन का नाम)

इस कविता के बाद ज़ुल्फि़कार अली भुट्टो उस्ताद से कितना राज़ी हुए होंगे, इस का अन्दाज़ा बख़ूबी लगाया जा सकता है। इस कविता के बाद उस्ताद पर बम बरामदगी का केस बना –

स्टेजाँ ते आइये, सिकन्दर होईदा ए
स्टेजों उतर के, कलन्दर होईदा ए
उलझे जे दामन! हकूमत किसे नाल
बस ऐना ई हुन्दा, अन्दर होईदा ए
सानूँ कोई शिकस्त नहीं दे सकदा
भावें कोई किड्डा दम-ख़म निकले
उस्ताद दामन दे घर देख्या जे
दो रिवाल्वर ते दो दस्ती बम निकले

भुट्टो के बाद जिय़ा-उल-हक़ द्वारा मार्शल लॉ लगा दिया गया। जिय़ा-उल-हक़  और फ़ौजी हुकूमत के बारे में उस्ताद दामन ने क्या ख़ूब कहा है

मेरे मुल्क दे दो ख़ुदा
ला इला ते मार्शल लॉ
इक रहन्दा ए अर्शाँ उत्ते
दूजा रहन्दा फ़र्शाँ उत्ते
ओदा नाँ ए अल्ला मीयाँ
एदा नाँ ए जनरल जिय़ा
वाह बई वाह जनरल जिय़ा
कौन कहन्दा तैनूँ एत्थों जा।
साडे देश दियाँ मौजाँ ई मौजाँ
चारों पासे फ़ौजाँ ई फ़ौजाँ
लक्खाँ बन्दे कैदी हो के
अद्धा देंदे मुल्क गवा
वाह बई वाह जनरल जिय़ा
कौन कहे तैनूँ एत्थों जा।

जब देश का विभाजन हुआ तो पाकिस्तान के दो भाग थे – एक पश्चिमी पाकिस्तान और दूसरा पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश)। तब उस्ताद सहज ही कह उठे

पाकिस्तान दी अजब ऐ वण्ड होई
थोड़ा एस पासे थोड़ा उस पासे
इन्हाँ जराहाँ नी की ए इलाज करना?
मरहम एस पासे फोड़ा उस पासे
असाँ मन्जि़ल मक़सूद ते पौंचना की
टाँगा एस पासे घोड़ा उस पासे
एत्थे ग़ैरत दा की निशान दिस्से?
जोड़ा एस पासे जोड़ा उस पासे

विभाजन को आम आदमी धर्म से जोड़ कर देखता है लेकिन उस्ताद की अन्तर्दृष्टि कुछ और ही कहती है

वाघे नाल अटारी दी नहीं टक्कर
ना गीता नाल क़ुरान दी ए
नईं कुफऱ इस्लाम दा कोई झगड़ा
सारी गल्ल इह नफ़े नुक़सान दी ए

रोटी रोजग़ार के लिए लोग क्या क्या खेल रचाते हैं और असलीयत सामने न आए, उस के लिए कैसे कैसे उपाय करते हैं, यह बात उस्ताद की नजऱों में बिल्कुल साफ़ है और वे इसे यूँ कहते हैं –

पेट वास्ते बांदराँ पाई टोपी
हथ जोड़ सलाम गुज़ारदे ने
पेट वास्ते हूर ते परीज़ादाँ
जान जिन्न ते भूत तों वारदे ने
चीर-फाड़ के बन्दे नूँ खाण जेहड़े
रिच्छ नचदे व्हिच बज़ार दे ने
पंछी जंगलों तुरे ने शहर वल्ले
दुनियादार पए चोग खिलाँवदे ने
दौलत किसे दी, रात नूँ जाग के ते
चौकीदार पए हाकराँ मारदे ने
भार इट्टाँ दा सिराँ ते चा के ते
बेघरे पए महल उसारदे ने

उस्ताद दामन की राजनैतिक सोच उस समय की कांग्रेस की सोच के बहुत निकट लगती है। यूनियनिस्ट और मुस्लिम लीग के लोग उन की बहुत मुख़ालफ़त करते थे क्योंकि उस्ताद दामन विभाजन के खि़लाफ़ अपनी आवाज़ रखते थे। उस्ताद की नजऱों में महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, ख़ान अब्दुल गफ़्फ़़ार ख़ान हीरो के रूप में विराजमान थे। यह सोच उन की कविता ‘महात्मा गांधी दे फ़ल्सफ़े दे चर्चे’ में बख़ूबी देखी जा सकती है

महात्मा जी दे फ़ल्सफ़े दे चर्चे
इंज ने व्हिच जहान हो गए
तोपाँ उत्ते ढिंढोरची शांति दे
कदे मंत्री कदे परधान हो गए
खोह-खुंज के मुल्की रियासताँ नूँ
आप्पे एशिया दे निगेहबान हो गए
ऐसे ज़ोम अन्दर मेरे देस आए
ऐत्थे आउन्द्याँ ई परेशान हो गए
आ गई जाग ऐधर किते सुत्याँ नूँ,
उठे, उठ के ते सावधान हो गए
बुढे बुढे नूँ नशे जवानियाँ दे,
अते बच्चे वी शेर जवान हो गए
सिन्धी नाल पंजाबी ते बलोच सारे,
बंगालियाँ नाल पठान हो गए
मेरे देस दी पाक सरहद उत्ते,
वेखो ! वैरियाँ दे कब्रिस्तान हो गए
कब्रिस्तान ताँ होन्दे ने मोमनाँ दे,
बोलो राम दे एत्थे शमशान हो गए
ऐदों वद्धके मोजज़ा की होर होणा?
दामन जए दिलों मुसलमान हो गए

उस्ताद मानते थे कि धार्मिक संकीर्णता में कुछ नहीं मिलना है। यह बात इस कविता से साफ़ हो जाएगी –

मस्जिद मोतियाँ भावें जड़ी होवे,
नहीं हिन्दू ते इक वी जांदा
मन्दिर व्हिच पवे झलक काब्याँ दी,
मुसलमान दा इक नहीं जी जान्दा
इह्नाँ दोह्वाँ तों जिह्ड़े पए रहन लड़दे,
भला उह्नाँ दा, एह्दे च की जान्दा?
चंगा सी मैख़ाने बना देन्दे
जिह्दा जी करदा, ओही पी जान्दा

उस समय लाहौर फि़ल्में बनाने का एक बड़ा केन्द्र था। यहाँ पंजाबी फि़ल्में बड़ी संख्या में बनती थीं और उत्तरी भारत में ख़ूब देखी जाती थीं। उस्ताद ने कुछ फि़ल्मों के लिए गाने लिखे। उन में ख़ास कामयाब होने वाली फि़ल्म ‘चन्न वे’ थी, और उन का लिखा एक गाना ‘बच जा मुण्ड्या मोड़ तों, मैं सद्के तेरी टोर तों’ बहुत लोकप्रिय हुआ। पंजाब और दिल्ली में यह गाना बच्चे-बच्चे की ज़ुबान पर था। रेडियो और अन्य पार्टियों में इसे ख़ूब बजाया जाता था। इसी फि़ल्म का एक और गाना बहुत अर्थपूर्ण है। ‘ए दुनिया मण्डी पैसे दी/ हर चीज़ विकेन्दी भा सजणाँ एत्थे रोन्दे चेहरे विकदे नहीं, हसणे दी आदत पा सजणाँ’। उस्ताद के लिखे फि़ल्मी गीत अर्थपूर्ण होते थे और उनमें संगीत और सन्देश दोनों मिलते थे।

जीवन भर उस्ताद दामन तानाशाही, सैनिक शासन, भ्रष्टाचार और झूठे दिखावे के घोर विरोधी रहे। वे आज़ादी के लिए और विभाजन के खि़लाफ़ लड़ते रहे। उन का विश्वास था कि आज़ादी पाने के लिए हिन्दू-सिख-मुस्लिम एकता ज़रूरी है और धर्म के ठेकेदारों पर वे बहुत गहरा कटाक्ष करते हैं। वे मानते थे कि हिन्दूस्तानियों को धर्म के नाम पर विभाजित करना आज़ादी की लड़ाई को कमज़ोर करता है। सच तो यह है कि उस्ताद दामन जैसे कवि को आने वाली नस्लें उस पद पर नहीं नवाज़ पाईं जिस के वे हक़दार थे और यह भी सच है कि अब हमारी याद में से वे निकलते जा रहे हैं। इस के लिए पंजाब के टुकड़े होना, पंजाबी भाषा का शाहमुखी  और गुरुमुखी, अलग-अलग लिपियों में प्रकाशित होना ही जि़म्मेदार हो सकता है। लेकिन ये बात स्पष्ट है कि उस्ताद दामन एक पैनी नजऱ वाले सच्चे इन्सान और श्रेष्ठ कवि थे। भाषा को जानने वाले, तथा खरी और खोटी बात में फ़र्क को समझने वाले लोग आने वाले समय में दामन को एक ऊँचा स्थान देंगे।

इस लेख में प्रस्तुत तथ्य अन्य स्रोतों के अलावा निम्नलिखित पर भी आधारित हैं

Blog:Junglee Pudina Article : The Poets we Remember, The Poets we Forget’ (http://www.junglipudina.com/2011/12/poets-we-remember-poets-we-forget.html)
Article – Poetry of Ustad Daman by Fowpe Sharma
http://www.revolutionarydemocracy.org/rdv11n2/daman.htm
Article -Ustad Daman: The People’s Poet by Dr. Afzal Mirza
http://drafzalmirza.blogspot.in/2006/05/ustad-daman-peoples-poet.html

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (मार्च-अप्रैल 2017, अंक-10), पेज – 43-45

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