वो रात को लाहौर चले गए – नरेश कुमार

भरतो इस साल चौरासी पार कर जाएगी। 15 वर्ष की उम्र में शादी हो गई थी। साढ़े  सोलह की उम्र में पहली बेटी को जन्म दिया। अपने हल्के-फुल्के शरीर को लिए भरतो आस-पड़ोस की हमउम्र साथिनों का हाल-चाल पूछती रहती। अपनी चार साथिनों से भरतो उम्र में सबसे बड़ी दिखती है। उसकी याददाश्त पर उम्र की जरा भी आंच दिखाई नहीं पड़ती। भरतो के साथ उसकी उम्रदराज तीन साथिनें प्रतिदिन एकांत में बैठकर अपने जीवन के तजुर्बों को बांटती हुई दिखाई पड़ती। कार्तिक वाली बीमारी से हुई मौतों व पुराने वक्तों में पड़े अकालों के पीड़ादायक अनुभवों पर भरतो व उसकी साथिनें घंटों बातचीत करती रहती। घर परिवारों में बुजुर्गों की उपेक्षा पर भी उनके बीच अक्सर चर्चा होती।

‘हाय रे मेरा बेटा! हाय रे ये प्यार ! भगवान तेरी कमाई सफल बनाए। तेरी तपस्या पूरी करे।’ जब भी मैं उन चारों को नमस्ते करते हुए गुजरता तो इसी आशीर्वाद के साथ सब एक ही स्वर में बोलती। ‘तेरी बेटी कैसी है ? कई दिन हो गए उसे देखे हुए बेटा।’ भरतो ने आत्मीयता से पूछा।

‘क्या इसके पास बेटा नहीं है?’ भरतो की ओर देखते हुए साथ बैठी दूसरी महिला ने पूछा। ‘इसके पास एक ही बेटी है।’ भरतो ने कहा। ‘हो जायेगा, कोई बात नहीं बेटा। यह तो भगवान की माया है। जरूर होगा। जो दूसरों के काम आता है उसका जीवन जरूर सफल होता है। कण-कण में वह बसा हुआ है। वह सब कुछ देखता है।’ चारों ने एक आवाज में मुझे जल्दी पुत्र पैदा होने की तसल्ली दिलाते हुए कहा। ‘बेटी भी बेटे जैसी होती है ताई।’ नहीं बेटा, तुम्हारे विचार तो अच्छे हैं पर यह समाज कहां मानता है। धीरे-धीरे मान जाएगा ताई जी।

‘आजादी के समय तो आप कई साल की रही होंगी, ताई भरतो।’ मैंने उनकी बात काटते हुए कहा। हां बेटा। हिन्दू मुसलमान की मारकाट की साल मेरी बड़ी बेटी 7 साल की थी। उन वक्तों में शादी व बच्चे जल्दी हो जाते थे। मारकाट में बड़ा जुल्म हुआ था, बेटा। पूरे गांव में मुनादी करवा दी जाती थी कि मुसलमान चढ़ाई करने वाले हैं। पूरा गांव ‘आंख की फौर’ (तुरन्त) में एक जगह इकट्ठाहो जाता था। मैं भी अपनी दो साल की रोशनी को छाती से लगाकर बच्चों के साथ तेरे ताऊ के पीछे चल पड़ती। अपनी टूमों (जेवरात) की पोटली उठाकर घर में पड़े तूड़े में दबा देती और तेरे ताऊ को कहती कि देख, मुझे कुछ हो जाए, तो यह पोटली यहां दबाई हुई है, निकाल लेना। ‘जल्दी-जल्दी निकलो, पहले अपनी जान बचाओ, टूम जाए भाड़ में।’ तेरे ताऊ गुस्से में कहते। एक दिन तो बेटा हद हो गई, जब गांव के बाहर मिट्टी बर्तन पकाने के पंजावे से तेज हवा के कारण आग की लपटें उठ रही थीं और किसी ने अफवाह फैला दी कि मुसलमानों ने गांव को आग लगा दी है। एकदम पूरा गांव खाली हो गया। बाद में पता चला कि यह शरारती तत्वों द्वारा फैलाई गई अफवाह थी।

बेटा, हमने बहुत ही दिल दहला देने वाली मारकाट की लड़ाई देखी है। मुझे पूरा याद है कि मारकाट (साम्प्रदायिक दंगों) की साल (1947-48) में हिंदू-मुसलिम के कत्लेआम में अफवाहों ने बहुत काम किया था। ये अफवाहें पीढिय़ों से साथ रहे मुसलिम परिवारों के प्रति नफरत के बीज पैदा कर रही थी।

हमारे गांव में भी लगभग 40 मुसलिम तेली व लुहारों के घर थे। उनमें कई तो ऊंचे दर्जे के कारीगर थे। उनकी मकान बनाने की शैली और चित्रकारी पूरे इलाके में मशहूर थी। लुहार का काम करने वाले परिवारों को खेती के औजार बनाने, उनको पैना करने में महारत हासिल थी। असरफ  के दो भाई अफजल और जमीर तो पत्थर पर बेजोड़ चित्रकारी उकेरते थे। हमारे घर के बाहर के पक्के हिस्से में असरफ के इन दोनों भाइयों ने ही चूने की लिपाई पर ‘कबीर’ और ‘मीरा’ की मुंह बोलती तस्वीरें बनाई थी। हमारे पड़ोस में अशरफ का घर था। बहुत ही अच्छा स्वभाव था उसका, हमारा खुशी-गमी में एक-दूसरे के घर खूब आना-जाना था। भरतो उन दिनों की यादों में खोकर बोलती जा रही थी।

मैं पढ़ी-लिखी न होने के कारण तेरे ताऊ से सुनती थी कि ‘देश का बंटवारा होने का फैसला हुआ है, रेडियो पर आकाशवाणी हुई है।’ तो क्या अब असरफ और उसका परिवार अपना घर बार छोड़कर चले जाएंगे। भाड़ में जाए रेडियो ! पीढिय़ों से चला आ रहा हमारा साथ क्या रेडियो के कहने से ही टूट जाएगा? शायरा की बेटी रूखसाना का तो अभी कुछ दिन पहले पास के ही गांव में निकाह हुआ है। असरफ  के बेटे असफाक और रजिया का स्कूल भी तो गांव में ही है। पिछले महीने ही असरफ  और उसके परिवार ने जी-तोड़ मेहनत करके नया घर बनाया है। यह नामुमकिन है। कासिम लुहार के बिना जमींदारों की कुश कौन सुधारेगा। शायरा की बहन भी तो यहां से चार मील दूर के गांव में रहती है और उनके सभी रिश्तेदार भी तो आसपास ही हैं। मैं नहीं मान सकती। भरतो ने बंटवारे की खबर का पुरजोर खंडन करते हुए कहा।

‘तुम भले ही मत मानो, मीना की मां अभी-अभी असरफ ने मुझे एक ओर बुलाकर धीरे से कहा है कि आज रात को वे सब परिवार के साथ गांव छोड़कर रोहतक पहुंच जाएंगे जहां पर अदला-बदली होने वाले परिवारों के लिए पुलिस ने टैंट लगा रखे हैं। इन टैंटों से ही आस-पास के इलाके के परिवार इकट्ठे होकर रेलगाड़ी से लाहौर जाएंगे। सरजू ने दुखी होते हुए कहा।

यहां से भी रांगडों (मुस्लिम परिवारों) का सफाया करना होगा, ये सब मिले हुए हैं, ये पक्के कट्टर हैं। धीरे-धीरे इस प्रकार की चर्चाएं अब गांव में जोर पकडऩे लगी। इस मुहिम की गांव के कुछ चोर उचक्के किस्म के व्यक्ति अगुवाई कर रहे थे। बेटा, हमारे घर के बगल में रहने वाले जिले सिंह व प्यारा डकैती के अपराध में कुछ दिन पहले ही अंग्रेजों की जेल से छूट कर आये थे। ये दोनों रात के 10 बजे हमारे घर के साथ लगती दीवार के पास बैठकर अशरफ के परिवार पर हमला कर उसकी बेगम के गहने लूटने की योजना बना रहे थे।

बेटा, जिले सिंह व प्यारा की अशरफ  का घर लूटने की योजना ने मेरी बेचैनी बढ़ा दी। मुझसे रहा नहीं गया और तेरे ताऊ को यह पूरी बात सुनाई। यह सुनते ही तेरा ताऊ असरफ  के घर की ओर चल पड़ा। रात के 11 बजने वाले थे। मैं भी तेरे ताऊ के पीछे-पीछे असरफ  के घर की तरफ चल दी। हम दोनों असरफ  के घर पहुंचे तो देखा कि दरवाजा अन्दर से बंद था। मैंने धीरे से दरवाजा खटखटाया लेकिन अंदर से कोई जवाब नहीं मिला। घर के भीतर से आ रही धीमी-धीमी आवाज भी एकदम बंद हो गई। असरफ  भाई, हम हैं, मीना की मां और तेरा भाई। दरवाजा खोलो जरूरी काम आए हैं। असरफ  ने दोनों की आवाज पहचानते हुए धीरे से दरवाजे का एक पल्ला खोलकर हम दोनों को अंदर करके तुरन्त दरवाजा बंद कर लिया। ‘खुदा की खैर है सरजू भाई तुम थे, हमारी तो सांसें बंद हो गई थी। ऐसे में अपने भी दंगाई लगने लग जाते हैं।’ अशरफ  ने डरे-सहमे भावों से कहा।

‘आओ भरतो बहन’ हर रोज की तरह आत्मीयता से आने वाली शायरा की आवाज न सुनकर मुझे अटपटा लग रहा था। शायरा, रूखसाना, रजिया, असफाक कहां हैं? असरफ भाई। यह पूछते हुए मैं अंदर के कमरे की तरफ बढ़ी। जो कुछ अंदर चल रहा था, उसे देखकर मैं अवाक रह गई।

शायरा अपनी बेटियों के साथ घर का जरूरी सामान गठरियों में बांधने लगी थी। शायरा की छोटी बेटी रजिया समझ नहीं पा रही थी कि आखिर हम यह सामान क्यों बांध रहे हैं। वह बार-बार पूछ रही थी कि अम्मा हम अपना घर छोड़कर कहां जा रहे हैं।’ शायरा उसे कोई जवाब नहीं देकर मुंह पर अंगुली रख कर चुप रहने का इशारा कर रही थी। अपने स्कूल बैग की ओर देखते हुए रजिया ने फिर से दुखी होकर पूछा, ‘अम्मा हम कितने दिन के लिए जा रहे हैं। क्या हम फिर कभी अपने घर वापिस नहीं आयेंगे।’ कुछ पता नहीं बेटी। शायरा ने भारी मन से कहा।

अम्मा मेरी कविताओं वाली किताब जरूर बांध लो। रजिया को कविताओं वाली किताब सबसे ज्यादा पसंद थी। अपनी इस किताब को रजिया अपनी मां के टूमों वाले डिब्बे में रखने की जिद्द कर रही थी। ‘जिद्द मत करो रजिया, बहुत जरूरी सामान ही ले जा पायेंगे।’ आंसू टपकाते हुए शायरा मुश्किल से बोल पा रही थी।

असरफ के घर का पूरा दृश्य देखकर मुझे तेरे ताऊ की ‘रेडियो वाली बात सच लगने लगी’, बेटा। जैसे ही शायरा की मुझ पर नजर पड़ी वह मेरे गले से लिपट कर फफकपड़ी। अपने को कुछ देर में संभालते हुए बोली, ‘भरतो बहन ! हम तो आज रात को चले जाएंगे। पता नहीं, फिर कभी मिलना हो न हो। मेरे लोहे वाले भारी संदूक को हमारे जाते ही अपने घर उठा ले जाना। बहुत मजबूत है, मुझे निकाह में मिला था। अच्छा सुन इस संदूक में कुछ कपड़े हैं इनमें आपकी बेटी मीना के लिए बनाई गई चूड़ीदार पायजामी और सितारों वाला कुर्ता भी है। मीना के जन्मदिन के लिए बनाया था। अपने असफाक और मीना का साथ-साथ खेलना, झगडऩा और शरारतें करना कैसे भूल पाऊंगी, भरतो बहन।

आंगन में रखी फूलों वाली चारों चारपाईयां रात को ही उठा ले जाना भरतो, पता नहीं सुबह किसके हाथ लगे। ये पच्चीस रुपये लो भरतो, देबी दुकानदार का उधार चुका देना। वह आड़े वक्त में हमारे बहुत काम आता था। मेरे सुख-दुख में काम आने वाली रामरती को कहना कि वह मुझे माफ कर दे, मैं लाख चाहने के बाद भी गांव छोडऩे से पहले उससे नहीं मिल पाई। भरतो! मेरा एक काम और कर देना, ये एक जोड़ी पाजेब रामरती की बेटी को दे देना। दस दिन बाद उसकी शादी है। हमारे घर का ध्यान रखना भरतो बहन, चाबी अपने पास रख लेना। इसमें ‘हमारी पीढिय़ों की यादें बसी हैं।’ हो सकता है कि सरकार मान जाए कि कोई कहीं नहीं जाएगा और हम वापिस अपने घर आ जाएं।

‘सरजू भाई, अब हमारा यहां रहना खतरे से खाली नहीं है। कत्ले आम और बलात्कार की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। जल्दी-जल्दी अपना जरूरी सामान बांधो। खुदा करे, हमारी आज की रात खैरियत से निकल जाए’ अशरफ ने अपने परिवार की जान बचाने के हर संभव विकल्पों पर गौर करते हुए डरे-सहमे भावों से कहा।

‘रात के दो बजते ही असरफ ने बैलगाड़ी अपने घर के सामने खड़ी कर दी। ‘जल्दी से जरूरी सामान बैलगाड़ी में रखो।’ असरफ, उसकी पत्नी शायरा, बेटी रुखसाना ने जल्दी-जल्दी दबे पांव घर के बहुत जरूरी सामान की गठरियों को बैलगाड़ी में रखा। ‘जल्दी से रजिया और असफाक को भी गाड़ी में बैठा दो। बाकी परिवारों की भी बैलगाडिय़ां चल पड़ी हैं।’ असरफ ने हड़बड़ाहट में कहा।

असरफ  का पूरा परिवार दबे पांव सहमा हुआ बैलगाड़ी में बैठ गया। रजिया ने एक बार फिर अपने स्कूल बैग से अपनी कविताओं वाली किताब लेकर आने की जिद्द की। असरफ  ने रजिया की बात को अनसुना करते हुए बैलगाड़ी हांक दी। असरफ का परिवार आंखों में आंसू लिए दूर तक सरजू, भरतो और मीना की तरफ  टकटकी लगाकर देखता रहा और बैलगाड़ी धीरे-धीरे नजरों से ओझल हो गई।

मैं और तेरा ताऊ बाकी बची हुई रात सो नहीं पाए। हमें रह-रह कर असरफ के परिवार के साथ किसी अनहोनी की चिंता सताए जा रही थी। दिन निकलने तक वे असरफ के परिवार की सही सलामत टैंट तक पहुंचने की दुआ करते रहे। मेरी बेटी मीना भी रात भर जागती रही। मीना के दिमाग में अपनी सबसे नजदीकी सहेली रजिया के साथ छुपम-छुपाई खेलना, पाठशाला जाना और इसी साल पीर बाबा के मेले में दोनों के बिछुड़ जाने की यादें बार-बार घूम रही थी।

‘मीना की मां दिन निकल आया है। गांव छोडऩे से पहले असरफ कह रहा था कि हम रोहतक पहुंचकर, फौज के पहरे में बने टैंटों में दो-तीन दिन तक रहेंगे और वहां से कई परिवार इकट्ठे होकर रेलगाड़ी से लाहौर जाएंगे।’ तेरे ताऊ ने बेचैन होते हुए कहा। मैं रोहतक जाकर ब्यौरा लेकर आता हूं कि असरफ का परिवार सही सलामत पहुंचा या नहीं। वे जाते समय अपने साथ थोड़ा सा आटा ही ले गये हैं। असफाक (छोटू) को सुबह पिलाने के लिए दूध भी छींके में ही लटक रहा है। सरजू बिना देर किए रोहतक की तरफ  चल पड़ा। आठ कोस का पैदल फासला तय करने में लगे दो घंटे का सरजू को पता नहीं चला। उसके पैरों की गति में असरफ  के परिवार के साथ पीढिय़ों के भाईचारे की गहराई देखी जा सकती थी। सरजू रोहतक में पहुंच कर पूछताछ करते-करते लाहौर जाने वाले परिवारों के टैंट के सामने पहुंच गया।

जैसे ही सरजू ने टैंट में घुसने की कोशिश की, बाहर ड्यूटी पर खड़े पुलिस वाले ने उसे रोक लिया। कहां जा रहे हो? कौन हो? क्या काम है? ‘अन्दर नहीं जा सकते’ जैसे सवालों की बौछार कर दी। सहमते हुए सरजू वहीं रुक गया। साहब! हमारे जानकार असरफ के परिवार की सलामती का पता करने आया हूं। वे रात को ही अपना गांव छोड़कर आए हैं।

आया दोस्ती निभाने वाला ! फूट जा यहां से, चल। सरजू हवलदार के सामने गिड़गिड़ा ही रहा था कि असरफ की बड़ी बेटी रूखसाना पानी लाने का डिब्बा हाथ में लिए टैंट से बाहर निकली। उसकी नजर सरजू चाचा पर पड़ी। पानी का डिब्बा एक ओर फैंकते हुए हवलदार से बेपरवाह रुखसाना भाग कर सरजू चाचा से लिपट गई। रूखसाना के आंसू थम नहीं रहे थे। चाचा रात को हम यहां पर बहुत परेशान हुए हैं। मैं और रजिया तो सुबह से ही अपने गांव जाने के लिए रो रहे हैं। अब्बा, हमें कोई जवाब नहीं दे रहे हैं। अम्मा भी हमारे साथ रोने लग जाती है। रूखसाना को आवाज देते हुए असरफ टैंट से निकला तो सरजू को देखकर अपने आप को रोक नहीं पाया। सरजू को देखकर असरफ  फफक पड़ा। रजिया भी सरजू चाचा को देखकर खुशी से उछल पड़ी। ‘चाचा आ गए मैं घर जाऊंगी। आज मैं पाठशाला भी नहीं जा पाई, चाचा। मीना के साथ खेलूंगी। सरजू चाचा मेरा यहाँ बिल्कुल रहने को मन नहीं करता। रजिया बोलती जा रही थी। टैंट से बाहर निकलने पर शायरा की भी नजर सरजू भाई पर पड़ी। असफाक को गोदी में उठाकर सरजू की ओर दौड़ पड़ी। असरफ  की पत्नी शायरा के मुंह से शब्द भी नहीं निकल पा रहे थे। अपने आंसू पोछते हुए बोली। सरजू भाई। ‘ये कैसी सियासत है? हंसते-खेलते परिवारों को उजाड़कर कौन सा धर्म बड़ा बन जाएगा।’

‘जल्दी-जल्दी टैंट में चलो’, हवलदार ने असरफ व उसके परिवार को डांटते हुए कहा। रूखसाना और रजिया वापिस टैंट में न जाकर सरजू चाचा के साथ गांव जाने की जिद्द कर रहे थे। रजिया तो मीना के साथ खेलने के लिए सरजू का कुर्ता कस कर पकड़े हुई थी, ‘चाचा! घर ले चलो। घर जाऊंगी।’ हवलदार के दोबारा डांटने पर असरफ  ने रुखसाना को टैंट की ओर धकेलने लगा। शायरा अपनी दूसरी गोद में रजिया को उठा कर रुके कदमों से टैंट की ओर बढऩे लगी। रजिया सरजू चाचा के साथ घर जाने के लिए शायरा की गोद से उतरने के लिए तेजी से हाथ-पांव चलाते हुए छटपटा रही थी।

‘सुनो असरफ  भाई, मीना की मां ने ये थोड़ा सा आटा और असफाक के लिए दूध भेजा है। तुम यहां कितने दिन और रूकोगे। तुम्हें किसी चीज की जरूरत हो तो बताओ, मैं गांव से ले आऊंगा।’ सरजू ने रूंधे गले से कहा। हो सके तो रोटी बनाने के लिए कुछ लकड़ी पहुंचा देना सरजू भाई। पता नहीं दो-तीन दिन यहां रूकना पड़े। ऊपर से हुक्म आने पर ही हम यहां से लाहौर के लिए चलेंगे। सरजू उल्टे पांव यह कह कर गांव की ओर चल पड़ा कि कल सुबह लकड़ी लेकर आऊंगा। पूरे रास्ते सरजू असरफ  के परिवार के लिए लकड़ी काटकर सुबह पहुंचाने की उधेड़बुन में लगा रहा और शाम ढले गांव पहुंच गया। घर पहुंचते ही सरजू को पूरे परिवार ने घेर लिया। शायरा ने क्या कहा ? रुखसाना क्या कर रही थी? रजिया घर आने के लिए जरूर रोई होगी ! सब अपने-अपने सवालों का जवाब पाने के लिए सरजू की ओर बेताबी से देख रहे थे।

‘रजिया तो घर आने के लिए बहुत चीख पुकार कर रही थी। उसका टैंट में बिल्कुल मन नहीं लगा हुआ। हो सकता है असरफ  का परिवार दो-तीन दिन तक रोहतक में ही रहे। मुझे कुल्हाड़ा दो सुबह उठते ही असरफ  के परिवार के लिए लकड़ी ले जानी हैं। मीना की मां तुम असरफ  के घर जाओ। शायरा कह रही थी कि लकड़ी की अलमारी के नीचे वाले खाने में उसका कंगन छूट गया और मीना बेटी तुम रजिया की कविताओं वाली किताब ढूंढ कर लाओ। सुबह लकडिय़ों के साथ लेता जाऊंगा’। सरजू जल्दी जल्दी बोलता जा रहा था।

मैं अपनी बेटी मीना के साथ असरफ के घर पहुंची तो देखकर हैरान रह गई कि जिले सिंह और प्यारा असरफ के घर का सामान चोरी करके दीवार फांद रहे थे। शायरा का कंगन गायब था। मीना ने रजिया की कविताओं वाली किताब ढूंढने में कोई देर नहीं लगाई।

इस बीच सरजू ने लकड़ी काटकर गट्ठा तैयार कर लिया और यह कहते हुए चारपाई पर लेट गया, ‘मीना की मां सुबह जल्दी उठा देना। सुबह खाना बनाने के समय तक असरफ के परिवार के लिए लकड़ी पहुंचानी होगी।’ आज की रात भी सरजू और भरतो की आंखें बार-बार खुलती रही। ‘असरफ  भाई ये लो लकड़ी और रजिया की कविताओं वाली किताब और बोतल में असफाक के लिए मीना की मां ने दूध भेजा है।’ यह सब सरजू के दिमाग में चल ही रहा था कि अचानक सरजू की आंखे खुल गई।

सूरज की लालिमा उभर आई थी। सरजू जल्दी से उठा और रोहतक के लिए तैयार हो गया। ‘रजिया की किताब लकड़ी के गट्ठे में बांध देती हूं और सुनो, कुर्ते की जेब में असफाक की दूध की बोतल डाल दी है।’ भरतो ने कहा। ठीक है जल्दी करो। सरजू पूरे चाव से असरफ  तक जल्दी पहुंचने के लिए लकड़ी का गट्ठा उठाकर रोहतक के लिए चल पड़ा। उसे पूरे रास्ते असरफ  के परिवार तक पहुंचने के अलावा कुछ नहीं सूझ रहा था। सरजू रोहतक में असरफ के परिवार के टैंट पर पहुंचा। टैंट सुनसान देखकर सरजू ने पूछा, ‘हवलदार साहब, असरफ  का परिवार कहां है ? ”वो रात को लाहौर चले गए’’, हवलदार ने कहा। लकड़ी के ग_े को जमीन पर पटक कर सरजू सिर पर हाथ रखकर बैठ गया। रजिया की कविताओं वाली किताब लकडिय़ों के बीच हवा से फडफ़ड़ा रही थी।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (मार्च-अप्रैल 2017, अंक-10), पेज – 13-15

More From Author

मेज तलै है जी

सादी भोली प्यारी माँ – कर्मचंद केसर

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *