लोग समझते हैं सरदार जी मर गये। नहीं यह मेरी मौत थी। पुराने मैं की मौत। मेरे तअस्सुब (धर्मान्धता) की मौत। घृणा की मौत जो मेरे दिल में थी।
मेरी यह मौत कैसे हुई, यह बताने के लिए मुझे अपने पुराने मुर्दा मैं को जिन्दा करना पड़ेगा।
मेरा नाम शेख बुराहानुद्दीन है।
जब दिल्ली और नई दिल्ली में साम्प्रदायिक हत्याओं और लूट-मार का बाजार गर्म था और मुसलमानों का खून सस्ता हो गया था, तो मैंने सोचा
…वाह री किस्मत! पड़ोसी भी मिला तो सिख।…जो पड़ोसी का फर्ज निभाना या जान बचाना तो क्या, न जाने कब कृपाण झोंक दे !
बात यह है कि उस वक्त तक मैं सिखों पर हंसता भी था। उनसे डरता भी था और काफी नफरत भी करता था। आज से नहीं, बचपन से ही। मैं शायद छह साल का था, जब मैंने पहली बार किसी सिख को देखा था। जो धूप में बैठा अपने बालों को कंघी कर रहा था। मैं चिल्ला पड़ा, ‘अरे वह देखो, औरत के मुंह पर कितनी लम्बी दाढ़ी!’
जैसे-जैसे उम्र गुजरती गयी, मेरी यह हैरानी एक नस्ली नफरत में बदलती गयी।
घर की बड़ी बूढिय़ां जब किसी बच्चे के बारे में अशुभ बात का जिक्र करतीं जैसे यह कि उसे नमूनिया हो गया था उसकी टांग टूट गयी थी तो कहतीं, अब से दूर किसी सिख फिरंगी को नमूनिया हो गया था या अब से दूर किसी सिख फिरंगी की टांग टूट गयी थी। बाद में मालूम हुआ कि यह कोसना सन् 1857 की यादगार था जब हिन्दू-मुसलमानों के स्वतंत्रता युद्ध को दबाने में पंजाब के सिख राजाओं और उनकी फौजों ने फिरंगियों का साथ दिया था। मगर उस वक्त ऐतिहासिक सच्चाइयों पर नजर नहीं थी, सिर्फ एक अस्पष्ट सा खौफ, एक अजीब सी नफरत और एक गहरी धर्मान्धता। डर तो अंग्रेज से भी लगता था और सिख से भी। मगर अंग्रेज से ज्यादा। उदाहरणत: जब मैं कोई दस वर्ष का था एक रोज दिल्ली से अलीगढ़ जा रहा था। हमेशा थर्ड या इंटर में सफर करता था। सोचा कि अबकी बार सैकेंड में सफर करके देखा जाए। टिकट खरीद लिया और एक खाली डिब्बे में बैठकर गद्दों पर खूब कूदा। बाथरूम के आईने में उचक-उचक कर अपना प्रतिबिम्ब देखा। सब पंखों को एक साथ चला दिया। रोशनियों को भी जलाया कभी बुझाया। मगर अभी गाड़ी चलने में दो-तीन मिनट बाकी थे कि लाल-लाल मुंह वाले चार फौजी गोरे आपस में डेम ब्लडी किस्म की बातचीत करते हुए दूसरे दर्जे में घुस आये। उनको देखना था कि सैकेंड क्लास में सफर करने का मेरा शौक रफू-चक्कर हो गया और अपना सूटकेस घसीटता हुआ मैं भागा और एक अत्यन्त खचाखच भरे हुए थर्ड क्लास के डिब्बे में आकर दम लिया। यहां देखा तो कई सिख, दाढिय़ां खोले, कच्छे पहने बैठे थे मगर मैं उनसे डर कर दर्जा छोड़ कर नहीं भागा सिर्फ उनसे जरा फासले पर बैठ गया।
हां, डर सिखों से भी लगता था मगर अंग्रेजों से उनसे ज्यादा। मगर अंग्रेज़ अंग्रेंज थे। वे कोट-पतलून पहनते थे, तो मैं भी पहनना चाहता था। वे ‘डैम…ब्लडी फूल’ वाली जबान बोलते थे, जो मैं भी सीखना चाहता था। इसके अलावा वे हाकिम थे और मैं भी कोई छोटा-मोटा हाकिम बनना चाहता था। वे छुरे-कांटे से खाते थे, मैं भी छुरी-कांटे से भोजन करना चाहता था ताकि दुनिया मुझे सुसंस्कृत समझे।
उन दिनों मुझे काल और ऐतिहासिक सच्चाइयों की समझ नहीं थी। मन में मात्र एक अस्पष्ट-सा भय था। एक विचित्र-सी घृणा और धर्मान्धता थी। डर सिखों से भी लगता था मगर अंग्रेजों से उनसे ज्यादा।
मगर सिखों से जो डर लगता था, उसमें नफरत घुल-मिल गयी थी। कितने अजीब अजीब थे ये सिख, जो मर्द होकर भी सिर के बाल औरतों की तरह लम्बे-लम्बे रखते थे! यह और बात है कि अंग्रेज फैशन की नकल के सिर के बाल मुंड़ाना मुझे भी पन्सद नहीं था। अब्बा के इस हुक्म के बावजूद कि हर जुम्मा को सिर के बाल खशखशी कराए जाएं, मैंने बाल खूब बढ़ा रखे थे ताकि हॉकी और फुटबाल खेलते वक्त बाल हवा में उडें जैसे अंग्रेज खिलाडिय़ों के। अब्बा कहते यह क्या औरतों की तरह पट्टे बढ़ा रखे हैं। मगर अब्बा तो थे ही पुराने विचारों के। उनकी बात कौन सुनता था। उनका बस चलता तो सिर पर उस्तरा चलवाकर बचपन में ही हमारे चेहरों पर दाढिय़ां बंधवा देते। हां, इस पर याद आया कि सिखों के अजीब होने की दूसरी निशानी उनकी दाढिय़ां थीं और फिर दाढ़ी-दाढ़ी में भी फर्क होता है। मसलन अब्बा की दाढ़ी जिसे बड़े ढंग से नाई फ्रेंच-कट बनाया करता था। या ताऊजी की दाढ़ी, जो नुकीली और चोंचदार थी मगर वह भी क्या दाढ़ी हुई जिसे कभी कैंची ही न लगे और झाड़-झंखाड़ की तरह बढ़ती रहे…उल्टा तेल, दही और जाने क्या-क्या मलकर बढ़ाई जाए, और जब खूब लम्बी हो जाए तो उसमें कंघी की जाए, जैसे औरतें सिर के बालों में करती हैं, औरतों या फिर मेरे जैसे स्कूल के फैशनपरस्त लड़के। इसके अलावा मेरे दादा हजूर की दाढ़ी भी लम्बी थी और वह भी उसमें कंघी करते थे, लेकिन उनकी तो बात ही कुछ और थी, आखिर वे मेरे दादा जान ठहरे, और सिख तो फिर सिख थे।
मैट्रिक पास करने के बाद मुझे पढऩे-लिखने के लिए मुस्लिम विश्वविद्यालय भेजा गया। कॉलेज में जो पंजाबी लड़के पढ़ते थे, उन्हें हम दिल्ली और उत्तर प्रदेश वाले…मूर्ख, गंवार तथा उजड्ड समझते थे। न बात करने का सलीका, न खान-पीने की तमीज। तहजीब तो छू तक नहीं गयी थी उन्हें। ये बड़े-बड़े लस्सी के गिलास छकने वाले भला क्या जानें केवडेदार फालूदे और लिपटन की चाय का आनन्द! जबान बड़ी बेहूदा। बात करें तो लगे लट्ठ मार रहे हैं…असी, तुसी, साडे, तुहाडे…लाहौल विलाकूवत ! मैं तो उन पंजाबियों से सदा कतराता रहता था। मगर, खुदा भला करे हमारे वार्डन का कि उन्होंने एक पंजाबी को मेरे कमरे में जगह दे दी। मैंने सोचा चलो, जब साथ रहना ही है तो थोड़ी-बहुत दोस्ती ही कर ली जाऐ।
कुछ ही दिनों में हमारी गाढ़ी छनने लगी। उसका नाम गुलाम रसूल था। रावलपिंडी का रहने वाला था। काफी मजेदार आदमी था। लतीफे खूब सुनाता था।
आप कहेंगे, बात चल रही थी सरदार जी की…यह गुलाम रसूल कहां से टपक पड़ा! मगर दरअसल, उसका इस किस्से से गहरा नाता है। बात यह है कि वह जो लतीफे सुनाता था, वे प्राय: सिखों के बारे में ही होते थे। जिनको सुन-सुनकर मुझे पूरी सिख कौम की आदतें, उनके नस्ली गुणों और सामूहिक चरित्र का पूरी तरह ज्ञान हो गया था। गुलाम रसूल का कहना था कि तमाम सिख बेवकूफ और बुद्धू होते हैं। बारह बजे तो उनकी अक्ल बिलकुल खब्त हो जाती है। इसके सबूत में कितनी ही घटनाएं पेश की जा सकती हैं। मिसाल के तौर पर एक सरदार जी दिन के बारह बजे साइकिल पर सवार अमृतसर के हाल बाजार से गुजर रहे थे। चौराहे पर एक सिख सिपाही ने रोका और पूछा, ”तुम्हारी साइकिल की लाईट कहां है?’’ साइकिल सवार सरदार जी गिड़गिड़ा कर बोले, ”जमादार साहब अभी-अभी बुझ गयी है, घर से जला कर चला था।’’ इस पर सिपाही ने चालान काटने की धमकी दी। एक राह चलते सफेद दाढ़ी वाले सरदार जी ने बीच-बचाव कराया ”चलो भाई कोई बात नहीं। लाईट बुझ गयी है तो अब जला लो।’’ और इसी तरह के सैकड़ों लतीफे उसे याद थे, जिन्हें वह पंजाबी संवादों के साथ सुनाता था तो सुनने वालों के पेट में बल पड़ जाते थे। वास्तव में उन्हें सुनने का मजा पंजाबी में ही आता था। क्योंकि उजड्ड सिखों की अजीब-ओ-गरीब हरकतों के बयान करने का हक कुछ पंजाबी जैसी उजड्ड जबान में ही हो सकता था।
सिख न केवल बेवकूफ और बुद्धू थे बल्कि गन्दे थे जैसा कि एक सबूत गुलाम रसूल यह देता था कि वे बाल नहीं मुंडवाते थे। इसके विपरीत हम साफ-सुथरे गाजी मुसलमान हैं जो हर आठवारे जुमे के जुमे गुसल करते हैं। सिख लोग तो कच्छा पहने सबके सामने, नल के नीचे बैठकर नहाते तो रोज हैं लेकिन बालों और दाढ़ी में न जाने कैसे गन्दी ओर गिलीज चीजें मलते रहते हैं। वैसे मैं भी सिर पर एक हद तक गाढ़े दूध जैसी ‘लैमन-जूस ग्लैसरीन’ लगाता हूं लेकिन वह विलायत के मशहूर सुगन्धी कारखाने से आती है, मगर दही किसी गन्दे-सादे हलवाई की दुकान से।
खैर जी, हमें दूसरों के रहन-सहन वगैरह से क्या लेना-देना। पर सिखों का एक सबसे बड़ा दोष यह था कि उनमें अक्खड़ता, बदतमीजी और मारधाड़ में मुसलमानों का मुकाबला करने का हौंसला था। अब देखो न, दुनिया चाहती है कि एक अकेला मुसलमान दस हिन्दुओं या सिखों पर भारी पड़ता है। फिर ये सिख क्यों मुसलमानों का रौब नहीं मानते? कृपाण लटकाये अकड़-अकड़कर मूंछों बल्कि दाढ़ी पर भी ताव देते हुए चलते थे। गुलाम रसूल कहता, ”इनकी हेकड़ी एक दिन हम ऐसी निकालेंगे कि खालसा जी याद ही करेंगे!’’
कॉलेज छोड़े कई साल गुजर गये। विद्यार्थी से मैं पहले क्लर्क बन गया और फिर हैड क्लर्क। अलीगढ़ का छात्रावास छोड़कर नई दिल्ली के एक सरकारी मकान में रहने लगा। शादी हो गयी, बच्चे हो गये। उन दिनों एक सरदार जी मेरे पड़ोस में आबाद हुए तो मुद्दतों के बाद सहसा मुझे गुलाम रसूल का कथन याद आ गया।
यह सरदार जी रावलपिंडी से तबादला करवाकर आये थे, क्योंकि रावलपिंडी जिला में गुलाम रसूल की भविष्यवाणी के मुताबिक सरदारों की हेकड़ी अच्छी तरह निकाली गयी थी। गाजियों ने उनका सफाया कर दिया था। बड़े सूरमा बनते थे। कृपाणें लिये फिरते थे। बहादुर मुसलमानों के आगे उनकी एक न चली। उनकी दाढिय़ां मूंडकऱ उन्हें मुसलमान बनाया गया था। जबरदस्ती उनका खतना किया गया था। हिन्दू अखबार हमेशा की तरह मुसलमानों को बदनाम करने के लिए लिख रहे थे कि मुसलमानों ने सिख औरतों, बच्चों का कत्ल किया है। हालांकि यह कार्य इस्लामी परंपरा के खिलाफ है। कोई मुसलमान मुजाहद कभी औरत या बच्चे पर हाथ नहीं उठाया। हो न हो, अखबारों में औरतों और बच्चों की लाशों के चित्र जो छापे जा रहे थे, वे या तो जाली थे, या सिखों ने मुसलमानों को बदनाम करने के वास्ते खुद अपनी औरतों और बच्चों का कत्ल किया होगा। रावलपिंडी और पश्चिमी पंजाब के मुसलमानों असलियत सिर्फ इतनी है कि मुसलमानों की बहादुरी की धाक बैठी है और अगर नौजवान मुसलमानों पर हिन्दू और सिख लड़कियां खुद लट्टू हो जाएं तो उनका क्या कसूर है यदि वे इस्लाम के प्रचार के सिलसिले में इन लड़कियों को शरण में ले लें।
हां, तो सिखों की कोरी बहादुरी का भांडा फूट गया था। भला अब तो मास्टर तारा सिंह लाहौर में कृपाण निकालकर मुसलमानों को धमकी दे।
रावलपिंडी से भागे हुए उस सरदार और उसकी कंगाली देखकर मेरा सीना इस्लाम की महानता की रूह (आत्मा) से भर गया।
हमारे पड़ोसी सरदार जी की उम्र कोई साठ साल की होगी। दाढ़ी बिलकुल सफेद हो चुकी थी। हालांकि मौत के मुंह से बच कर आये थे, लेकिन हजरत चौबीस घंटे दांत निकाले हंसते रहते। इसी से प्रकट होता था कि वे दरअसल, कितने मूर्ख और भावहीन हैं।
शुरू-शुरू में उन्होंने मुझे अपनी दोस्ती के जाल में फंसाना चाहा। आते-जाते जबरदस्ती बातें करने लगते। उस दिन न जाने उनका कौन-सा त्यौहार था। उन्होंने हमारे यहां कड़ा प्रसाद की मिठाई भेजी (जो मेरी बेगम ने तुरन्त भंगन को दे दी) पर मैंने ज्यादा मुंह नहीं लगाया। कोई बात हुई, सूखा-सा जवाब दे दिया बस। मैं जानता था कि सीधे मुंह दो-चार बातें कर ली तो यह पीछे ही पड़ जाएगा। आज बातें तो कल गाली-गलौज। गालियां तो आप जानते ही हैं सिखों की दाल-रोटी होती हैं, कौन अपनी जबान गन्दी करे, ऐसे लोगों से संबंध बढ़ाकर।
एक इतवार की दोपहर को मैं बैठा बेगम को सिखों की मूर्खताओं के लतीफे़ सुना रहा था। उनकी आंखों देखी तसदीक करने के लिए ठीक बारह बजे मैंने अपने नौकर को सरदार जी के घर भेजा कि उनसे पूछ कर आये कि क्या बजा है? उन्होंने कहला भेजा कि बारह बजकर दो मिनट हुए हैं। मैंने कहा, ”बारह बजे का नाम लेते हुए घबराते है!’’और हम खूब हंसे।
इसके बाद भी मैंने कई बार मूर्ख बनाने के लिए सरदार जी से पूछा, ”क्यों सरदार जी, बारह बज गये?’’
और वे बेशर्मी से दांत फाड़ कर जवाब देते
”जी असां तो चौबीस घंटे बारह बजे रहते हैं!’’ और यह कहकर वे खूब हंसे, मानो यह बढ़िया मज़ाक हुआ।
मुझे सबसे ज्य़ादा डर बच्चों की तरफ से था। अव्वल तो किसी सिख का विश्वास नहीं कि कब किसी बच्चे के गले पर कृपाण चला दे, फिर ये लोग रावलपिंडी से आये थे जरूर दिल में मुसलमानों से बैर रखते होंगे और बदला लेने की ताक में होंगे। मैंने बेगम को ताकीद कर दी बच्चे हरगिज सरदार जी के मकान की तरफ न जाने दिये जाएं।
मगर बच्चे तो बच्चे ही होते हैं। कुछ दिन बाद मैंने देखा कि वे सरदार जी की छोटी बेटी मोहनी और उनके पोतों के संग खेल-कूद रहे हैं। वह बच्ची, जिसकी उम्र मुश्किल से दस साल की होगी, सचमुच मोहिनी ही थी। गोरी-चिट्टी, तीखे नैन-नक्श…बेहद सुन्दर।
इन कम्बख्तों की औरतें काफी सुन्दर होती हैं। मुझे याद आया…गुलाम रसूल कहा करता था कि अगर पंजाब से सिख मर्द चले जाएं और औरतों को छोड़ जाएं तो फिर हूरों की तलाश में भटकने की जरूरत नहीं !…हां, तो जब मैंने अपने बच्चों को उनके साथ खेलते देखा, तो मैं उनको घसीटता हुआ घर के अन्दर ले आया और खूब पिटाई की। फिर मेरे सामने कम-से-कम उनकी हिम्मत नहीं हुई कि वे कभी उधर का रुख करें।
बहुत जल्द सिखों की असलियत पूरी तरह जाहिर हो गयी। रावलपिंडी से तो वह कायरों की तरह पिटकर आये थे, लेकिन पूर्वी पंजाब में मुसलमानों को अल्पसंख्या में पाकर उन पर अत्याचार ढाना शुरू कर दिया। हजारों बल्कि लाखों मुसलमानों को शहीद होना पड़ा। इस्लामी खून की नदियां बह गयी। हजारों औरतों को नंगा करके जुलूस निकाला गया। जब से पश्चिमी पाकिस्तान से भागे हुए सिख इतनी बड़ी तादाद में दिल्ली आने शुरू हुए थे इस महामारी का यहां तक पहुंचना यकीनी हो गया था। मेरे पाकिस्तान जाने में अभी कुछ हफ्तों की देर थी इसलिए मैंने अपने बीवी-बच्चों को तो बड़े भाई के साथ हवाई जहाज से कराची भेज दिया और खुद, खुदा का भरोसा करके यहीं ठहरा रहा। हवाई जहाज में सामान चूंकि ज्यादा नहीं जा सकता था, इसलिए मैंने पूरी एक वैगन बुक करवा ली। मगर जिस दिन मैं सामान भेजने वाला था, उस दिन सुना कि पाकिस्तान जाने वाली गाडिय़ों पर हमले किए जा रहे हैं, इसलिए सामान घर में ही पड़ा रहा।
पन्द्रह अगस्त को आजादी का जश्न मनाया गया, पर मुझे इस आजादी से भला क्या दिलचस्पी थी! मैंने छुट्टी मनायी और दिनभर लेटा-लेटा ‘डॉन’ तथा ‘पाकिस्तान टाइम्स’ पढ़ता रहा। दोनों अख़बारों में इस घोषित आज़ादी के परखचे उड़ाये गये थे…और सिद्ध किया गया था कि किस प्रकार हिन्दुओं और अंग्रेजों ने मुसलमानों का बीज नाश करने की साजिश की थी। यह तो हमारे कायदेआजम का ही चमत्कार था, कि पाकिस्तान लेकर ही रहे। फिर भी अंग्रेजों ने सिखों के दबाव में आकर अमृतसर जो है, हिन्दुस्तान को दे दिया। वरना सारी दुनिया जानती है कि अमृतसर शुद्ध इस्लामी शहर है…और यहां की सुनहरी मस्जिद संसार में ‘गोल्डन मॉस्क’ के नाम से मशहूर है…नहीं-नहीं, वह तो गुरुद्वारा है और ‘गोल्डन टेंपल’ कहलाता है। सुनहरी मस्जिद तो दिल्ली में है। सुनहरी मस्जिद ही नहीं जामा मस्जिद, लाल-किला भी। निजामुद्दीन औलिया का मजार, हुमायूं का मकबरा, सफदरजंग का मदरसा…यानी चप्पे-चप्पे पर इस्लामी हुकूमत के निशान पाते हैं। फिर भी आज इसी दिल्ली बल्कि कहना चाहिए कि शाहजहांनाबाद पर हिन्दू साम्राज्य का झंडा फहराया जा रहा था! सोचकर मेरा दिल भर आया कि दिल्ली जो कभी मुसलमानों की राजधानी थी, सभ्यता और संस्कृति का प्रमुख केन्द्र थी, हमसे छीन ली गयी और हमें पश्चिमी पंजाब और सिन्ध, बलोचिस्तान वगैरह जैसे उजड्ड और गंवारू इलाकों में जबरदस्ती भेजा जा रहा था, जहां किसी को साफ-सुथरी उर्दू बोलनी भी नहीं आती। जहां सलवारों जैसा जोकराना लिबास पहना जाता है। जहां हल्की-फुल्की पाव भर में बीस चपातियों की बजाय दो-दो सेर की नानें खायी जाती हैं।
फिर मैंने दिल को मजबूत करके कि कायदेआजम और पाकिस्तान की खातिर यह कुर्बानी तो हमें देनी होगी मगर फिर भी दिल्ली छोडऩे के खयाल से दिल मुरझाया ही रहा…शाम को जब मैं बाहर निकला और सरदार जी ने दांत निकालकर कहा ”क्यों बाबू जी! तुमने खुशी नहीं मनायी?’’ तो मेरे जी में आयी कि उसकी दाढ़ी को आग लगा दूं। हिन्दुस्तान की आजादी और दिल्ली में सिख शाही आखिर रंग लाकर ही रही। अब पश्चिमी पंजाब से आये हुए रिफ्यूजियों की संख्या हज़ारों से लाखों तक पहुंच गयी। ये लोग असल में पाकिस्तान बदनाम करने के लिए अपने घर-बार छोड़ वहां से भागे थे। यहां आकर गली-कूचे में अपना रोना रोते फिरते हैं। कांग्रेसी प्रोपेगंडा मुसलमानों के विरुद्ध जोरों से चल रहा है और इस बार कांग्रेसियों ने चाल यह चली कि बजाए कांग्रेस का नाम लेने के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और शहीदी दल के नाम से काम कर रहे थे हालांकि दुनिया जानती है कि ये हिन्दू चाहे कांग्रेसी हों या महासभाई सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। चाहे दुनिया को दिखाने की खातिर वे बाह्य रूप से गांधी और जवाहरलाल नेहरू को गालियां ही क्यों न देते हों।
एक दिन सुबह खबर मिली कि दिल्ली में कत्लेआम शुरू हो गया है। करोलबाग में मुसलमानों के सैंकड़ों घर जला दिए गये…चांदनी चौक के मुसलमानों की दूकानें लूट ली गयीं और हजारों का सफाया हो गया!
खैर, मैंने सोचा नई दिल्ली तो एक अरसे से अंग्रेजों का शहर रहा है। लार्ड माउंटबेटन यहां रहते हैं। कम-से-कम यहां तो वे मुसलमानों पर ऐसा अत्याचार नहीं होने देंगे।
यह सोच कर मैं दफ्तर की तरफ चल पड़ा, क्योंकि उस दिन मुझे अपने प्रॉवीडेंट फंड का हिसाब करना था। असल में इसलिए ही मैंने पाकिस्तान जाने में देर कर दी थी। अभी मैं गोल मार्केट तक ही पहुंचा था कि दफ्तर का एक हिन्दू बाबू मिला। उसने कहा, ”कहां चले जा रहे हो? जाओ वापस जाओ, बाहर न निकलना। कनॉट प्लेस में बलवाई मुसलमानों को मार रहे हैं।’’
मैं वापस भाग आया। अपने सक्वेयर में पहुंचा ही था कि सरदार जी से मुठभेड़ हो गयी। कहने लगे, ”शेख जी, फि़क्र न करना। जब तक हम सलामत हैं, तुम्हें कोई हाथ नहीं लगा सकता।’’
मैंने सोचा कि इसकी दाढ़ी के पीछे कितना कपट छुपा हुआ है। दिल में तो…खुश है कि चलो अच्छा हुआ मुसलमानों का सफाया हो रहा है मगर जबानी हमदर्दी जताकर मुझ पर एहसान कर रहा है क्योंकि सारे सक्वेयर में बल्कि तमाम सड़क पर मैं अकेला मुसलमान था। मुझे इन काफिरों की सहानुभूति या दया नहीं चाहिए! मैं अपने क्वार्टर में आ गया कि मैं मारा भी जाऊं तो दस-बीस को मार कर। सीधा अपने कमरे में गया, जहां पलंग के नीचे मेरी शिकारी दोनाली बन्दूक रखी थी। जब से दंगे शुरू हुए थे मैंने कारतूस और गोलियों का जखीरा जमा कर रखा था। पर वहां बन्दूक न मिली। सारा घर छान मारा। उसका कहीं पता न चला।
”क्यों हुजूर, क्या ढूंढ रहे हैं आप?’’ यह मेरा वफादार नौकर मम्दू था।
”मेरी बन्दूक कहां गयी?’’ मैंने पूछा, उसने कोई जवाब न दिया मगर उसके चेहरे से साफ जाहिर था कि उसे मालूम है। शायद उसने छुपायी है या चुरायी है।
”बोलता क्यों नहीं?’’ मैंने डपट कर कहा तब असलियत मालूम हुई कि मम्दू ने मेरी बन्दूक चुराकर अपने दोस्तों को दे दी है, जो दरियागंज में मुसलमानों की हिफाजत के लिए हथियार जमा कर रहे थे। वह भी बड़े जोश में था, ”सरकार, सैकड़ों बन्दूकें हैं हमारे पास। सात मशीनगनें, दस पिस्तौल और एक तोप। हम काफिरों को भूनकर रख देंगे, भूनकर !’’
मैंने कहा
”मेरी बन्दूक से दरियागंज से काफिरों को भून दिया गया तो इससे मेरी हिफाजत कैसे होगी? मैं तो यहां निहत्था काफिरों के चंगुल में फंसा हुआ हूं। यहां मुझे भून दिया गया तो कौन जिम्मेदार होगा?’’ मैंने मम्दू से कहा कि जैसे भी हो, वह छुपता-छुपाता दरियागंज जाए और मेरी बन्दूक तथा सौ-दो सौ कारतूस भी ले आये। वह चला तो गया, लेकिन मुझे विश्वास था कि अब वह लौटकर नहीं आयेगा।
अब मैं घर में बिलकुल अकेला रह गया था। सामने कारनिस पर मेरे बीवी-बच्चों की तस्वीरें चुपचाप मुझे घूर रही थीं। यह सोचकर मेरी आंखों में आंसू आ गये कि अब उनसे मुलाकत होगी भी या नहीं, मेरी आंखें भर आयीं। मगर फिर इस खयाल से कुछ सन्तुष्टि भी हुई कि कम-से-कम वे तो सकुशल पाकिस्तान पहुंच गये हैं। काश, मैंने प्रॉवीडेंट फंड का लालच न किया होता!
”सतसिरी अकाल?’’ हरहर महादेव !’’ दूर से आवांजें करीब आ रही थीं। ये दंगाई थे। ये मेरी मौत के दूत थे। मैंने जख्मी हिरन की तरह इधर-उधर देखा जो गोली खा चुका हो और जिसके पीछे शिकारी कुत्ते लगे हों…बचाव की कोई सूरत न थी। क्वार्टर के किवाड़ पतली लकड़ी के थे और उनमें शीशे लगे हुए थे। मैं अन्दर बन्द होकर बैठा भी रहा, तो भी बलवाई दो मिनट में किवाड़ तोड़कर अन्दर आ सकते थे।
”सतसिरी अकाल!’’
”हरहर महादेव!’’
आवाज़ें और निकट आ रही थीं, मेरी मौत निकट आ रही थी।
इतने में दरवाजे पर दस्तक हुई। सरदार जी दाखिल हुए।
”शेख जी, तुम हमारे क्र्वाटर में आ जाओ…जल्दी करो’’…बिना सोचे-समझे अगले क्षण मैं सरदार जी के बरामदे की चिकों के पीछे था। मौत की गोली सन से मेरे सिर पर से गुजर गयी, क्योंकि मैं वहां दाखि़ल हुआ ही था कि एक लारी आकर रुकी और उसमें दस-पन्द्रह युवक उतरे। उनके अगुआ के हाथ में एक सूची थी।
”मकान नं 8 शेख बुरहानुद्दीन?’’ उसने कागज पर नजऱ डालते हुए हुक्म दिया और पूरा दल टूट पड़ा। मेरी गृहस्थी की दुनिया मेरी आंखों के सामने उजड़ गयी। कुर्सियां, मेजें, सन्दूक, तस्वीरें, किताबें, दरियाँ, कालीन यहाँ तक कि मैले कपड़े हर चीज़ लारी में पहुंचा दी गयी।
डाकू!
लुटेरे!!
कज्जाक!!!
और यह सरदार जी, जो मुँह की हमदर्दी जताकर मुझे यहां ले आये, यह कौन-सा कम लुटेरे हैं! वे बाहर जाकर बलवाइयों से बोले, ”ठहरिए साहब, इस घर पर हमारा हक है। हमें भी लूट का हिस्सा मिलना चाहिए।’’ यह कहकर उन्होंने अपने बेटे और बेटी को इशारा किया, और वे भी लूट में शामिल हो गये। कोई मेरी पतलून उठाये चला आ रहा था, कोई सूटकेस और कोई मेरे बीवी-बच्चों की तस्वीरें ला रहा था। लूट का यह सारा माल सीधा अन्दर वाले कमरे में पहुंचाया जा रहा था।
अच्छा रे सरदार! जिन्दा रहा तो तुझसे भी निपट लूंगा।…मगर उस वक्त तो मैं चूँ भी नहीं कर सकता था। क्योंकि दंगाई जो सब के सब हथियारबन्द थे मुझसे कुछ ही गज के फासले पर जमा थे। उन्हें मालूम हो गया कि मैं यहाँ हूं तो…
”अरे अन्दर जाओ तुसी…’’ सहसा मैंने देखा कि सरदार जी हाथ में नंगी कृपाण लिये मुझे भीतर बुला रहे हैं। मैंने एक बारगी उस दढिय़ल चेहरे को देखा, जो लूटमार की भाग-दौड़ से और भी डरावना हो गया था…और फिर कृपाण को, जिसकी चमकीली धार मुझे मौत की दावत दे रही थी। बहस करने का मौका नहीं था। अगर मैं जरा भी बोला और बलवाइयों ने सुन लिया, तो अगले ही पल गोली मेरे सीने से पार होगी। कृपाण और बन्दूक वाले कई बलवाइयों से कृपाण वाला बुङ्ढा बेहतर है। मैं कमरे में चला गया, झिझकता हुआ चुपचाप।
”यहाँ नहीं जी, अन्दर आओ।’’
मैं और अन्दर कमरे में चला गया, जैसे बकरा कसाई के साथ बलि की वेदी में दाखिल होता है। मेरी आँखें कृपाण की धार से चौंधियायी जा रही थीं।
”यह लो जी, अपनी चीजें सम्भाल लो।’’ कहकर सरदार जी ने वह सारा सामान मेरे सामने रख दिया, जो उन्होंने और उनके बच्चों ने झूठमूठ की लूट में हासिल किया था।
सरदारनी बोली, ”बेटा अफ़सोस है कि हम तेरा कुछ भी सामान नहीं बचा सके।’’
मैं कोई जवाब न दे सका।
इतने में बाहर से कुछ शोर-शराबा सुनाई दिया। बलवाई मेरी लोहे की अलमारी निकालकर उसे तोडऩे की कोशिश कर रहे थे। ”इसकी चाबियाँ मिल जातीं तो मामला आसान हो जाता।’’
”चाबियां तो इसकी अब पाकिस्तान में मिलेंगी। भाग गया न डरपोक! मुसलमान का बच्चा था तो मुकाबला करता।’’
नन्हीं मोहनी मेरी बीवी की कुछ रेशमी कमीजें और गरारे न जाने किससे छीन कर ला रही थी। उसने बलवाइयों की बात सुनी तो बोली, ”तुम बड़े बहादुर हो, शेखजी डरपोक क्यों होने लगे…वह तो कोई भी पाकिस्तान नहीं गये।’’
”नहीं गया तो यहाँ से कहाँ मुंह काला कर गया?’’
”मुंह काला क्यों करते! वह तो हमारे घर…
मेरे दिल की धड़कन पल भर के लिए बन्द हो गयी। बच्ची अपनी गलती महसूस करते ही खामोश हो गयी। मगर बलवाइयों के लिए यही काफी था।
सरदार जी के सिर पर जैसे खून सवार हो गया। उन्होंने मुझे अन्दर बन्द करके दरवाजे को कुंडी लगा दी। अपने बेटे के हाथ कृपाण थमायी और खुद बाहर निकल आये।
बाहर क्या हुआ मुझे ठीक से पता नहीं चला।
थप्पड़ों की आवाज…फिर मोहनी के रोने की आवाज और उसके बाद सरदार जी की आवाज, पंजाबी गालियाँ! कुछ पल्ले नहीं पड़ा कि किसे गालियाँ दे रहे हैं और क्यों दे रहे हैं। मैं चारों तरफ से बन्द था। इसलिए ठीक सुनाई न दिया।
और फिर गोली की आवाज… सरदार जी की चीख… लारी चालू होने की गडग़ड़ाहट…और फिर सारी सक्वेयर पर सन्नाटा छा गया। जब मुझे कमरे की कैद से निकाला गया तो सरदार जी पलंग पर पड़े थे, और उनके सीने के निकट सफेद कमीज छाती पर खून से लाल हो रही थी। उसका बेटा पड़ोसी के घर से डॉक्टर को फोन कर रहा था।
”सरदार जी ! यह तुमने क्या किया?’’ मेरी जबान से न जाने ये शब्द कैसे निकले। हैरान था। मेरी बरसों की दुनिया, विचारों, मान्यताओं, संस्कारों और धार्मिक भावनाओं का संसार ध्वस्त हो गया था। ”सरदार जी, यह तुमने क्या किया?’’
”मुझे कर्जा उतारना था, बेटा।’’
”कर्जा?’’
”हाँ, रावलपिंडी में तुम्हारे जैसे ही एक मुसलमान ने अपनी जान देकर मेरी और मेरे परिवार की इज्जत बचायी थी।’’
”उसका नाम क्या था सरदार जी?’’
”गुलाम रसूल।’’
”गुलाम रसूल!’’ …और मुझे ऐसा लगा मानो किस्मत ने मेरे साथ धोखा किया है। दीवार पर लटके घंटे ने बाहर बजाने शुरू कर दिये… एक… दो… तीन… चार… पाँच…
सरदार जी की निगाहें घंटे की तरफ घूम गयीं…जैसे मुस्करा रहे हों और मुझे अपने दादा हुजूर याद आ गये, जिनकी कई फुट लम्बी दाढ़ी थी…सरदार जी की शक्ल उनसे कितनी मिलती-जुलती थी!…छह…सात…आठ…नौ…
मानो वे हँस रहे हों…उनकी सफेद दाढ़ी और सिर के खुले बालों ने उनके चेहरे के गिर्द एक प्रभामंडल-सा बनाया हुआ था।
…दस… ग्यारह… बारह…जैसे वे कह रहे हो, ”जी, असाँ दे तो चौबीस घंटे बारह बजे रहते हैं।’’
फिर वे निगाहें हमेशा के लिए बन्द हो गयी!…और मेरे कानों में गुलाम रसूल की आवाज़ दूर…बहुत दूर से आयी…”मैं कहता था न कि बारह बजे इन सिखों की अक्ल मारी जाती है…और ये कोई न कोई बेवकूफी कर बैठते है।…अब इन सरदार जी को ही देखो…एक मुसलमान की खातिर अपनी जान दे दी!’’
पर ये सरदार जी नहीं मरे थे। मैं मरा था।
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (मार्च-अप्रैल 2017, अंक-10), पेज – 5 से 9