हरियाणा में भाषायी विविधता – सुधीर शर्मा

सन् 1986 में जामा मस्जिद क्षेत्र की एक दुकान से मैंने एक पुराना ग्रामोफोन रिकार्ड खरीदा था (जो  मेरे पास अब भी है) गायिका का नाम है महमूदा बेगम। गीत के बोल लिखे हैं, ‘ए री मेरा न आया भरतार जल कः मरूंगी बाग मः।’ वह 1938-40 के आसपास की रिकार्डिंग है। उन दिनों ग्रामोफोन रिकार्ड पर गायक  या गायिका के नाम के अतिरिक्त गीत की भाषा, फिल्म या विधा का नाम भी लिखा जाता था। इस रिकार्ड पर नाम के आगे भाषा को इंगित करते हुए ‘बांगरू’ लिखा है। हरियाणा की इस प्रमुख भाषा का जो रोहतक, सोनीपत, जींद, भिवानी व पानीपत क्षेत्र में बोली जाती है, बहुत पहले से बांगरू कहा जाता रहा है। इसे सबसे पहले ज्यॉरज अब्राहम ग्रियर्सन ने ‘बांगरू’ या ‘बांगडू’ के नाम से अभिहित किया था। उन्नीस भागों में, 1903 और 1928 के बीच प्रकाशित, इस बृहद ‘लिगुइस्टिक सर्वे आफ इंडिया’ में ‘बांगरू’ और इस प्रदेश के लिए ‘बांगर’ का इस्तेमाल किया है।

समय के साथ-साथ परिस्थितियां बदली और ‘बांगरू’ भाषा के लोक नाटक (सांग), रागनी, कथाएं, गाथाएं, किस्से, कहानियां, लोक गीत, फिल्में, हास्य-व्यंग्य इतने प्रचारित-प्रसारित हुए कि एक सीमित क्षेत्र की भाषा ही हरियाणवी मानी जाने लगी। हरियाणा के प्रतिष्ठित भाषाविद् डा. बलदेव सिंह का मत है कि ‘‘यहां जिस हरियाणी की बात की जा रही है, वह सारे हरियाणा की बोली नहीं है, अपितु रोहतक और सोनीपत की बांगरू है। इसके अतिरिक्त हरियाणा के में ब्रज, मेवाती, अहीरवाटी, बागड़ी, कुरुक्षेत्र-करनाल की कौरवी आदि कई बोलियां हैं।’’ हरियाणा जनपदीय भाषाओं का एक सुंदर गुलदस्ता है, एक विस्तृत फलक है जहां भाषाओं के कई रंग हें। इन भाषाओं का अपना इतिहास है, अपनी विशिष्ट पृष्ठभूमि है। यद्यपि इनके बीच कोई अभेद्य सीमा-रेखा तो नहीं खींची जा सकती, पर इनके अस्तित्व को अनदेखा भी नहीं किया जा सकता।

भाषाओं के संदर्भ में हरियाणा का ‘इन्सुलर कल्चर’ है। यानी एक द्वीप जैसी संस्कृति है, जहां हर भाषा अपने-अपने द्वीप में –सीमित क्षेत्र में– सिमटी हुई है और एक ‘द्वीप’ अन्य क्षेत्रों से कोई लेना-देना नहीं। परिणामस्वरूप मेवात के मुसलमान जोगियों द्वारा गाया जाने वाला ‘पांडू का कड़ा’ और ‘हनुमान कथा’ से रोहतक अपरिचित है और भिवानी के जोगी गायकों के  ‘निहाल दे’, ‘अमर सिंह राठौर’ और ‘हरफूल सिंह’ के किस्सों से अनभिज्ञ हैं। अतः इन भाषाओं की पृष्ठभूमि और महत्व को समझना आवश्यक है।

इसके पहले कि अन्य भाषाओं का जिक्र करें, यहां यह बताना भी आवश्यक है कि बांगरू अनायास ही प्रचारित और प्रसारित नहीं हुई। इसे लोगों तक सशक्त ढंग से पहुंचाने में इस क्षेत्र के रचनाकारों, कलाकारों, संगीतकारों, अभिनेताओं व शोधकर्त्ताओं की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। अधिकतर ‘सांगी’ बांगरू-भाषी क्षेत्र के रहे हैं। लोक-नाट्य सांग प्रसार का बहुत सशक्त माध्यम पहले भी था, आज भी है, क्योंकि यह गायन-वादन, संवाद, नृत्य, हास्य व उपदेश का बांगरू में मनोरंजक पैकेज है। हरियाणा की फिल्में भी इसी भाषा में बनी और आसपास क्षेत्रों में, विशेषकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चाव से देखी गई। इस क्षेत्र के काफी लोग सेना में पहले भी थे, आज भी हैं। विभिन्न फौजी छावनियों में जवानों के मनोरंजन के लिए सांग जाते रहे हैं, जिससे भाषा को भी ‘एक्सपोजर’ मिला और हरियाणा संस्कृति के जीवन मूल्यों को भी। इस आवागमन से लोक-कलाकारों के लिए भी बाहर की दुनिया की खिड़की खुली। फौजी मेहर सिंह की अधिकतर रागनियां फौज की जिंदगी पर ही आधारित हैं। रेडियो स्टेशन का रोहतक में होना बांगरू भाषा की विभिन्न विधाओं के कलाकारों के लिए काफी सहायक रहा है। अब मुंबई की फिल्मों में भी यह भाषा पहुंच गई है। यह लोक भाषा और हरियाणा दोनों के लिए अच्छी शुरुआत है। शोधकर्त्ताओं और संस्कृति समीक्षकों ने भी इस लोक भाषा पर सराहनीय कार्य किया है, लेकिन जहां तक इसका प्रदेश के विभिन्न भागों में सक्रियता से लोकप्रिय होने का प्रश्न है, उस स्थिति के आने में लगता है अभी समय लगेगा।

भाषाओं के संदर्भ में हरियाणा का ‘इन्सुलर कल्चर’ है। यानी एक द्वीप जैसी संस्कृति है, जहां हर भाषा अपने-अपने द्वीप में –सीमित क्षेत्र में– सिमटी हुई है और एक ‘द्वीप’ अन्य क्षेत्रों से कोई लेना-देना नहीं। परिणामस्वरूप मेवात के मुसलमान जोगियों द्वारा गाया जाने वाला ‘पांडू का कड़ा’ और ‘हनुमान कथा’ से रोहतक अपरिचित है और भिवानी के जोगी गायकों के  ‘निहाल दे’, ‘अमर सिंह राठौर’ और ‘हरफूल सिंह’ के किस्सों से अनभिज्ञ हैं। अतः इन भाषाओं की पृष्ठभूमि और महत्व को समझना आवश्यक है।

हरियाणा के दक्षिण में अहीरवाटी भाषा बोली जाती है, जिसे हीरवाटी, अहीरी और हीरी भी कहते हैं। पहले इसे उत्तर-पूर्वी राजस्थानी भाषा की या बांगरू की उपभाषा माना जाता था, पर अब इसे एक अलग भाषा के रूप में स्वीकार कर लिया गया है, जिसकी अपनी पहचान है। यद्यपि इसकी शब्दावली बांगरू से बहुत मिलती-जुलती है। यह अधिक शालीन, विनम्र व शिष्ट है। बातचीत व संबोधन में सम्मानसूचक ‘जी’ का प्रयोग किया जाता है, जैसे ‘मां जी’, ‘बाई जी’ आदि। बड़े बुजुर्गों के लिए ‘तू’ का प्रयोग नहीं किया जाता। रिवाड़ी इसका केंद्र बिंदू है। गांव  बडव्वा के लोक कवि कल्लू भाट ने अहीरवाल के उन प्रमुख गांवों के नाम गिनवाए हैं, जहां यह भाषा बोली जाती है। वे अहीरवाल को ‘अनोखा’ और ‘देवताओं का निवास’ बताते हैं। वे कहते हैं-

‘अहीरवाल नौखा भाइयो, देवतां का देस बास
सुणो भाइयो करके ख्याल, कोसली, कनीना, खास
डैरोली और नांगल, कहिए, गढ़ी कोठड़ी सहारणवास
गंडराला, बहरोड़, कहिए, आसिया की पीथड़वास
जोड़िया, नसीपुर, कहिए, नीरपुर रिवाड़ी, पास
पांछापुर, गुरावड़ा, धारूहेड़ा, पाल्हावास
नंगली, निसाड़, नाहड़ गाम मैं गिणाऊ खास’

अहीरवाल में अनेक संत कवि हुए हैं, जिन्होंने यहां की लोक प्रचलित भाषा को अपनाया और धर्म तथा अध्यात्म पर श्रेष्ठ रचनाएं की हैं। इनमें संत नितानंद का नाम सर्वोपरि है। इस क्षेत्र में अलीबख्श के ‘तमाशे’ (लोक-नाट्य) बहुत लोकप्रिय रहे हैं। यद्यपि उनका जन्म राजस्थान के गांव मुंडावर में हुआ था, वे रिवाड़ी को ही अपनी कर्मभूमि मानते थे। अपने लोकप्रिय लोक नाट्य ‘निहाल दे’ के समापन पर वे कहते थे –

‘राजपूत हू टिकावत, मेरा अलीबख्श है नाम
नगर मुडावर सुबस बसिया, है मेरा निजधाम
रिवाड़ी बना रहे गुलजार तमाशा किया बीच बज़ार

अहीरवाल के जोगियों ने सारंगी पर 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की घटनाओं को गाकर देशभक्ति की भावना को गांव-गांव जाकर पहुंचाया। डा. सत्यवीर मानव जिन्होंने ‘दक्षिणी हरियाणा के लौकिक कवियों और काव्य’ पर काम किया है, का मत है कि ‘यह क्षेत्र धर्म, दर्शन एवं साहित्य की प्राचीनतम एवं अत्यधिक उर्वरा धर्मस्थली रही है।’

अहीरवाटी और बांगरू से मिलती-जुलती बागड़ी भाषा भी हरियाणा में बोली जाती है। यह नाम बागड़ से बना है। अपनी अलग पहचान के लिए ही इस क्षेत्र के लोग अपने नाम के साथ ‘बागड़ी’ बड़े गर्व से जोड़ते हैं। वर्तमान हरियाणा के दक्षिणी तथा  राजस्थान के उत्तरी भाग को प्राचीनकाल से बागड़ के नाम से जाना जाता है और इस क्षेत्र की भाषा को बागड़ी कहते आए हैं। बागड़ में कौन सा क्षेत्र शामिल है, इस पर विद्वान भी सहमत नहीं है। पर जहां तक भाषा का प्रश्न है हरियाणा में बागड़ी सिरसा, डबवाली, आदमपुर, सिवानी, लुहारू व हिसार में बोली जाती है। यद्यपि इसमें राजस्थानी, अहीरवाटी और बांगरू के रंग झलकते हैं, पर इसकी अपनी अलग पहचान है और स्थानीय लोक संस्कृति की महक है। हरियाणा में आयोजित युवा-समारोहों में व अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों में ऐसे लोक गीत प्रायः सुने जा सकते हैं, जैसे यह:

‘मोरिया आच्छो बोल्यो रः ढलती रात मः
म्हारा हीवड़ा म बहगी र दुधार
मैं तो बोल्यो ए म्हारी मौज म
थारै किस बिध बहगी ए कटार’
या फिर एक अन्य लोक गीत
‘उड़ उड़ र म्हारा काला रै कागला
जद म्हारा पीवजी घर आवै
घी खांड रो जीमण जिमाऊं
सोना म चोंच मढांऊ र कागला
जद म्हारा पीव जी घर आवै’

इस क्षेत्र में गुरु जम्भेश्वर द्वारा निर्धारित 20 जमा 9 नियमों का पालन करने वाला बिश्नोई समाज न केवल अपनी मान्यताओं के कारण, बल्कि अपनी भाषा के कारण भी अपनी पहचान बनाए हुए है। गुरु जम्भेश्वर ने परम्परागत लोक वाणी द्वारा ही अपना संदेश व उपदेश अपने अनुयायियों तक पहुंचाया है।

दिल्ली से 83 किलोमीटर दूर मथुरा की ओर हरियाणा के जिला पलवल में एक गांव है बनचारी, जिसके लोक-कलाकारों ने ब्रज भाषा की ‘रसिया’ गायिकी को बड़े-बड़े नगाड़े बजाकर न केवल भारत, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध किया है। हरियाणा में ब्रज भाषा फरीदाबाद से लेकर पलवल, हसनपुर, होडल क्षेत्र में बोली जाती है। ब्रज भाषा एक प्राचीन भाषा है, जिसको सूरदास, रहीम, रसखान, केशव दास अन्य कवियों ने अपनी रचनाओं से सुशोभित किया है।

इतिहासकार मानते है कि संत कवि सूरदास का जन्म सन् 1418 में फरीदाबाद के निकट सीही गांव में हुआ था। ब्रजभाषा का हिन्दी के विकास में महत्वपूर्ण योगदान है। होली के दिनों में रोहतक के निकट गांव खरक के गोविन्द राम ढप पर अपनी मंडली के साथ नाचते हुए यह रसिया गाते हैं।

‘ब्रज मण्डल देस दिखा दयो् रसिया
तोरे बिरज म मोर बोहत है
बोलत मोर फटै छतियां
तोरे बिरज म गैया बहोत है
पी पी दूध भए पठिया’’

यह उदाहरण इसलिए महत्वपूर्ण है कि हरियाणा में रसिया केवल ब्रजमंडल में नहीं, अन्य स्थानों पर भी गाया और सुना जाता है और यह विधा प्रांत की भाषाई विविधता को सुदृढ़ करती है।

हरियाणा में लोक भाषाएं ही नहीं, उर्दू भी बहुत धुंधली हो गई है। स्वतंत्रता से पहले और उसके कई वर्षों बाद तक उर्दू यहां बहुत प्रचलित थी। शहरों और कस्बों में लोग उर्दू के ‘प्रताप’ और ‘मिलाप’ समाचार पत्र पढ़ कर दिन आरंभ करते थे। कालेजों में उर्दू लिटरेरी सोसाइटिज थीं, जिनमें तरह-मिसरा दिया जाता था, जिसके आधार पर छात्र-छात्राएं गज़ल लिखते और सुनाते थे। उर्दू को आम आदमी तक पहुंचाने में प्रदेश के कद्दावर नेता चौधरी छोटूराम की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। वे बार-बार कहते थे  कि उनके संघर्षों व प्रयासों के प्रेरणा स्रोत डा. मोहम्मद इकबाल थे।

हरियाणा में एक और महत्वपूर्ण भाषा है — मेवाती जिसके द्वारा हम राजस्थानी संस्कृति और भाषा के साझेदार है। यह भाषा अलवर, भरतपुर तथा धौलपुर जिलों के अतिरिक्त हरियाणा के मेवात क्षेत्र में बोली जाती है। जहां यह फिरोजपुर, झिरका, नूह, नगीना, पुन्हाना, हथीन, तावडू आदि स्थान इसके बोलने वाले रहते हैं। मेवात में मुख्य रूप से रीति-रिवाज हिन्दुओं के समान हैं। मुसलमान लोक-गायक ‘पांडू का कड़ा’ व अन्य हिन्दू गाथाएं सारंगी, ढोलक और भपरां पर गाते हैं। मेवाती पर उर्दू के अतिरिक्त ब्रज, अहीरववाटी व राजस्थानी का प्रभाव दिखाई देता है। हरियाणा की अन्य बहुत सी भाषाओं की भांति मेवाती भी मेवात के सीमित क्षेत्र में सिकुड़ी हुई है। असगर खां मेवाती के अतिरिक्त हरियाणा में रेडियो या अन्य मीडिया पर हरियाणा का कोई मेवाती लोक कलाकार मेवाती के माध्यम से अपनी कोई पहचान नहीं बना पाया है। नूह के सिद्दिक अहमद साहब मेव ने मेवात की संस्कृति पर पुस्तक लिखी है, पर इस प्रकाशन के बारे में मेवात के बाहर जानकारी कम है। जैसा हमने देखा कि हरियाणा में कुछ भाषाएं ऐसी हैं जो उनके अधिकतर बोलने वालों के नाम से जानी जाती हैं जैसे अहीरों की अहीरवाटी या मेवों की मेवाती पर कुछ भाषाओं की प्राचीन पृष्ठभूमि है जैसे कौरवी। हरियाणा में यह कुरुक्षेत्र, यमुनानगर तथा अम्बाला जिलों की लोकभाषा है। विद्वान इसे महाभारत काल से जुड़ा हुआ मानते हैं। उस समय के लंबे चौड़े कुरु प्रदेश की राजधानी हस्तिानपुर (मेरठ) थी। इसका नामकरण कुरुवंशीय सुहोत्र के पुत्र हस्तिन ने अपने नाम पर किया था। माना जाता है कि उस समय अम्बाला से बिजनौर तक का विस्तृत क्षेत्र महान कुरु जनपद था। कालांतर में यहां के निवासी कौरव इनका भू-प्रदेश कुरु प्रदेश और भाषा कौरवी कहलाई जाने लगी। कौरवी का हिन्दी के विकास में महत्वपूर्ण योगदान है। भाषा और संस्कृति के मामले में कौरवी और बांगरू में बहुत समानता है। मेरठ के बागवत को कौरवी का केंद्र माना जाता है।

हरियाणा में लोक भाषाएं ही नहीं, उर्दू भी बहुत धुंधली हो गई है। स्वतंत्रता से पहले और उसके कई वर्षों बाद तक उर्दू यहां बहुत प्रचलित थी। शहरों और कस्बों में लोग उर्दू के ‘प्रताप’ और ‘मिलाप’ समाचार पत्र पढ़ कर दिन आरंभ करते थे। कालेजों में उर्दू लिटरेरी सोसाइटिज थीं, जिनमें तरह-मिसरा दिया जाता था, जिसके आधार पर छात्र-छात्राएं गज़ल लिखते और सुनाते थे। उर्दू को आम आदमी तक पहुंचाने में प्रदेश के कद्दावर नेता चौधरी छोटूराम की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। वे बार-बार कहते थे  कि उनके संघर्षों व प्रयासों के प्रेरणा स्रोत डा. मोहम्मद इकबाल थे। चाहे गांव हो या शहर या विधान सभा चौधरी छोटूराम हमेशा इकबाल के शेर बोला करते थे। उनका पसंदीदा शेर आज भी उनकी समाधि पर उर्दू लिपि में लिखा हुआ देखा सकता है।

‘यकीं मोहकम, अमल पैहम, मुहब्बत फास हे आलम
जिहादे जिंदगी में यह हैं मर्दों की शमशीरें’

‘दृढ़ विश्वास, उस पर पूर्ण अमल और मुहब्बत ऐसी जो दुनिया पर विजय पा ले, जिंदगी के संघर्ष में मर्दों की यही तलवारें हैं।’

उस समय के बहुत से युवाओं को सुन-सुन कर ही इकबाल के शेर याद हो गए थे। रोहतक से प्रकाशित ‘जाट गजट’ भी काफी दिनों तक चलता रहा। यद्यपि पिछले कुछ वर्षों में हरियाणा में उर्दू बहुत कम हो गई है, पर समाप्त नहीं हुई। कोर्ट-कचहरी की भाषा आज भी उर्दू है। अम्बाला के उर्दू प्रेमी डीसीएम (दिल्ली) के इंडो-पाक मुशायरे के साथ अपने शहर में भी मुशायरा आयोजित करवाते रहे हैं। हाल ही में प्रो. रामनाथ चसवाल आबिद आलमी की याद में रोहतक में आयोजित मुशायरा (जिसकी निज़ामत लेखक की थी) बहुत सफल आयोजन रहा। हर वर्ष युवा समारोहों और उत्सवों में मंच संचालक उर्दू के सैंकड़ों शेर बोलते हैं और श्रोता भी उनका भरपूर आनंद लेते हैं। हरियाणा में गज़ल, नज़म और कव्वाली के चाहने वालों का भी एक बड़ा वर्ग है। कालेज तथा विश्वविद्यालयों ने इन्हें प्रतियोगिताओं का एक आइटम रखा है, जिसमें युवा वर्ग काफी रूचि दिखाता है। कठिनाई यह है कि उर्दू जु़बान को बोलना और सुनना तो प्रचलित है, पर पढ़ना-पढ़ाना नहीं है। हरियाणा को गर्व है कि यह प्रदेश अल्ताफ हुसैन हाली की जन्म भूमि और लंबे अरसे तक कर्मभूमि भी रहा है।

हरियाणा को एक अलग प्रशासनिक इकाई बने लगभग 50 वर्ष हो गए हैं, पर अभी तक यहां की भाषाई विविधता को सुनियोजित ढंग से प्रतिनिधित्व करने वाला लोक संस्कृति का कोई संगठन नहीं। इन भाषाओं के शब्द, मुहावरे, लोकोक्तियां, गीत व अन्य सांस्कृतिक विधाएं लुप्त होती जा रही हैं। कुछ बुजुर्ग बचे हैं जो इस विरासत को  बचा कर रखे हुए हैं, लेकिन इस पीढ़ी के अंत के बाद इस सांस्कृतिक सामग्री का भी अंत हो जाएगा। डा. बलदेव सिंह ने सही चेतावनी दी है कि ‘‘प्रचार और प्रसार साधनों की अधिकता के कारण मानक भाषा बोलियों को आत्मसात् करती जा रही है…अगले पचास वर्षों में यदि हरियाणी का पूर्ण हिन्दीकरण हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।’’ अतः सभी लोकभाषाओं  का न केवल संरक्षण हो, बल्कि विभिन्न लोक विधाओं –‘रागनी, रसिया, कथा, गाथा, साका,  हास्य, व्यंग्य, सबद, भजन, दौड़, गीत इत्यादि — को व्यापक रूप से सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रस्तुत व प्रसारित किया जाए, क्योंकि नाजिश प्रतापवादी के लफ्जों में

जबान बनती है चौपाल में जवां की तरह
जबान बनती है बैठक में दास्तां की तरह
जबान ढलती है कूचों में कारखानों में
न दफ्तरों न कहीं फाइलों में ढलती है
जबान धरती के सीने से लग के चलती है
जमीं का हुस्न है खेतों की ताजगी है जबां
रहट की लय है तो पनघट की रागनी है जबां
जबां मचलती है मिट्टी में चहचहों की तरह
जबां उबलती है आंगन में चहचहों  की तरह
जहां भी छांव घनी हो कयाम करते चलो
अदब जहां भी मिले एहतराम करते चलो

More From Author

वास्तविक रचनाकार दूर खड़ा तमाशा नहीं देख रहा

धर्मेन्द्र कंवारी

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *