कविता
बुझ गया दीपक मगर, शम्मा कई जला गया
एक शख़्श जिन्दगी का रास्ता दिखा गया॥
बाँटने वो बढ़ गया, दुख दर्द को देखा जहाँ
इन्सानियत का पाठ यूँ अवाम को पढ़ा गया।
चेतना विकसित हुए बिन, बेहतरी मुमकिन नहीं,
जिन्दगी का सच ये खास-ओ-आम को समझा गया।
शोषितों को एक जुट कर, हौंसला देता रहा,
यूँ बिगुल समाज में, बदलाव का बजा गया।
रूढ़ीवादी सोच के ढाँचों पे चोट के लिए
नित नए संघर्ष के औजार वो गढ़ता गया।
न्याय संगत नागरिक समाज अब बने यहाँ
स्वप्र हर एक आँख को ग्रेवाल तू दिखा गया।
हम को रुला-रुला गया, हम को जगा-जगा गया
एकला चला था देखो कारवां बना गया।