संस्मरण
जाने-माने शिक्षाविद प्रोफेसर भीम सिंह दहिया कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के कुलपति के पद पर रहते हुए सेवानिवृत्त हुए। इस से पहले वे महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय , रोहतक में रजिस्ट्रार और इसी विश्वविद्यालय के अँग्रेजी विभाग में प्राध्यापक के तौर पर भी कार्यरत रहे। वे प्रो. ओ.पी.ग्रेवाल के नज़दीकी मित्रों में से एक हैं और साथी प्राध्यापक एवं शिक्षाविद के रूप में उन्होंने प्रो. ग्रेवाल को बहुत नज़दीक से देखा है। वे प्रो. ग्रेवाल की याद में स्थापित किये जाने वाले संस्थान के लिए बनी समिति के अध्यक्ष हैं। प्रस्तुत है प्रो. ग्रेवाल की याद में उन का यह लेख। -सम्पादक
प्रोफेसर ओ.पी.ग्रेवाल ने अँग्रेजी की स्नातकोत्तर परीक्षा दिल्ली विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण की तथा पी.एच.डी. की उपाधि अमेरिका के रॉचेस्टर विश्वविद्यालय से हासिल की। 1959 और 1997 के बीच उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय और महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक में अँग्रेजी का अध्यापन कार्य किया। वे अँग्रेजी साहित्य के प्रतिष्ठिïत अध्यापक और समीक्षक थे। उन्होंने अपने धर्मनिरपेक्ष और वैज्ञानिक दृष्टिïकोण पर आधारित विचारों की छाप अपने साथी शिक्षकों और शोध करने वाले विद्यार्थियों पर छोड़ी। उन के प्रशंसनीय विचारों की अविस्मरणीय छाप उन के जाने के बाद भी कायम है। वे इन विचारों के प्रति जीवन भर पूरी ईमानदारी के साथ समर्पित रहे – इन विचारों में उन का विश्वास अटल था।
प्रोफेसर ग्रेवाल ने पी.एच.डी. का अपना शोध कार्य अमेरिकन उपन्यासकार हेनरी जेम्स पर किया। यह अपने आप में मील का पत्थर था। साहित्य और साहित्यिक समालोचना से सम्बन्धित उन के विचारों का यह पहला स्पष्टï वक्तव्य है। ‘हेनरी जेम्स और संस्कृति की विचारधारा’ शीर्षक वाला उन का शोध कार्य बाद में इसी नाम से किताब के रूप में भी छपा। प्रो. ग्रेवाल ने इस उल्लेखनीय शोध में उन बुनियादी सैद्घांतिक कमजोरियों को उजागर किया जो आवश्यकता से कुछ अधिक ही प्रशंसित इस उपन्यासकार की कृतियों में व्याप्त उदार मानवतावाद की विचारधारा में उन्होंने पाईं। जेम्स को सर्वोच्च सम्मान देने वाले एफ.आर.लीविस और लायनल ट्रिलिंग जैसे समालोचकों, और उपन्यासकार हेनरी जेम्स के बीच स्वाभाविक वैचारिक समानता को दर्शाते हुए प्रो. ग्रेवाल ने उदार मानवतावाद की विचारधारा में निहित बुनियादी कमजोरियों को रेखांकित किया। इन में से प्रमुख कमजोरी है जीवन यापन की मुश्किल प्रक्रिया को सौन्दर्य शास्त्रीय मूल्यांकन तक सीमित कर देना। यह दिखाते हुए कि यह विचारधारा किस तरह नैतिकता को भ्रांतिपूर्ण ढंग से मात्र सौन्दर्यशास्त्रीय मूल्य मान लेती है, प्रो. ग्रेवाल ने उदारवाद ही नहीं, आधुनिकतावाद की भी समाविष्ट समीक्षा की, जो उदारवाद-विरोधी प्रतीत होते हुए भी मूलत: उसी विचारधारा का परिवर्तित रूप था। प्रो. ग्रेवाल की समालोचना का मुख्य जोर इस बात पर था कि उदारवाद की विचारधारा ‘कुलीनों की संवेदना’ की तारीफ के तो पुल बांध देती है किन्तु अधिकतर आबादी की महत्वपूर्ण समस्याओं के प्रति पूरी तरह से संवेदनाशून्य है। कल्पना के भोग-विलास तक सीमित इस नकली और बनावटी जीवन के वृत्तान्त के सामने प्रो. ग्रेवाल का धैर्य जवाब दे जाता था। यद्यपि वह हेनरी जेम्स जैसे लेखकों के सारभूत मानवतावाद की कद्र करते थे लेकिन आम आदमी की मुश्किलों भरी जिन्दगी के प्रति इन लेखकों की उदासीनता को तुच्छ भी समझते थे।
प्रो. ग्रेवाल के लिए सब से कारगर मंच कक्षा और विचार गोष्ठियाँ थे। वे अपने वक्त के अँग्रेजी के आदर्श अध्यापकों में से थे और सेमिनारों में वाद-विवाद, विचार-विमर्श के चमकते सितारों में से एक थे। अपने चालीस साल के अध्यापन काल में और उस के बाद भी वे इन मंचों के माध्यम से अपने छात्रों और सहकर्मियों को जीवन और समाज के महत्वपूर्ण मुद्दों के प्रति संवेदनशील बनाने में सक्रिय रूप से प्रयासरत रहे। ये वही मुद्दे हैं जो महान और गम्भीर साहित्यिक कृतियों की विषयवस्तु होते हैं। हर किस्म की रूढि़वादिता और रहस्यवाद से जूझना प्रो. ग्रेवाल के लिए एक जुनून की तरह था, इन दानवों से भिड़ने के लिए वे हमेशा तैयार रहते थे। और ऐसा करते हुए वे अपने इन प्रतिद्वन्द्वियों को बहुत ही विश्वसनीय तरीके से पराजित करते थे। साहित्य के शिक्षण और समालोचना से सम्बन्धित कई बुरी प्रथाओं को उन के सिंहासन से उतारने में वे सफल रहे। इसी के चलते उन्होंने अच्छी-खासी तादाद में ऐसे शिष्य बनाए जो प्रो. ग्रेवाल की शिक्षण-लेखन की विचारधारा को अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में आगे ले जाएंगे।
एक विदेशी भाषा पढ़ाने की सीमित प्रासंगिकता को महसूस करते हुए धीरे-धीरे प्रो. ग्रेवाल ने समीक्षात्मक लेखन के लिए अँग्रेजी की बजाय हिन्दी को माध्यम के तौर पर अपना लिया। उन की यह समझदारी बिल्कुल सही निकली और जल्द ही हिन्दी साहित्य आलोचना के क्षेत्र में भी उन का िजक्र और चर्चा होने लगे। अपने विचारों के बल और दलीलों की ताकत के दम पर उन्होंने हिन्दी साहित्य के शिक्षकों और आलोचकों में अपने लिए अहम स्थान बना लिया। साहित्य शिक्षण के माध्यम से सामाजिक बदलाव के लिए कार्य करना प्रो. ग्रेवाल की शिक्षण पद्घति की एक काबिले िजक्र खूबी थी। इस के लिए हिन्दी और अँग्रेजी के साहित्य तथा साहित्यिक आलोचना के क्षेत्रों में उन्हें जो कुछ भी सार्थक और महत्वपूर्ण मिला, उन्होंने उस का प्रयोग किया। स्पष्ट सोच और सामाजिक सरोकारों का होना उन की लेखनी और शिक्षण के केन्द्र बिन्दु थे। उन के सच्चे और ठोस व्यक्तित्व के चलते जो कोई भी उन के सम्पर्क में आता, वह स्वत: ही उन के विचारों से भी जुड़ जाता।
असल में प्रो. ग्रेवाल के शिक्षण और लेखनी में सब से महत्वपूर्ण उन का उत्कृष्ट व्यक्तित्व ही था, जिस में छल-कपट या बनावटीपन लेश मात्र को भी न था। उन के व्यक्तित्व में पानी की पारदर्शिता थी और खान की गहराई : इस लिए अचम्भा नहीं कि उन के विचारों में भी जल की निर्मलता झलकती थी, और उन के मनोभाव और संवेदन में खान की गहराई। अपने व्यक्तित्व के अनुरूप उन्होंने शेक्सपियर और चार्ल्स डिकन्स, लेव टॉल्स्टाय और फ्योदोर दोस्तोयव्स्की, प्रेमचन्द और मुक्तिबोध को पढ़ा-पढ़ाया। अपने लेखन और अध्यापन के ज़रिये उन्होंने इन लेखकों की महानता को उजागर किया, खासकर इस दृष्टिकोण से कि ये लेखक जीवन के उन मूल्यों और विचारों को केन्द्र में रखते हैं जो न्याय और बराबरी पर आधारित जीवन के सपने को साकार करने की लम्बी मानव यात्रा का हिस्सा हैं। इन्सान और समाज की किस्मत को प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण मसलों के प्रति प्रो. ग्रेवाल की मज़बूत और सच्ची प्रतिबद्घता उन के शिष्यों को चुम्बक की तरह अपनी ओर खींचती थी।
प्रो. ग्रेवाल के व्यक्तित्व के प्रभाव को मैंने स्वयं महसूस किया है। मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि साहित्य शिक्षण, खास तौर से अँग्रेजी शिक्षण की शैली और लब-ओ-लहजे से सम्बन्धित क्षेत्र में उन का योगदान बहुत दिनों तक रहने वाली एक ऐसी विरासत है जो सभ्य-सुसंस्कृत समाज के निर्माण और उस के स्वस्थ विकास की प्रक्रिया को आगे ले जाने का काम करेगी। प्रो. ग्रेवाल हमारे लिए उदाहरण हैं कि कैसे शिक्षण कार्य सामाजिक सक्रियता का माध्यम बन सकता है। उन्होंने हमें रास्ता दिखाया है कि कैसे एक ईमानदार-सच्चा शिक्षक सामाजिक बदलाव के लिए सक्रिय और प्रभावशाली हो सकता है, कैसे वह विद्यार्थियों में नये विचारों का संचार कर सकता है – उन विद्यार्थियों में जो आने वाले वक्त को रूप-आकार देंगे। प्रो. ग्रेेवाल की नज़रों में सामाजिक सक्रियता और शिक्षण कार्य में कोई द्विभाजन नहीं था। बल्कि वे इन दोनों में स्वाभाविक सहज सम्बन्ध देखते थे जिसे न बनाए रखा गया तो सामाजिक सक्रियता और शिक्षण, दोनों में दरिद्रता आएगी। और ‘चलता है’ वाले नज़रिये के आज के ज़माने में प्रो. ग्रेवाल की प्रतिबद्धता तथा गम्भीरता और अधिक प्रासंगिक हो जाती है। हमें सुनिश्चित करना चाहिए कि साहित्य शिक्षण धर्म निरपेक्ष और वैज्ञानिक चेतना पैदा करने की अपनी जिम्मेदारी को निभाए। ऐसा करने की दिशा में क्या ही अच्छा हो कि प्रो. ग्रेवाल द्वारा प्रज्जवलित लौ को जलाए रखने के लिए किसी संस्थान की स्थापना की जाए।