संस्मरण
प्रो. ओम प्रकाश ग्रेवाल हरियाणा के सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य को जानने-समझने में लगातार प्रयासरत तो रहे ही, वे ऐसे रास्ते भी तलाशते रहे जिन के माध्यम से एक स्वस्थ, प्रगतिशील समाज की संरचना सम्भव हो पाए। इसी के चलते सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं की स्थापना का बड़ा कार्य हुआ जिसमें वे प्रेरक तथा पथ प्रदर्शक के तौर पर सक्रिय रहे। ऐसी कई संस्थाएं हैं जो उन की प्रेरणा के फलस्वरूप आज भी राज्य में सक्रिय हैं। हिसार कृषि विश्वविद्यालय के माइक्रोबायॉलजी विभाग से सेवानिवृत्त हुए तथा हरियाणा के ज्ञान-विज्ञान आन्दोलनों से उन के शुरूआती दौर से ही सक्रिय तौर पर जुड़े रहे प्रोफेसर सतीश कालरा ने इन संस्थाओं के सफर को तथा इन में प्रो. ग्रेवाल के योगदान को नज़दीक से देखा है। प्रस्तुत है उन का यह लेख । -सम्पादक
स्वतन्त्रता आन्दोलनों का दौर अँग्रेजों के राज से मुक्ति के अलावा व्यक्तिगत स्वातंत्र्य और समाज सुधार के लिए आवश्यक जनतांत्रिक मूल्य अर्जन का भी दौर बना लेकिन हरियाणा में यह प्रक्रिया कमजोर रही। मध्यवर्ग की अगुवाई में सम्भव, इस प्रक्रिया की मज़बूती को हरियाणा के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य मानते हुए डॉ. ओम प्रकाश ग्रेवाल ने इस वर्ग में सेक्युलरिज़म के चिन्हों को तलाशा, तराशा और उन्हें संगठित होने की राह प्रदान की। बीसवीं सदी में सत्तर का दशक अध्ययन केन्द्रों की स्थापना के रूप में उभरा। राष्ट्रवाद, दर्शन, शिक्षा, विज्ञान और आर्थिक बदहाली जैसे अनेक विषयों पर मूल ग्रन्थ पढ़े जाते थे और उन पर चर्चा की जाती थी। रोहतक, कुरुक्षेत्र, हिसार और भिवानी में अनेक संस्थाओं में अध्ययन केन्द्र स्थापित हुए। सेक्युलर मूल्यों की बुनियाद पर अस्सी के दशक में, जनतांत्रिक मूल्यों से प्रेरित विचार मंच तथा लेखक संघ स्थापित हुए। ‘जतन’ के नाम से साहित्यिक पत्रिका निकाली गयी। 1987 में प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में हरियाणा विज्ञान मंच अस्तित्व में आया। जनतांत्रिक मूल्यों के वाहकों ने नब्बे के दशक में पूर्ण साक्षरता अभियानों को स्थापित किया। शिक्षा और विज्ञान को विकास के साथ जोड़ा गया। हरियाणा ज्ञान विज्ञान समिति एवं ‘सर्च’ संस्थान भी उभर कर आए। इक्कीसवीं सदी में उद्यम निर्माण को भी गतिविधियों के दायरे में ला कर ‘जतन ‘ के रूप में स्वतन्त्र संस्थान स्थापित किया गया। इस प्रकार डॉ. ग्रेवाल की प्रेरणा से सेक्युलर मूल्यों के रूप में जिस बीज को पोषित किया गया वह आज जनतांत्रिक संगठन रूपी शाखाएं लिये विराट वृक्ष का रूप धारण कर चुका है। जनतांत्रिक मूल्यों और संगठनों के मित्र, प्रेरक एवं मार्गदर्शक के रूप में डॉ. ग्रेवाल के प्रयासों को हरियाणा के इतिहास में मील के पत्थर के रूप में याद किया जाएगा। इस से पहले कि हम हरियाणा के सामाजिक-सांस्कृतिक सन्दर्भ और उस में डॉ. ग्रेवाल के योगदान की बात करें, एक नज़र राष्ट्रीय सन्दर्भ पर डालना उचित होगा।
राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य
ए.आर. देसाई द्वारा रचित पुस्तक ”भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि’’ हमें इस सन्दर्भ के राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य को समझने में मददगार है। डॉ. देसाई के अनुसार ब्रिटिश शासन में समाज और धर्म सुधार सम्बन्धी जो आन्दोलन शुरू हुए वे भारतीय जनता की उदीयमान राष्ट्रीय चेतना और उन के बीच पश्चिम के उदारवादी विचारों के प्रसार का परिणाम थे। इन आन्दोलनों ने धीरे-धीरे नवनिर्माण का कार्यक्रम अपनाया और सारा देश इन आन्दोलनों की चपेट में आया। ”सामाजिक क्षेत्र में जाति सुधार या जाति प्रथा की समाप्ति, औरतों के लिए समानाधिकार, बाल विवाह के उन्मूलन और विधवा विवाह के समर्थन, सामाजिक और कानूनी असमानता के विरोध आदि प्रश्रों पर आन्दोलन हुए। इन आन्दोलनों ने व्यक्ति स्वातंत्र्य, सामाजिक एकता और राष्ट्रवाद के सिद्धांतों पर जोर दिया और उन के लिए संघर्ष किया।
”(ब्रिटिश भारत) में जो नया समाज विकसित हो रहा था, उस की ज़रूरतें पुराने समाज की ज़रूरतों से भिन्न थीं। उदारवादी संस्कृति में दीक्षित नए प्रबुद्घ वर्ग को विश्वास था कि नए समाज का राजनैतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक विकास व्यक्ति की उन्मुक्त अभिव्यक्ति के लिये अवसर, सामाजिक समानता आदि उदारवादी सिद्घान्तों के आधार पर ही संभव है। शुरू से ही भारतीय राष्ट्रवाद की प्रवृत्ति जनतांत्रिक थी। समाज और धर्मसुधार के आन्दोलनों ने विशेषाधिकार को समाप्त करने, ……संस्थाओं के जनतांत्रीकरण और राष्टï्रीय एकता के रास्ते में लाए गए अड़ंगों, जैसे जाति आदि अनिष्टकर संस्थाओं को सुधारने या खत्म करने के प्रयास किए। वे जाति और लिंग के परे सब को समान अधिकार दिलवाना चाहते थे।’’
ए.आर.देसाई की पुस्तक से उद्घृत इन अंशों से स्पष्ट है कि राष्ट्रीय स्तर पर कई ऐसी पहलकदमियाँ हुईं जिन्होंने बड़े पैमाने पर हमारे देश के जनमानस के मानसिक पटल पर अपना सकारात्मक प्रभाव छोड़ा। इसी के चलते देश के उन हिस्सों में जो इन आन्दोलनों से प्रभावित हुए, एक ऐसी सामाजिक-सांस्कृतिक जन चेतना उभरी जिस ने इन इलाकों के जन जीवन को भी सकारात्मक दिशा में ले जाने में अपनी भूमिका अदा की।
हरियाणा का सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य
वर्तमान हरियाणा प्रदेश के इलाके में भी राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन ने अपना प्रभाव तो निश्चित तौर पर छोड़ा लेकिन सामाजिक-सांस्कृतिक सन्दर्भ के प्रगतिशील, सकारात्मक आन्दोलन यहाँ कम ही चले। शायद इसी के चलते यहाँ एक ओर जहाँ भौतिक स्तर पर अच्छा-खासा विकास हुआ दिखाई देता है, वहीं सोच के स्तर पर विकास की प्रक्रिया धीमी दिखती है। प्रो. ओ.पी.ग्रेवाल ने इस तस्वीर को अपने लेखों में बहुत खूबी से पेश किया है। हरकारा के प्रवेशांक में छपा उन का लेख हमारा ध्यान इस तथ्य की ओर ले जाता है। प्रो. ग्रेवाल के अनुसार, ”ऊपर से आधुनिकीकरण का पर्याप्त साक्ष्य दिखाई देते हुए भी हरियाणा के समाज की संरचना में और यहां के लोगों की मूल्य व्यवस्था और मानसिकता में पिछड़े हुए और परम्परागत अवशेषों की जकड़न काफी तीखी है ……..। जाति का प्रभाव देश के अनेक दूसरे हिस्सों के मुकाबले कहीं ज्य़ादा गहरा है। यहाँ जाति संसदीय प्रजातन्त्र में केवल सीमित हितों की पूर्ति के लिये दबाव बनाने हेतु हथियार मात्र नहीं है, बल्कि लोग यहां उस के माध्यम से अपनी अस्मिता को भी परिभाषित करते हैं।’’ एक और सन्दर्भ में वे लिखते हैं : ”हरियाणा के समाज में कबीलाई सामूहिकता अब तक भी मौजूद है जिस की वजह से व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के विकास की गुंजाइश नहीं मिल पाती है। हरियाणा में जातिगत अस्मिता का प्रभाव इतना ज्य़ादा है कि धर्म या भाषा की दृष्टिï से जो अलग-अलग लोग यहाँ रहते हैं, उन को भी जातियों में देखा जा सकता है।’’
प्रो. ग्रेवाल द्वारा रेखांकित यह पक्ष हमारी आँखों के सामने है। हरियाणा में जाति के अत्याधिक प्रभाव का जीता जागता सबूत यह है कि यहाँ पर जनतांत्रिक संस्थानों की बजाए जाति आधारित संस्थान ही उभर पाए। कुछ उदाहरण:
– 1913 में जाट एंगलो संस्कृत हाई स्कूल, रोहतक की स्थापना।
– 1919 में वैश्य एजुकेशन सोसायटी, रोहतक की स्थापना।
– 1919 में गौड़ ब्राह्मण विद्या प्रचारिणी की स्थापना।
– बाद में अहीर-सैनी संस्थाओं की स्थापना।
इन संस्थाओं की स्थापना के समय निश्चित तौर पर इन का जाति आधारित होना एक हकीकत थी हालाँकि बाद में, खास तौर से आजादी के बाद, इन संस्थाओं ने काफी हद तक जाति से ऊपर उठ कर भी शिक्षा के क्षेत्र में अपना योगदान दिया। लेकिन जाति की जकड़न से हरियाणा का शिक्षित मध्यवर्ग भी पूरी तरह से मुक्त नहीं हो पाया है। इस सन्दर्भ में प्रो. ग्रेवाल का विश्लेषण सटीक लगता है। उन के अनुसार, ”आधुनिकता के साथ नवजागरण के रूप में व्यक्तिगत और सामूहिक धरातलों पर (शिक्षित मध्यम वर्ग की) जीवन दृष्टिï, मूल्यों और आशाओं एवं आकांक्षाओं में जो बदलाव आता है उस के दो पक्ष हैं:
– उदारवादी, मानवतावादी मूल्यों का उभार
– संकीर्णता तथा स्वकेन्द्रित हो कर संकीर्ण दायरे में जीवन जीने की प्रवृत्ति।
हरियाणा के शिक्षित मध्य वर्ग के अन्दर दूसरा पहलू ज्य़ादा हावी रहा है, क्योंकि स्वतन्त्रता आन्दोलन के तहत उभरे उदार और व्यापक जीवन मूल्यों का प्रभाव यहाँ बहुत कमजोर रहा है। ……. जिन गिने-चुने व्यक्तियों में आदर्शवाद की भावना ने जोर पकड़ा है, उन्हें भी इस मध्य वर्ग की संकीर्णता ने पीछे ही खींचा है। …… कठिनाइयाँ जब बढ़ती हैं तो उन में खिन्नता उत्पन्न हो जाती है और कठिनाइयों का भार ज्यों ही अधिक बढऩे लगता है, वे पूरी तरह से खिन्न हो जाते हैं। आदर्शवाद की इस तरह की कमजोरी का एक उदाहरण यह भी है कि वास्तविक रूप में कार्यरत स्वयंसेवी संस्थाएं यहां अधिक देखने को नहीं मिलतीं।’’
हरियाणा के इस सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में सेक्युलर मूल्यों एवं संगठनों की स्थापना एक चुनौती पूर्ण काम था लेकिन प्रदेश को आधुनिकता के पथ पर ले आने के लिए आवश्यक भी था। इस बात को प्रो. ग्रेवाल ने बखूबी समझा-जाना और इस चुनौती को अपने साथियों के सहयोग से स्वीकार भी किया।
जनतांत्रिक-सांस्कृतिक संगठन
1980 के दशक में प्रो. ग्रेवाल की अगुवाई में साहित्यकार, समाजशास्त्री, शिक्षाविद, वैज्ञानिक तथा अन्य जागरूक व्यक्ति इकट्ठे होते रहे। 1981-82 के दौरान रोहतक, हिसार, भिवानी, कुरुक्षेत्र आदि अनेक स्थानों पर अलग-अलग नामों से विचार मंच स्थापित हुए और इन सब की आत्मा में बसे थे, डॉ. ग्रेवाल और उन के साथी। इसी दशक में जतन पत्रिका का नियमित प्रकाशन भी शुरू हुआ। हिसार में स्थापित विचार मंच की मासिक बैठकों में लेक्चर, कविता, कहानी के पाठ, आदि के माध्यम से समकालीन विषयों पर तथा दर्शन, विज्ञान एवं शिक्षा पर नियमित चर्चा की जाती थी। सभी गतिविधियाँ समाज को बेहतर बनाने के परिप्रेक्ष्य से प्रेरित थीं। जुलाई २००४ में हिसार में आयोजित नवजागरण पर कार्यशाला में प्रो. ग्रेवाल ने इस प्रक्रिया को इन शब्दों में खोला : ”अपनी यात्रा में लोगों से सम्पर्क माध्यमों को हम ने बढ़ाया। शिक्षित मध्य वर्ग तक पहुँचने के माध्यम, जैसे लेख, पर्चे, कला और साहित्य का उपयोग किया। साहित्य ऐसा जो हमें सजग और संघर्षशील बनाए। सुलाए नहीं, जगाए। हम क्या हैं? कैसे समाज में जी रहे हैं? इस की बुनगत को समझने में मदद करे। जो भी हम कहना चाहते हैं उसे नाटक से कहें। व्यापक जनता तक पहुँचने के लिए गीतों और नाटकों को विकसित किया।
”दूसरा विकास हम ने वैज्ञानिक मानसिकता के परिप्रेक्ष्य में किया। अनुभव ऐसा हो जिसे जाँचा जा सके, दोहराया जा सके, जो क्षणिक तथा अपवाद की प्रवृत्ति वाला न हो।…… लोगों को बहकाया न जा सके। लोगों को तर्क और तथ्य का पता चले …… विज्ञान केवल भौतिक संसार को समझने का ही शस्त्र नहीं बल्कि यह बताता है कि समाज कैसे बनता है, कैसे इस का विकास हुआ।’’
ज्ञान-विज्ञान सफरनामा
प्रो. ग्रेवाल ने जिस ओर इशारा किया है, वह सांगठनिक रूप में ज्ञान-विज्ञान आन्दोलन के प्रसार-प्रचार की बात है। प्रो. ग्रेवाल और उन के साथियों ने इस बात को समझा कि सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के साथ-साथ विज्ञान का प्रचार-प्रसार भी समय की एक अहम ज़रूरत है क्यों कि वैज्ञानिक, तार्किक चेतना का विकास स्वस्थ सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य को भी बल देता है। 1987 के बाद का समय इस से सम्बन्धित गतिविधियों को स्थापित करने और बल देने में लगा। प्रो. ग्रेवाल का बौद्धिक मार्गदर्शन उन संस्थाओं की स्थापना और संचालन में लगातार रहा।
हरियाणा में ज्ञान विज्ञान आन्दोलन के सफर को हम तीन भागों में बाँट सकते हैं : विज्ञान और वैज्ञानिक सोच का प्रसार, विज्ञान से साक्षरता की ओर, साक्षरता से विकास की ओर।
विज्ञान और वैज्ञानिक सोच का प्रसार
इस मकसद से कि लोगों में विज्ञान और वैज्ञानिक सोच का प्रचार किया जाए ताकि तार्किकता से सोच-विचार-विमर्श करने की प्रक्रियाओं को भी बल मिले, हरियाणा विज्ञान मंच की स्थापना जून 1987 में की गयी। एक महत्वपूर्ण गतिविधि जिस ने विज्ञान मंच की स्थापना के लिए प्रेरक का काम किया, वह थी भारत जन विज्ञान जत्था (1987)। इस जत्थे का मकसद यह बताना था कि विज्ञान से डरो मत। विधा के तौर पर नाटक, वीडियो शो, स्लाइड शो आदि आयोजित किये गये। जत्थे की बड़ी उपलब्धि थी हिसार, रोहतक तथा कुरुक्षेत्र में विज्ञान मंच की इकाइयों का गठन। 1988 में ई. दामोदार शर्मा के उत्साह से हरियाणा साइंस बुलेटिन का प्रकाशन शुरू किया गया। पत्रिका के हर अंक में किसी एक विषय पर, भूमिका एवं संदर्भ के साथ, समग्र जानकारी प्रदान की जाती थी ताकि पाठकों को वैज्ञानिकों के काम करने के तरीके से परिचित करवाया जा सके। इस प्रकार स्वास्थ्य, पशुधन, जल संसाधन, प्राकृतिक चिकित्सा, पर्यावरण, बायोटेकनॉलजी आदि अनेक विषयों पर समग्र जानकारियाँ शामिल की गईं। पहले पाँच वर्षों में किये गए कार्य के आधार पर हरियाणा विज्ञान मंच को नैशनल काउंसिल फॉर साइंस एण्ड टैकनॉलजी कम्युनिकेशन (एन.सी.एस.टी.सी.) के द्वारा राष्ट्र की श्रेष्ठ विज्ञान प्रसार संस्था के रूप में पुरस्कृत भी किया गया। विज्ञान मंच द्वारा यह सम्मान अर्जित करने के पीछे वे गतिविधियाँ थीं जिन के माध्यम से इस संस्था ने अपने मकसद की ओर कदम बढ़ाए।
हरियाणा विज्ञान मंच ने वैज्ञानिक चेतना के प्रचार-प्रसार के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किये। लोगों की वैज्ञानिक चेतना एवं तर्क बुद्धि बढ़ाने के मकसद से चमत्कारों का पर्दाफाश विज्ञान मंच की एक मुख्य गतिविधि रही। लोगों में प्रचलित अन्धविश्वासों से लाभ उठा कर ठगी करने वाले पाखण्डी बाबा हरियाणा के गाँवों में भी मिल जाते हैं। विज्ञान मंच के कई कार्यकर्ताओं ने चमत्कारिक गतिविधियों की व्याख्या करते हुए गाँव-गाँव जा कर लोगों में यह चेतना जगाई कि चमत्कार किसी असाधारण शक्ति का परिणाम न हो कर हाथ की सफाई हैं और इन्हें आसानी से समझा जा सकता है। चमत्कारों के पर्दाफाश के अलावा विज्ञान मंच ने स्कूली बच्चों में भी कार्य किया। वैज्ञानिक विधि से बच्चे शुरू से ही परिचित हो जाएं, इस के लिए मंच बाल-विज्ञान काँग्रेस की सालाना गतिविधि का आयोजन करता आ रहा है जिस में बच्चे जिला स्तर से प्रारम्भ कर के राष्ट्रीय स्तर तक पहुँचते हैं। इसी प्रक्रिया में बाल सभाएं भी गठित हुईं।
विज्ञान से साक्षरता की ओर
विज्ञान की संभावनाओं से जनमानस का परिचय बढ़ाने के लिए ज़रूरी है कि जनमानस साक्षर हो। अत: जन विज्ञान संस्थाओं ने निरक्षरता के क्षेत्र में भी हस्तक्षेप करने का फैसला किया। भारत ज्ञान-विज्ञान जत्था 1990 का आयोजन इसी मकसद से किया गया। इन जत्थों का केन्द्र बिन्दु आम लोग थे। जिलावार जत्थों के द्वारा विज्ञान के साथ-साथ साक्षरता की माँग भी पैदा की गयी। पानीपत जिले को चुन कर पूरी शक्ति इसी जिले में झोंकी गयी। निरक्षरता के खिलाफ चला यह अभियान पूरे हरियाणा के लिए रोल-मॉडल बन गया। यहाँ से प्रशिक्षित हो कर साक्षरताकर्मी पूरे प्रदेश में फैल गये। रोहतक, भिवानी, सिरसा, जीन्द और हिसार जिलों में यह कार्य काफी जोर-शोर से चला। निरक्षरता से मुक्ति पाने के साथ ही लोग बदहाली के कारणों पर भी सोच-विचार करने लगे। इसी कड़ी में साक्षरता अभियानों को गति प्रदान करने के लिए 1955 में ‘सर्च’ राज्य संस्थान की स्थापना की गयी जो साक्षरता, उत्तर-साक्षरता तथा सतत शिक्षा के लिये शक्ति-स्रोत बना हुआ है। प्रो. ग्रेवाल ‘सर्च’ के चेयरमैन थे। इस के अलावा पानीपत के समालखा खण्ड में जीवनशाला कार्यक्रम भी चला, जिस के तहत स्कूलों से ड्रॉप आउट हुए बच्चों की शिक्षा पर कार्य आज भी जारी है।
साक्षरता से विकास की ओर
ज्ञान-विज्ञान-साक्षरता के रास्ते विकास की ओर बढऩा – इस व्यापक सोच के चलते प्रो. ग्रेवाल के वैचारिक पथ प्रदर्शन में उन के साथियों ने तय किया कि विज्ञान का आम जनता से व्यावसायिक स्तर का सम्बन्ध भी होना चाहिए। इस सोच के अन्तर्गत कुछ प्रयोग भी किये गये जिन से काफी कुछ अनुभव हासिल हुआ। सैन्टर ऑफ टेकनॉलजी एण्ड डवेलपमेन्ट की स्थापना की गयी और अखिल भारतीय कोऑर्डिनेडिट परियोजना के तहत 1991 में रोहतक में चर्म उद्योग के क्षेत्र में काम शुरू किया गया जिस में सीमित सफलता मिली। आगे चल कर हिसार में 1999 में जन तकनीकी प्रचारिणी नेटवर्क (जतन) की स्थापना की गयी जिस के तहत विज्ञान को प्रयोगशालाओं से निकाल कर जन मानस के बीच ले जाने का खाका तैयार किया गया और हिसार तहसील को 7 भागों में बाँट कर ग्राम स्तर पर काम करने की योजना बनी। जतन संस्थान के माध्यम से प्रयास है कि लोगों को स्वस्थ भोजन प्राप्त हो। इसी परिकल्पना के अन्तर्गत भारत सरकार के टैकनॉलजी मिशन के प्रोजेक्ट को स्वीकार किया गया। गाँव के युवकों ने बही-खातों को लिखना सीखा और उत्पाद की बिक्री करना भी। सन 1999 में 1 लाख की बिक्री हुई और आज यह 4 लाख का आँकड़ा छू चुकी है। खाद, दूध और औषधि-पौधों को भी जतन की गतिविधियों के दायरे में लाया जाना है। कंवारी गांव में चल रहा यह उद्यम एन.जी.ओ. के प्रशिक्षण केन्द्र का दर्जा प्राप्त कर चुका है।
बीसवीं सदी के अस्सी के दशक से अब तक के सफर को, तब और अब की स्थितियों को, प्रो. ग्रेवाल ने अपने ढंग से विश्लेषित भी किया। उन द्वारा रेखांकित की गयी बातें बेशक ध्यान देने योग्य हैं और हरियाणा के बदलते सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य पर सटीक टिप्पणी हैं। उन के अनुसार, ”अस्सी के दशक में और आज के दौर में यह फर्क है कि तब मध्य वर्ग पर जोर था। लेकिन वैश्वीकरण के बाद मध्य वर्ग अपने परिवारों में सीमित हो गए। सामाजिक जीवन में उन की भागीदारी न के बराबर रह गयी। इस लिए हम ने अपना फोकस ऐसे लोगों पर लगाया जिन की भूमिका अब तक नहीं होने दी गयी [यानी समाज के पिछड़े तबके]। इस तरह हम ने अपने आन्दोलन को नयी दिशा दी। साक्षरता आन्दोलन से भी हम ने यही सीखा । ……. अपनी समझ को हम ने ज्यादा पैना किया है। उसे छोड़ने की बजाए उसे नए ढंग से, नयी प्राथमिकताओं के साथ विकसित करने की ज़रूरत है। 20-25 साल पहले हम जहाँ खड़े थे, उस से काफी अलग और आगे के बिन्दुओं पर हम आज खड़े हैं।’’
जहाँ हम आज खड़े हैं, उस से आगे बढऩे में प्रो. ग्रेवाल की सोच, उन का चिन्तन, उस चिन्तन की दिशा और धार, उस का लब-ओ-लहजा, उस की वह समझदारी जो हमें उदार मानवतावादी सिद्धांतों को साथ ले कर चलने के लिए प्रेरित करती है, निश्चित तौर पर सहायक सिद्ध होंगे।