राजबीर पाराशर – डॉ. ग्रेवाल को याद करते हुए

संस्मरण


            प्रो. ओ.पी. ग्रेवाल ने अपने जीवनकाल में विभिन्न शिक्षण संस्थाओं में अध्यापन कार्य करते हुए बहुत से विद्यार्थियों को असाधारण ढंग से प्रभावित किया और इस प्रकार ऐसे शिष्यों की पौध तैयार हुई जो उन के सामाजिक सरोकारों को अपने-अपने ढंग से आगे बढ़ाने में प्रयासरत हैं। डा. राजबीर पाराशर ऐसे ही एक शिष्य हैं जिन्होंने प्रो. ग्रेवाल के सान्निध्य में उन से बहुत कुछ सीखते हुए  उन्हें नज़दीक से देखा। वे आर.के.एस.डी. कॉलेज, कैथल में अँग्रेजी के प्राध्यापक हैं।  प्रस्तुत है प्रो. ग्रेवाल के बारे में उन का यह संस्मरण।  -सम्पादक

            24 जनवरी, 2006 की रात को ग्यारह बजे के करीब जब कुरुक्षेत्र से फोन आया कि  प्रो. गे्रेवाल नहीं रहे, उन की बीमारी और तकलीफ, के बारे में जानते हुए भी इस सूचना का मिलना बेहद पीड़ादायक था। यह एक ऐसा आघात है जिसे हरियाणा और हिन्दी भाषी क्षेत्र के लेखकों और बुद्घिजीवियों के बड़े तबके ने महसूस किया है। हरियाणा में इस का अहसास कहीं ज्यादा है और तीखा भी, क्योंकि प्रो. ग्रेवाल हरियाणा की उस नयी आत्मछवि की झलक देते थे और उस की नुमाइंदगी करते थे जिसे अभी सही-सही पहचाना जाना बाकी है। उन के व्यक्तित्व में कई व्यक्तित्व समाहित थे – एक नवजागरणकालीन जिम्मेदार व्यक्तित्व जो निजी ऊर्जा और महत्त्वकांक्षाओं को सामाजिक ज़रूरतों के मुताबिक लगातार ढालता रहा और अपनी अन्दरूनी या वैचारिक बुनावटों के रूपान्तरण के लिए सजग प्रयास में बेहद ईमानदारी से लगा रहा। कुरुक्षेत्र के जिन लेखकों-रचनाकारों को उन का सान्निध्य मिला, वे इस बात को और भी ज्यादा तीव्रता से महसूस करते हैं। यही वजह है कि आज उन के व्यक्तित्व पर बात करना काफी दुविधाजनक है – खास तौर पर उन लोगों के लिए जिन्होंने उन्हें अनेक भूमिकाओं में, शिक्षक, लेखक, चिन्तक, संस्कृतिकर्मी और साक्षरताकर्मी, मानवीय मूल्यों से लबरेज़ एक संवदेनशील इन्सान के तौर पर बेहद नज़दीक से देखा है। एक अध्यापक के रूप में प्रो. ग्रेवाल की लोकप्रियता सीधे तौर पर उन की उस विद्वता और सारगर्भिता से जुड़ी है जो उन के व्याख्यानों में ऐसी सरलता लिए होती थी जिस के चलते एक गूढ़ विषय भी आसानी से ग्राह्यï हो जाता था। अँग्रेजी साहित्य का अध्यापन उन का पेशा  था। और इस बात को वे अक्सर कह भी देते थे कि अँग्रेजी साहित्य के पठन-पाठन से वह आत्मिक ताकत और सन्तुष्टिï नहीं मिलती जो अपने समाज के साहित्य से जुड़ कर हासिल होती है।

            प्रो. ओम प्रकाश ग्रेवाल के व्यक्तित्व का अनोखापन कई परतें लिए हुए था। वे एक बेहद गम्भीर शिक्षक थे। एक ऐसे टीचर जिन के आचार-व्यवहार से ज्ञान और संवेदनशीलता झलकती थी। क्लास रूम में उनका अध्यापन जितना सारपूर्ण होता था उस में परीक्षा की दृष्टि से उतनी ही व्यावहारिकता भी होती थी। वे विषय में रम कर पढ़ाते थे। पढ़ाते-पढ़ाते विषय में खो जाना, उस की गहराई तक विद्यार्थियों की समझ को विकसित करना – वे यह असाधारण ढंग से, सफलता के साथ करते थे। उन के पढ़ाने में जो गहनता और गहराई रही है, उस का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन के अधिकांश छात्र-प्राध्यापक उन्हें ”टीचर ऑफ टीचर्स’’ के रूप में कृतज्ञतापूर्वक याद करते हैं। मुझे 2002-2003 में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र में अँग्रेजी विभाग द्वारा आयोजित रिफ्रेशर कोर्स के आखिरी दिन यानी वैलिडिक्टरी लैक्चर के समय प्रो. ग्रेवाल एवं प्रोफेसर एस.एल. पॉल से जुड़ा वाकया याद आ रहा है। प्रो. पॉल  सेवानिवृत्ति के करीब थे। वे प्रो. ग्रेवाल का परिचय उपस्थित प्राध्यापकों से करवा रहे थे। ऐसा करते-करते वे बेहद भावुक हो गए और बीच में ही बात छोड़ कर अपनी कुर्सी पर बैठ गए लेकिन उन्होंने जो कहा वह हरियाणा के अँग्रेजी के प्राध्यापक वर्ग के एक बड़े तबके पर लागू होता है। प्रो. पॉल ने अपनी संक्षिप्त टिप्पणी में कहा था कि मैं आप का परिचय एक ऐसे व्यक्तित्व से करवा रहा हूं जिन से ”मैंने ही नहीं अन्य बहुत लोगों ने पढऩा, लिखना, बोलना सीखा है।’’ प्रो. ग्रेवाल ने प्रशंसा के इन उद्गारों को अण्डरप्ले करते हुए बड़ी सहजता से अपना भाषण शुरू कर दिया था। प्रो. पाल काफी देर तक भावुक मुद्रा में उन्हें सुनते रहे।

            आज यह सच लगता है कि हरियाणा में अँग्रेजी साहित्य के शिक्षक के रूप में प्रो. ग्रेवाल का प्रभाव इतना व्यापक, गम्भीर तथा बहुआयामी रहा है कि उस का एकदम आकलन नहीं किया जा सकता। प्रो. ग्रेवाल ने अँग्रेजी पढ़ाने की सीमाओं को अपने ऊपर कभी हावी नहीं होने दिया और उन के व्यक्तित्व का एक अहम पहलू भारतीय साहित्य से संजीदा संवाद के ज़रिये ऊर्जा पाता रहा। हालाँकि यह चर्चा अपने आप में उन के संदर्भ विशेष में कोई महत्व नहीं रखती क्योंकि उन के लिए साहित्य देश की सीमाओं में बँधी कोई चीज़ नहीं रही है। उन्होंने सभी तरह के साहित्य (हिन्दी, अँग्रेजी, उर्दू और पंजाबी) पर अध्ययन और मनन किया। हिन्दी क्षेत्र का साहित्य उन्हें अकादमिक दुनिया की सीमाओं से निजात दिलाता था। और उन्होंने हिन्दी क्षेत्र के साहित्य को महज़ अकादमिक नज़र से पढऩे और समझने की चलताऊ दृष्टिï से मुक्ति दिलाने का हर सम्भव प्रयास किया। उन का आलोचना लेखन एवं चिन्तन इस आत्मसंघर्ष का एक जीवन्त उदाहरण है।

            प्रो. ग्रेवाल एक प्रखर चिन्तक थे। लेकिन अन्दरूनी और बाहरी तौर पर वे एक विनम्र व्यक्ति थे जो कोरे ज्ञान की सीमाओं को जानते थे, और संवेदनशीलता के महत्व को भी। वे अपनी बात स्पष्टïता के साथ रखते थे। लेकिन खुद को दुरुस्त करने की बेचैनी (यहाँ दुरुस्त करने का अर्थ है चिन्तन के स्तर पर छूट गए पक्षों एवं क्षेत्रों को अपनी चिन्तन प्रक्रिया में शामिल करते रहना) उन की खूबी थी। उन्होंंने अपने चिन्तन के विस्तार के लिए जिस ज़मीन को तैयार किया, उस की स्वीकार्यता के लिए बुनियादी ज़मीन भी उन्होंने तैयार की। हरियाणा में बुद्घिजीवी तबके की सांस्कृतिक पृष्ठïभूमि में मौजूद सीमाओं को वे खूब जानते थे। ऐसी छद्म बौद्घिकता जिस में सामाजिक सरोकारों और इन्सानी संवेदना का सार न हो, उसे वे खोखली बौद्घिकता मानते थे। हरियाणा के शिक्षित मध्यम वर्ग में शासक तबकों के प्रति जो निष्ठा और अनुराग व्याप्त है, इसे प्रो. ग्रेवाल लगातार एक समस्या और चुनौती के तौर पर चिन्हित करते रहे। उन्होंने हरियाणा के नवजागरण की जिस परिकल्पना को विकसित करते हुए आत्मसात किया था, उस में दलितों और महिलाओं के नागरिक अधिकारों का सवाल केन्द्रीय रहा है। वे विचारधारा को अमूर्त और काल्पनिक नागरिकों के सन्दर्भ में न देख कर, वास्तविक जीवन में आधे-अधूरे और जटिल रास्तों में उलझे हुए समस्याग्रस्त व्यक्तियों, नागरिकों की ठोस सच्चाई के रूप में देखते और समझते थे। वे अच्छी तरह जानते थे कि मानव विकास की प्रक्रिया सीधी-सरल या एकतरफा नहीं होती बल्कि उस के उतार-चढ़ाव व्यापक यथार्थ के सांस्कृतिक पहलुओं में पड़ी जटिलताओं द्वारा संचालित होते हैं। वे मानवीय स्वतन्त्रता और गरिमा के पक्षधर थे,  लेकिन इन्हें हासिल करने के रास्ते में मौजूद चुनौतियों का उन्होंने कभी भी सरलीकरण नहीं किया।

            प्रो. ग्रेवाल नेे अनेक प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में गम्भीर साहित्य समीक्षाएं और लेख लिखे। लेकिन इन से कहीं ज्यादा ऊर्जा उन्होंने छोटी साहित्यिक गोष्ठियों में लगाई। हरियाणा में साहित्य लेखन और पठन-पाठन के व्यवहार को उन्होंने अपने बलबूते व्यापक तौर पर प्रभावित किया। सामान्य तौर पर हरियाणा के साहित्यिक माहौल में रचनाओं के समाजशास्त्रीय पक्षों को अनदेखा कर रूपवादी दृष्टि से चीजों को देखना काफी प्रचलित रहा है। प्रो. ग्रेवाल ने साहित्य के अन्दर मौजूद इस प्रवृत्ति के खतरों को लगातार उजागर किया। उन्होंने स्वयं न कभी कोई कविता लिखी और न ही कहानी या उपन्यास। लेकिन साहित्यिक गोष्ठिïयों में जितनी प्रतिबद्धता से वे शामिल होते थे और समय देते थे, उस का शायद ही समूचे हिन्दी क्षेत्र में दूसरा उदाहरण हो। नए रचनाकारों की रचनाओं पर घण्टों तक बातचीत रखते हुए, उन पर बिना कोई विचारधारा लादे वे जिस संवेदनशीलता से रचना में प्रवेश करते थे, वह हम सब के लिए अनुकरणीय है। उन्होंने साहित्य कर्म को समाज सुधार की एक बुनियादी कड़ी के तौर पर पहचाना था। उन्हें लगता था कि नए या वरिष्ठ हर रचनाकार में एक समाजसुधारक का जज़्बा होता है। इसीलिए वे रचनाकारों के साथ जिस विनम्रता, आत्मीयता और सहजता से घुल-मिल जाते थे, उस से स्वयं रचनाकारों को ताज्जुब होता था। प्रो. ग्रेवाल एक ऐसे अनोखे साहित्यकर्मी थे, साहित्य की सामाजिक अर्थपूर्णता में जिन की गहरी आस्था थी। नये और वरिष्ठï ऐसे अनेकों लेखक हैं जिन की व्यक्तिगत रचनायात्रा प्रो. ग्रेेवाल को मौखिक तौर पर याद थी। छोटी संगोष्ठियों में वे हाल में लिखी गयी कविता, गज़ल या कहानी का मूल्यांकन पिछली रचनाओं के साथ तुलनात्मक ढंग से करते थे। रचनाकारों को यह जान कर ताज्जुब होता था कि उन की रचना प्रक्रिया की जितनी सचेत समझ और याद्दाश्त प्रो. गेेवाल को थी, खुद उन्हें नहीं थी। वे किसी भी रचना पर अपने विचार व्यक्त करते हुए रचनाकार विशेष की रचना प्रक्रिया में मौजूद संभावनाओं और सीमाओं को इस ढंग से रेखांकित करते थे कि रचनाकार की आत्मछवि धीरे-धीरे बदलने लगती और वैचारिक आधारभूमि में सुप्त पड़ी गैर जनपक्षीय चीजें पहचान में आने लगतीं।

            पिछले एक दशक से हिन्दी क्षेत्र में जो सांस्कृृतिक संकट दिखाई पड़ता है, उस का असर प्रो. ग्रेवाल के चिन्तन पर भी पड़ा। आखिर के तीन-चार वर्षों में वे काफी दोहराने लगे थे। काफी लोग इसे महसूस करते थे। प्रो. ग्रेवाल स्वयं भी इस के प्रति सचेत थे। लेकिन यह भी एक तथ्य है कि उन के दोहराव के कुछ गूढ़ निहितार्थ रहे हैं। ज्यों-ज्यों इधर के पढ़े-लिखे, खाते-पीते शिक्षित मध्यमवर्ग के बारे में यह साफ हुआ कि समाज सुधार के मुदïदों में  उस की कोई गहरी रुचि नहीं है, तथा साम्प्रदायिक और जातिवादी हिंसा की भयानक घटनाओं के अमानवीय कृत्य भी इस तबके को झकझोर नहीं पाते, तो प्रो. ग्रेवाल अपने वक्तव्यों में कई मूलभूत मसलों को दोहराने लगे। वे मानवतावाद के आधारभूत सवालों से जूझते हुए श्रोताओं के समक्ष एक असहज ऐतिहासिक दौर के ऐसे प्रवक्ता दिखाई देने लगे जिन्होंने सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव की संभावनाओं और चुनौतियों को एक साथ महसूस किया था। अब उन के सामने यह साफ था कि समाज सुधार और मूलगामी परिवर्तनकारी चिन्तन के किसी भी रूप में बुनियादी तौर पर उदार मानवतावाद का सार होना ज़रूरी है। यही वजह है कि उन्होंने अपनी तमाम बातचीत को  इसी केन्द्रीय धुरी के आसपास बुनते हुए विचारहीनता और अपसंस्कृति के इस दौर में सवर्ण, मध्यम वर्ग के बीच जनतन्त्र की ज़रूरत और इस के असली हकदार तबकों को बीच बहस बनाए रखा।

            प्रो. ग्रेवाल को याद करते हुए,हरियाणा के बौद्घिक-साहित्यिक-सार्वजनिक जीवन में प्रतिबद्ध उन की भूमिका का आकलन करना और उसे आगे बढ़ाना हम सब की प्राथमिक जिम्मेदारी है।

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