सत्यवीर ‘नाहड़िया’
रेवाड़ी जिले के नाहड़ गांव में 15 फरवरी 1971 को जन्म। एम.एससी., बी.एड. की उपाधि। लोक राग नामक हरियाणवी रागनी-संग्रह प्रकाशित चंडीगढ़ से दैनिक ट्रिब्यून में ‘बोल बखत के’ नामक दैनिक-स्तंभ। हरियाणवी फिल्मों में संवाद-लेखन। रा.व.मा.व.बीकेपुर रेवाड़ी में रसायन शास्त्र के प्राध्यापक के पद पर सेवारत।
1
राज काज का हाल बिगड़ग्या, लोक लाज अर टोक नहीं
लोकतंतर म्हं तंतर हावी, जिस पै सै कोई रोक नहीं
राज-काज का हाल हुआ के, कहदूं सारी आज सुणो
नीति रही ना राजनीति म्हं, रहग्या बस इब राज सुणो
जनता मरज्या रो रो कै, ना चाल्ले इनकै खाज सुणो
घटिया राजनीति कै कारण, ना होते सीधे काज सुणो
काम हुवैं ना उनके सुणियो, जो मारैं नित धोक नहीं
राजनीति म्हं सेवक थोड़े, काम घणा सै खोटां का
रोज फळावैं लाभ अर हाणी, ध्यान रहै बस बोटां का
बड़े बड़्यां तै बात करैं, ख्याल रहै ना छोट्यां का
राजनीति इब खेल हो लिया, सुणल्यो भाई नोटां का
शोकसभा म्हं आगै पावैं, हो इननै कदे शोक नहीं
नेताजी कदे एक हुये थे, इब तै घर-घर होग्ये
माणस थोड़े, नेता ज्यादा, इब इतने लीडर होग्ये
टिकते ना वैं धरती पै भई, कीड़ी कै पर होग्ये
लीडर कम अर डीलर ज्यादा, घटिया वैं नर होग्ये
खास खास नै माळ बेचदें, बेचैं यें कदे थोक नहीं
बोटां का जब टेम आवै तो ये मिम्याते आवैंगे
एम पी एम एल ए बणते ही, बहोत घणे गुर्रावैंगे
कै तो यें भई आंख फेर लें, कै फेर आंख दिखावैंगे
टेम इलैक्सन का आवै तो, हाथ जोड़ते पावैंगे
कह नाहड़िया बात नुकीली, दिखती जिसकै नोक नहीं
2
हे जी! हे जी! बदलग्यी ब्याह की इब वैं रीत
चट मंगनी अर पट ब्याह हो इब, पल म्हं हुवैं नचीत
रोकणे का रंग-ढंग बदल्या, टिक्का अर सगाई बदल्ये
बाह्मणी अर नाय्ण बदल्यी, बाह्मण-तेली-नाई बदल्ये
भात का वो रूप बदल्या, भाण बदल्यी भाई बदल्ये
चौक पूरणा, बान बदल्या, गांठ हळदी सात बदल्यी
मांडा अर वो पाट्टा बदल्या, मूस्सळ की हालात बदल्यी
सतलगी, आरता, तोरण अर बारात बदल्यी
ईब सीठणे नहीं रहे वै, बदल गये सब गीत
खोडिय़ा इब रह्या नहीं, देहळी पूजन मान बदल्या
जयमाळा का रूप बदल्या, खान अर पान बदल्या
थापा बदल्या, नेग बदल्ये, समधी का सम्मान बदल्या
टूम बदल्यी, तीळ बदल्यी, कंगना संटी माई बदल्यी
बहू का वो आदर मान, बहू की नपाई बदल्यी
बंदड़ा-बंदड़ी के वै गीत, संग म्ह मुंह दिखाई बदल्यी
बड़े-बड़ेरे याद करैं इब, दिन लिए वै बीत
ब्याह-शादी म्हं भरता हो, इसा घाव रह्या ना
ठेक्के पै हों काम सारे, परेम-चाव रह्या ना
पैइसे का सै बोलबाला, आदर-भाव रह्या ना
भाईचारा रूस्या बैठ्या, उसकै धोरै गाळी पावैं
साळा बणर्या मोरधी, उसकै धोरै ताळी पावैं
भुआ-भाण पाच्छै छोड्यी, सबतै आग्गै साळी पावैं
कह ‘नाहड़िया’ बात पते की, नहीं रह्ये वै मीत
3
दारू पीकै गाळ बकै वो, कुछ ना उसतै कह
सुख तै जीणा चाहवै सै तो भोंदू बणकै रह
सीध-साधा चाल्या कर तू, मत चक्कर म्हं पडिय़े
ताक पै धरदे स्याणापण तू, अपणी बुद्धि हडिय़े
ना मानै तो अजमा ले अर पग-पग सबतै लडिय़े
टेम जा लिया आज कहण का, मत झंझट म्हं बडिय़े
किसै तै तू मत ना अडिय़े, जोर-जुल्म ले सह
लोक सुधारण का तू मत ले, कोई ठेक्का भाई
मत बण राममोहन राय तू, मिलज्यां घणी बुराई
नुगरे माणस आंख बदलज्यां, दुनिया कहती आई
एक चुप के सौ सुख हों सैं, चुप म्हं घणी भलाई
सुणिये काकी-सुणिये ताई, तू बहू कहे म्हं बह
काम कराल्ये ले-दे कै तू, मत कानून पढ़ावै
घणा नियम पै मत चाल्लै तू, ना तै फेर पछतावै
मेज तळै या ऊपर कै, कोई तपै भेंट चढ़ावै
हाथ जोड़ चुचकार ले उसनै, लिछमी मत ठुकरावै
धरी-धरायी रह जावै, मत लाम्बी-चौड़ी कह
क्यूं बिरचै अंगरेज घणा तू, कह थोट की भाषा
ना समझै चौळे की भाषा, ना हे कोट की भाषा
आज की दुनियां समझै सै सुण, के तो सोट की भाषा
या फेर समझै आच्छी तरियां, लीले नोट की भाषा
कह नाहड़िया ओट की भाषा नहीं रह्या इब भय
4
पौन बदलगी, म्हारे गाम की, रंगत बदली सारी
पहळम आळे गाम रहे ना, बात सुणो या म्हारी
एक बखत था, गाम नै माणस, राम बताया करते
आपस म्हं था मेळजोळ, सुख-दुख बतळाया करते
माड़ी करता कार कोई तो, सब धमकाया करते
ब्याह-ठीच्चे अर खेत-क्यार म्हं, हाथ बटाया करते
इब बैरी होग्ये भाई-भाई, रोवै न्यूं महतारी
ऊं च-नीच की सोच्या करते, आदर-मान हुवै था
भीड़ पड़ी म्हं गाम जुटै था, सबका ध्यान हुवै था
न्याय करै था पंच-मोरधी, वो भगवान हुवै था
पढ़े-लिखे थे थोड़े वै पर, पूरा ग्यान हुवै था
पढ़-लिख कै बेकार हो लिये, इब तै सब नर-नारी
इब बदल्या ढंगढाळ सुणो यो, हाल सुणाऊं सारा
खूड-खूड पै कटकै मरज्यां, घर-घर योहे नजारा
टुच्ची राजनीति तै इब गामां का बैठ्या ढ़ारा
काण रही ना आज बड़्यां की, सबका चढऱ्या पारा
काम साझले भूल गये इब, इकलखोरी की बारी
रीत गयी अर परीत गयी, के गाम के हाल सुणाऊं
तीज गयी त्योहार गये इब, के नाचूं के गाऊं
गुण्डे माणस राज करैं इब, क्यूंकर सीस नवाऊं
लोकलाज के हुए चीथड़े, कुणसा गाम दिखाऊं
कह ‘नाहड़िया’, हाल गाम का, हुया बुरा घणा भारी
5
टेम गया वो नेम गया, इब बात बिगड़ग्यी सारी
मिशन कदे थी, धंधा होग्यी, इब तै पत्तरकारी
नारदजी नै हम सब जाणै, थे वे पत्तरकार सुणो
तीन लोक अर नौ खंड कै म्हां, करते थे परचार सुणो
जनहित की वै सोच्या करते, लोकहित ब्योहार सुणो
कदम-कदम पै जिंदा थे भई, सामाजिक सरोकार सुणो
मापी ना कदे हार सुणो, अर समझी जिम्मेदारी
बखत गुलामी का था वो, भई कितनी इज्जत पाई
देस अजाद करावण खात्तर, कलम तै अलख जगाई
नहीं झुके अर नहीं डरे वै, देसभगत थे भाई
बालमुकन्द से हुये कलमची, तगड़ी कलम चलाई
करजन कै फटकार थी लाई, गोरी तोप थी हारी
अखबारां म्हं होड़ माचरी, नंगे बदन दिखावण की
विज्ञापन की मारामारी, सबनै नोट कमावण की
टीवी की तो कहाणी होग्यी, घर-घर जहर फैलावण की
भूतपरेत अर तंतर-मंतर, खबरें इसी बणावण की
बात नहीं जो बतावण की, दिखा रहे वो न्यारी
खबर देख यें आजकाल की, जिनपै लागै सट्टा
पत्तरकार का जीवट हो सै, सबतै हट्टा-कट्टा
नीचे तै भई ऊपर तक ये, हुये एकसे कठ्ठा
संपादक बण बैठे मालिक, बठार्हे जो भठ्ठा
कह ‘नाहड़िया’ ये सै चट्टा, थैली आज बतारी
6
दिखती कोन्या वा होळी ना पहलम आळे ढंग सुणो
होळी तो ईब हो ली लोगो बचर्या सै हुडदंग सुणो
टेम पुराणा याद करो, होळी गाया करते
ढोल नगाड़े खूब बजाकै रंग जमाया करते
डांडा गड़ते ऊंची होळी बहोत बणाया करते
बीर मरद अर मरद बीर के सांग रचाया करते
घणे प्यार तै लाया करते आपस म्हं फेर रंग सुणो
देख देख कै रंग ढंग सारे हारूं होळी म्ह
कुरे किसनै छोड्डूं किसनै मारूं होळी म्हं
चीज भतेरी इब आग्यी बाजार होळी म्हं
धुत्त कई सुण होर्ये पी कै दारै होळी म्ह
के हाल संवारूं होळी म्हं गोबर गार्या की जंग सुणो
महीना पहलम ढाळ बिड़कले रोज बणाया करती
रात चांदनी चौक बगड़ म्हं होळी गाया करती
बूढ़ी ठेरी नाच नाच कड़ तोड़ बगाया करती
ओढ़ पीळीया सज कै होळी पूजण जाया करती
देवर नै वा नुहाया करती करकै भाभी तंग सुणो
छोड़ आपणे रीत गीत पच्छवा अपनावण लाग्ये
पी कै होर्ये धुत्त घणे वैं गाळ सुणावण लाग्ये
भुंडे भुंडे फिल्मी गाणे ईब बजावण लाग्ये
रंग की जागहां तेल पेंट अर गार्या लावण लाग्ये
कह नाहड़िया मिटावण लाग्ये भाईचारा संग सुणो
7
दब्या करज म्ह अन्नदाता इब किस्त जावै ना पाड़ी
घाटे का यो सौदा होग्या इब खेती अर बाड़ी
बखत पुराणा नहीं रह्या इब हाल बदलग्या सारा
टेम गया वो नेम गया वो बदलग्या ईब नजारा
धरती थोड़ी माणस ज्यादा क्यूकर हुवै गुजारा
रही सही जो कतर बची तो मंहगाई नै मार्या
अन्नदाता का बैठ्या ढारा काया हुई उघाड़ी
जमींदार की किस्मत माड़ी ना चलै तीर अर तुक्का
कदे लूट ले बाढ़ रै भाई कदे मारज्या सुक्का
उसकी कोई सुणता कोन्या बहोत दे दिया रुक्का
अन्नदाता कहलावै सै पर खुद बैठ्या सै भुक्खा
गंडा सै यो सबनै चुक्खा ना कोई उसका वाड़ी
माट्टी के संग माट्टी होज्या जिब हों सै दो दाणे
भात अर छूछक वाणे टेले सारे फरज निभाणे
नाज बेचकै काम हुवै सब टाबर टीकर ब्याहणे
कबै कोठड़ी पडै़ बणाणी बाळक साथ पढ़ाणे
खेतां कै म्हां आज्या ठाणे वै साहूकार अनाड़ी
मंहगे होग्ये खाद बीज इब मंहगी खेती क्यारी
खेतां म्हं होटल उग्गैं इब तंगी बढ़ती जारी
कुछ नै बेची धरती अपणी अर कुछ कर्रे सैं त्यारी
पड़ै मुराड़ बीजळी पै किते होर्या पाणी खारी
कह नाहड़िया साच्ची सारी रहणे लगे रिवाड़ी
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, हरियाणवी लोकधारा – प्रतिनिधि रागनियां, आधार प्रकाशन, पंचकुला, पेज -262 से 269