ग़ज़ल
जब य’ मालूम है बस्ती की हवा ठीक नहीं
फिर अभी इसको बदल लेने में क्या ठीक नहीं
मेरे अहबाब की आंखो में चमक दौड़ गई
हंस के जब मैंने कहा हाल मेरा ठीक नहीं
दिल का होना ही बड़ी बात है कैसा भी हो
मैं नहीं मानता यह टूटा हुआ ठीक नहीं
अपनी आंखों से जो हालात की देखी तस्वीर
एक भी रंग य’ मालूम हुआ ठीक नहीं
ज़हर मिल जाए दवा में तो जायज़ है यहां
हां मगर ज़हर में मिल जाए दवा ठीक नहीं
उसकी फ़ितरत ही सही चीख़ना-चिल्लाना मगर
मैं समझता हूं नगर में वो बला ठीक नहीं
ख़ुद ही डसवाता था इक सांप से लोगों को वो
ख़ुद ही कहता था कि ये खेल ज़रा ठीक नहीं
खैंच लेते हैं ज़बां पहले ही मुंसिफ़ ‘आबिद’
कहने-सुनने की अदालत में वबा ठीक नहीं
अहबाब : दोस्तों, फ़ितरत : स्वभाव, मुंसिफ़ : न्यायकर्ता, वबा : महामारी