सीने में आग भी है, नज़र में हवा भी है- आबिद आलमी

ग़ज़ल

सीने में आग भी है, नज़र में हवा भी है
फिर रेज़ा-रेज़ा मरने से कुछ फ़ायदा भी है

दरिया की बात करता है लेकिन य’ पूछ लो
लहरों के साथ-साथ कभी वो बहा भी है

मंदिर उजड़ गया तो पुजारी बिखर गए
कहते थे बच निकलने का ये रास्ता भी है

मक़्तल में बैठे हमें रात हो गई
जल्लाद! इस क़तार का कोई सिरा भी है

मुंसिफ़ ने कह दिया कि यहीं खैंच लो ज़ुबां
मैं कहता गया कि सुनो कुछ कहा भी है

‘आबिद’ को संगसार करेंगे मचा है शोर
फिर उसके बुत लगाएंगे ऐसी हवा भी है

रेज़ा-रेज़ा : थोड़ा-थोड़ा, मक़्तल : वधस्थल, क़त्लगाह, मुंसिफ : न्यायकर्ता, इन्साफ करने वाला, संगसार : पत्थर मार-मारा कर काम तमाम करना

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आबिद आलमी

परिचय
आबिद आलमी का पूरा नाम रामनाथ चसवाल था। वो आबिद आलमी नाम से शायरी करते थे। उनका जन्म गांव ददवाल, तहसील गुजरखान, जिला रावलपिंडी पंजाब (पाकिस्तान) में हुआ। उन्होंने अंग्रेजी भाषा साहित्य से एम.ए. किया। वो अंग्रेजी के प्राध्यापक थे और उर्दू में शायरी करते थे। उन्होंने हरियाणा के भिवानी, महेंद्रगढ़, रोहतक, गुडग़ांव आदि राजकीय महाविद्यालयों में अध्यापन किया। वो हरियाणा जनवादी सांस्कृतिक मंच के संस्थापक पदाधिकारी थे।

उनकी प्रकाशित पुस्तकें दायरा 1971, नए जाविए 1990 तथा हर्फे आख़िर (अप्रकाशित)

आबिद आलमी की शायरी की कुल्लियात (रचनावली) के प्रकाशन में प्रदीप कासनी के अदबी काम को नकारा नहीं जा सकता। उन्होंने आबिद की तीसरी किताब हर्फ़े आख़िर की बिखरी हुई ग़ज़लों और नज़्मों को इकट्ठा किया। ‘अल्फ़ाज़’ शीर्षक से रचनावली 1997 और दूसरा संस्करण 2017 में प्रकाशित।

आबिद आलमी जीवन के आख़िरी सालों में बहुत बीमार रहे। बीमारी के दौरान भी उन्होंने बहुत सारी ग़ज़लें लिखीं।

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