ग़ज़ल
गर बदल सकता है औरों की तरह चेहरा बदल ले
वरऩा इस बहरूपियों के शहर से फ़ौरन निकल ले
हां बहुत नज़दीक है अब इब्तिदा शब के सफ़र की
फिर भी क्या जल्दी है यारो शाम का सूरज तो ढल ले
इतनी मामूली ख़ता की इस क़दर भारी सज़ा ��र
अब भी इक पल सोच यानी अब भी इक पल हाथ मल ले
दर्द पर दुनिया का हक़ है, सौंप दूंगा इस को लेकिन
इस में क्या है मेरे दिल में गर ये दो दिन और पल ले
देखने की चीज़ होगी मेरी कश्ती की रवानी
बर्फ़ ऊंची चोटियों पर और थोड़ी सी पिघल ले
इस से आख़िर मेरा रिश्ता जानता हूं कैसा होगा
छल रही है मुझ को दुनिया, और इक-दो रोज़ छल ले
तुम को वादी में कोई बुतसाज़ मिल जाए, है मुमकिन
चोटी पर पत्थर का पत्थर ही न रह जाए, फिसल ले
इब्तिदा : शुरूआत, शब : रात, बुतसाज़ : मूर्तिकार