ग़ज़ल
ठहरी हुई है रात, अंधेरा है हर तरफ़
टिकते नहीं हैं पाओं कि रस्ता है हर तरफ़
इक ज़हर बस गया है हवा में गली-गली
इक सांप कब से शहर में फिरता है हर तरफ़
बैठा है किस ख़याल से घर में भरे य रात
घर से निकल के देख, सवेरा है हर तरफ़
देखें तो इतने चेहरे कि जिन का नहीं शुमार
पहचान लें तो एक ही चेहरा है हर तरफ़
सोचा है जब से इक नयी दुनिया बसाएंगे
बादल सा इक ग़ुबार का छाया है हर तरफ़
‘आबिद’ ने क्या सफ़र का ऐलान कर दिया
राहों में इंतिशार सा छाया है हर तरफ़
शुमार : हिसाब, गिनती, ग़ुबार : धूल-मिट्टी, इंतिशार : बिखरना, दुर्दशा