ग़ज़ल
नज़र की हद से परे अपना हर क़दम निकला
वो आसमान हमारे सफ़र को कम निकला
न पूछ कैसे मिली मेरे चाराग़र को निज़ात
न पूछ कितने तरद्दुद से मेरा दम निकला
अब अपने वास्ते आलम नये तलाश करूं
मेरी बसात को य’ इक जहां तो कम निकला
पड़ा था ताक़ पे तो लग रहा था जामे सफ़ाल
हमारे हाथ में आया तो जामे जम निकला
यूं ही बनाते रहे हम हज़ारों मनसूब
ये ज़िंदगी का सफ़र तो बहुत ही कम निकला
हर इक लम्हे से ‘आबिद’ ने खींचा ग़म लेकिन
हर एक लम्हा ये कहता रहा कि कम निकला