ग़ज़ल
वो जो हर राह के हर मोड़ पे मिल जाता है,
अब के पूछेंगे कि इस शख़्स का क़िस्सा क्या है।
मैं वो पत्थर हूँ नहीं जिसको मिला संगतराश,
मैंने हर शक्ल को अपने में समो रखा है।
यूं ही चुपचाप भला बैठे रहोगे कब तक,
कोई दरवाज़ा भला यूं भी खुला करता है।
जब भी गिरती है कूचे में कोई दीवार,
मुझ को लगता है कोई शख़्स बहुत रोता है।
पाँव चलते हैं यहाँ जिस्म भी चला जाएगा,
तुमने क्या सोच के सहरा में कदम रखा है।
टूटते-बनते ही ये उम्र गुज़र जायेगी,
मेरी हर शक्ल में इक नक़्श उभर आता है।
हमने हर दौर के सीने में ही खोंपे ख़ंजर,
और हर दौर के सीने से लहू टपका है।
तुमने पूछा है कि तुम क्या हो, कौन हो?
ये तो बतलाओ कि इस सोच में क्या रखा है।
दश्त के पेड़ों से क्या पूछ रहे हो ‘आबिद’,
भूल जाओ कि तुम्हें कोई सदा देता है।