वो जो हर राह के हर मोड़ पे मिल जाता है- आबिद आलमी

ग़ज़ल

वो जो हर राह के हर मोड़ पे मिल जाता है,
अब के पूछेंगे कि इस शख़्स का क़िस्सा क्या है।

मैं वो पत्थर हूँ नहीं जिसको मिला संगतराश,
मैंने हर शक्ल को अपने में समो रखा है।

यूं ही चुपचाप भला बैठे रहोगे कब तक,
कोई दरवाज़ा भला यूं भी खुला करता है।

जब भी गिरती है कूचे में कोई दीवार,
मुझ को लगता है कोई शख़्स बहुत रोता है।

पाँव चलते हैं यहाँ जिस्म भी चला जाएगा,
तुमने क्या सोच के सहरा में कदम रखा है।

टूटते-बनते ही ये उम्र गुज़र जायेगी,
मेरी हर शक्ल में इक नक़्श उभर आता है।

हमने हर दौर के सीने में ही खोंपे ख़ंजर,
और हर दौर के सीने से लहू टपका है।

तुमने पूछा है कि तुम क्या हो, कौन हो?
ये तो बतलाओ कि इस सोच में क्या रखा है।

दश्त के पेड़ों से क्या पूछ रहे हो ‘आबिद’,
भूल जाओ कि तुम्हें कोई सदा देता है।

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आबिद आलमी

परिचय
आबिद आलमी का पूरा नाम रामनाथ चसवाल था। वो आबिद आलमी नाम से शायरी करते थे। उनका जन्म गांव ददवाल, तहसील गुजरखान, जिला रावलपिंडी पंजाब (पाकिस्तान) में हुआ। उन्होंने अंग्रेजी भाषा साहित्य से एम.ए. किया। वो अंग्रेजी के प्राध्यापक थे और उर्दू में शायरी करते थे। उन्होंने हरियाणा के भिवानी, महेंद्रगढ़, रोहतक, गुडग़ांव आदि राजकीय महाविद्यालयों में अध्यापन किया। वो हरियाणा जनवादी सांस्कृतिक मंच के संस्थापक पदाधिकारी थे।

उनकी प्रकाशित पुस्तकें दायरा 1971, नए जाविए 1990 तथा हर्फे आख़िर (अप्रकाशित)

आबिद आलमी की शायरी की कुल्लियात (रचनावली) के प्रकाशन में प्रदीप कासनी के अदबी काम को नकारा नहीं जा सकता। उन्होंने आबिद की तीसरी किताब हर्फ़े आख़िर की बिखरी हुई ग़ज़लों और नज़्मों को इकट्ठा किया। ‘अल्फ़ाज़’ शीर्षक से रचनावली 1997 और दूसरा संस्करण 2017 में प्रकाशित।

आबिद आलमी जीवन के आख़िरी सालों में बहुत बीमार रहे। बीमारी के दौरान भी उन्होंने बहुत सारी ग़ज़लें लिखीं।

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