ग़ज़ल
किसी मुक़ाम पे हम को रोकता कोई।
मगर उड़ाये लिए जाती है हवा कोई॥
तमाम उम्र न मुझको मिला वजूद मिरा,
तमाम उम्र मुझे सोचता रहा कोई ॥
मुझे समेट लो या फिर उड़ा के ले जाओ।
ये कह के रहे तलब में बिखर गया कोई॥
यू ही सदाएँ न दो ख़ामुशी के सहरा में,
हवा चलेगी तो आ जाएगी सदा कोई॥
किसी को अपनी निगाहों पे ऐतबार न था,
हमें हमारी तरह कैसे देखता रहा कोई ॥
हज़ार संग हैं राहों में अब भी सोये हुए,
ये और बात है हम को जगा गया कोई ॥
बदन के दश्त को जिससे पार कर लेते,
कहीं मिला न हमें ऐसा रास्ता कोई ॥
याँ बन्द कमरे में ख़ामोश रो तो सकता हूँ,
मेरे बदन में अगर घुट के मर गया कोई॥