ग़ज़ल
मुझको जब ग़ौर से तकते हैं ज़माने वाले।
हों न हों लगते हैं तस्वीर बनाने वाले॥
वक़्त रख देगा तेरी पीठ पे शब का पहाड़।
बोझ चुपचाप अँधेरे का उठाने वाले॥
याद रखूंगा तुझे एक हक़ीक़त की तरह,
एक किस्से की तरह मुझको भुलाने वाले।।
रात की ओट लिए रोते हैं तन्हा-तन्हा,
दिन के जलवों में हज़ारों को हंसाने वाले॥
छुपती फिरती है यूं ही राह धुंधलकों में क्यों।
हम नहीं बीच में यूं लौट के जाने वाले
वो कोई और हैं जो देते हैं शब का पैग़ाम।
हम तो हैं सज़ा का ऐलान सुनाने वाले॥
मुद्दआ तेरा कुछ औरों से जुदा लगता है।
दास्ताँ एक ही हर बार सुनाने वाले॥
याँ से उतरेंगे, तो हम होंगे सहर के रथ पर।
हमको आई रात की सूली पे चढ़ाने वाले॥
हमने सदियों का सफ़र लम्हों में काटा ‘आबिद’।
जानें क्यों मोड़ पे अटके हैं ज़माने वाले॥