जो ख़लाओं में देखता कुछ है– आबिद आलमी

जो ख़लाओं में देखता कुछ है।
उसको आईने से गिला कुछ है॥
भागे जाते हैं लोग जंगल को,
शहर में आज फिर हुआ कुछ है।
यूँ बग़ल में दबाए फिरते हो क्या,
आग, तूफ़ान, ज़लज़ला कुछ है।
यूँ ही ख़ामोश तो नहीं ये लोग,
सोच लो, इनका मुद्दआ कुछ है।
घर में कुछ हैं इरादे यारों के,
और बाज़ार में हवा कुछ है।
इसको भी शामिले-सफ़र कर लो,
राह में ये पहाड़-सा कुछ है।
हर तरफ़ आग, हर तरफ़ आँधी,
अब बिफरने से फ़ायदा कुछ है।
जब भी कहता हूँ कुछ नहीं घर में,
कोई देता है ये सदा कुछ है।
ऐसे आईने का भी कोई इलाज,
कुछ दिखता हूँ देखता कुछ है।
वो कहीं अपना ही सफ़ीना न हो,
वो जो लहरों पे धुँधला-सा कुछ है।
इक तो कोई सदा-सी है ‘आबिद’
और मलबे में जाने क्या कुछ है।

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