ख़ला से भी कभी उभरा है ज़िन्दग़ी का वजूद – आबिद आलमी

ख़ला से भी कभी उभरा है ज़िन्दग़ी का वजूद
तेरी निगाह कहाँ टकराई है दीवाने!
तेरे दिमाग़, तेरे ज़हन पर मसलत है
हसीन उम्रगेज़ सत्ता के चन्द अफ़साने
हवा का झौंक था, टकराया दर से लौट गया।
हवा का झोंक था, एक चीख़ कर के लौट गया।।
वो रहगुज़र जहाँ गर्द उठती फिरती है,
पड़ा हुआ है बगूलों में दिन जहाँ कब से,
वहाँ तुझे ये ग़ुमाँ है कि कोई आया है,
ये सिर्फ़ तेरा तसव्वुर है आस के मारे।
बगूले फिरते हैं हर रोज़ यूं ही आवारा,
जिसे गुज़रना था, कब का गुज़र गया होगा।
वो जिसके नक़्शे-कदम छू रहे हैं तेरी नज़र,
वो जाने वाला बहुत दूर जा चुका होगा।
वो जाने वाला बहुत दूर जा चुका होगा।।

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आबिद आलमी

परिचय
आबिद आलमी का पूरा नाम रामनाथ चसवाल था। वो आबिद आलमी नाम से शायरी करते थे। उनका जन्म गांव ददवाल, तहसील गुजरखान, जिला रावलपिंडी पंजाब (पाकिस्तान) में हुआ। उन्होंने अंग्रेजी भाषा साहित्य से एम.ए. किया। वो अंग्रेजी के प्राध्यापक थे और उर्दू में शायरी करते थे। उन्होंने हरियाणा के भिवानी, महेंद्रगढ़, रोहतक, गुडग़ांव आदि राजकीय महाविद्यालयों में अध्यापन किया। वो हरियाणा जनवादी सांस्कृतिक मंच के संस्थापक पदाधिकारी थे।

उनकी प्रकाशित पुस्तकें दायरा 1971, नए जाविए 1990 तथा हर्फे आख़िर (अप्रकाशित)

आबिद आलमी की शायरी की कुल्लियात (रचनावली) के प्रकाशन में प्रदीप कासनी के अदबी काम को नकारा नहीं जा सकता। उन्होंने आबिद की तीसरी किताब हर्फ़े आख़िर की बिखरी हुई ग़ज़लों और नज़्मों को इकट्ठा किया। ‘अल्फ़ाज़’ शीर्षक से रचनावली 1997 और दूसरा संस्करण 2017 में प्रकाशित।

आबिद आलमी जीवन के आख़िरी सालों में बहुत बीमार रहे। बीमारी के दौरान भी उन्होंने बहुत सारी ग़ज़लें लिखीं।

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