रात का दश्त है जलता है तो जल जाने दो- आबिद आलमी

रात का दश्त है जलता है तो जल जाने दो
यूँ भी यह राह से टलता है तो टल जाने दो

ऐन मुमकिन है कि मिल जाए कोई संगतराश
उन पहाड़ों से मुझे थोड़ा फिसल जाने दो

और कुछ देर ज़रा ज़ख्मों को ढांपे रक्खो
यह हवा अच्छी नहीं इस को निकल जाने दो

यह सदाओं का कड़ा बोझ लरज़ता है अभी
बात करता हूँ, ज़रा मुझ को संभल जाने दो

अपने किस काम का, ए यारो, ये ठंडा सूरज
रात गर इसको निगलती है, निगल जाने दो

जान पहचान तो ख़ुद सुबह से हो जाती है,
रात बाक़ी है अभी, इसको तो ढल जाने दो

अब के दरयाओं ने सहरा पे लगाई है नज़र
और कुछ बर्फ़ पहाड़ों पर पिघल जाने दो

राज़ की बात भी कर लेंगे, कि जल्दी क्या है
पहले ‘आबिद’ को तो महफ़िल से निकल जाने दो

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