बस्ती के हर कोने से जब लोग उन्हें ललकारेंगे
आवाज़ों के घेरे में वो कैसे वक्त गुज़ारेंगे।
आख़िर कब तक उसके घर के आगे हाथ पसारेंगे,
इक दिन लोग इन्हीं हाथों से छत से उसे उतारेंगे।
सब कुछ लुटा बैठे हैं हम, बाकी है अब काम यही,
यानी अब रहजन के सिर से अपना माल उतारेंगे।
जिन क़दमों को हर सूरत मंज़िल तक बढ़ाते जाना है;
उनकी ख़ातिर बहरो बियाबाँ मिलकर राह संवारेंगे।
कोई समंदर से कह दे अब पूरे जोबन पर आ जाए
तूफ़ानों के मतवाले इसमें किश्ती आज उतारेंगे।
आज समंदर की गहराई ‘आबिद’ तनहा नापे चल,
कल मौजों के घोड़े तुझ को अपने साथ उभारेंगे।