ये मैंने माना कुछ उसने कहा है, लेकिन क्या !
हमारा हाल सब उसको पता है, लेकिन क्या!
मेरी सलीब तो रखवा दो मेरे कन्धों पर,
कतार लम्बी है, वक्फ़ा बड़ा है, लेकिन क्या!
रही न पाँवों में जुम्बिश, न आँखों में उम्मीद,
हमारे सामने रस्ता पड़ा है, लेकिन क्या।
हर एक शख़्स, मुक़्क़मिल मकान की मानिंद,
नगर में कुछ तो यक़ीनन हुआ है, लेकिन क्या!
कोई बताओ, कहाँ दूसरा कदम रखूँ ,
दयारे जीस्त बहुत ही बड़ा है, लेकिन क्या।
उठा के ले गयी ‘आबिद’ को मौजें साहिल से,
कोई सफ़ीना उसे ढूँढता है, लेकिन क्या ।