हरियाणा के लोगों को एक बात का अहसास तो हो चुका है कि मीडिया द्वारा दिखाये जाने के बाद उनकी छवि को बट्टा लग चुका है। अधिकांश हरियाणवी इस दर्द को भलीभांति अनुभव कर रहे हैं कि किस प्रकार पूरा देश उनको लानत दे रहे हैं। इस दर्द की अभिव्यक्ति दो प्रकार से होती है। पहली, खाप पंचायतों में अब जब भी मीडियावाले पहुंचते हैं तो एक तबका उन पर अपना गुस्सा उतारता है। मीडिया से बात करने से मना कर देता है। दूसरा जब पत्रकार कुछ भी पूछते हैं तो वे बचाव की मुद्रा में होते हैं और कहते हैं कि हरियाणा में ऐसा कुछ नहीं है। एक-दो घटनाओं को छोड़ दें तो बाकी सब ठीक-ठाक है
मीडिया किस प्रकार अपने पाठकों और दर्शकों के मन में छवियों का संसार निर्मित करता है और किसी की इमेज़ रातों-रात बदलकर रख देता है इसका बढ़िया उदाहरण हरियाणा के बारे में मीडिया कवरेज को देखकर मिलता है। कुछ साल पहले तक पूरा देश हरियाणा को ऐसे खाते-पीते और संपन्न राज्य के रूप में जानता था जहां प्रति व्यक्ति आय देश में सबसे अधिक है। हरा भरा हरियाणा, जहां दूध-दही का खाणा। चमचमाती सड़कें, चारों तरफ हरियाली और शहरों जैसे गांव। लेकिन एकाएक इस आधुनिक छवि को ग्रहण लग गया मानो। मीडिया की निगाह में अब हरियाणा गंवार-जाहिल लोगों, आदिम युग के फैसले सुनाती पंचायतों और उनमें बैठे खंडवाधारी बूढ़ों का राज्य बन गया। सारी आधुनिकता छू मंतर हो गयी और मिर्चपुर में दलितों की बस्तियों के विजुअल दर्शकों में वहशी खौफ पैदा करने लगे। जातीय नफरत की शिकार लाचार लोगों की बाइटों ने हरियाणा की आधुनिक छवि को नकली साबित कर दिया। दरअसल हरियाणवी समाज की सचाई दोनों ही हैं। एक तरफ आर्थिक संपन्नता के हैरान करने वाले अंबार तो दूसरी तरफ सांस्कृतिक विपन्नता के परेशान करने वाले व्यवहार। मीडिया जब भी किसी एक हिस्से को अपना विषय बनाता है तो अकसर चित्रण में अतिशियोक्ति करता है और सच को एकांगी रूप में प्रस्तुत करता है। विजुअल मीडिया इसी प्रकार सामाजिक सच्चाईयों से पेश आता है। यही उसका तरीका है और यही उसकी मज़बूरी भी।
हरियाणा के लोगों को एक बात का अहसास तो हो चुका है कि मीडिया द्वारा दिखाये जाने के बाद उनकी छवि को बट्टा लग चुका है। अधिकांश हरियाणवी इस दर्द को भलीभांति अनुभव कर रहे हैं कि किस प्रकार पूरा देश उनको लानत दे रहे हैं। इस दर्द की अभिव्यक्ति दो प्रकार से होती है। पहली, खाप पंचायतों में अब जब भी मीडियावाले पहुंचते हैं तो एक तबका उन पर अपना गुस्सा उतारता है। मीडिया से बात करने से मना कर देता है। दूसरा जब पत्रकार कुछ भी पूछते हैं तो वे बचाव की मुद्रा में होते हैं और कहते हैं कि हरियाणा में ऐसा कुछ नहीं है। एक-दो घटनाओं को छोड़ दें तो बाकी सब ठीक-ठाक है।
मीडिया कवरेज ने गोत्र विवाद और खाप पंचायतों के फैसलों को राष्ट्रीय पटल पर लाकर इसे राष्ट्रीय नागरिक पंचायत का मसला बना दिया है। अब इस बहस में अन्य राज्यों के लोग ही नहीं देश विदेश के लोग भी हिस्सा ले रहे हैं। पंचायतों के स्थानीय सामाजिक दबाव पर व्यापक राष्ट्रीय लोकतांत्रिक मीडिया का दबाव भारी पड़ने लगा। अब ये मसला घर का मामला नहीं रहा बल्कि व्यापक नागरिक समाज की समस्या बन गया है। आधुनिक लोकतंत्र में जब हम ग्लोबल मानवीय संस्कारों से रूबरू हो रहे हैं। ये तर्क कि ये हमारे गोत्र, जात, परिवार, गांव या समाज का मामला है अप्रासंगिक सा बन गया है। न्याय-अन्याय और सही-गलत की स्थानीय धारणाएं ध्वस्त हो रही हैं।
कुछ साल पहले एक गांव में दस साल की बच्ची के साथ बलात्कार की घटना के बाद गांव के लोगों ने राष्ट्रीय राजमार्ग जाम कर दिया और दो हफ्ते तक धरना भी दिया गया। दो हफ्ते बाद पता चला कि बलात्कारी लड़की का मामा ही था। पता लगते ही परिवार वाले ये कहते हुए धरने से उठकर चले गये कि ये तो हमारे परिवार और गांव का मामला है हम इस अपने स्तर पर सुलझा लेंगे। और उस मामा को चेतावनी देकर मामला रफा दफा कर दिया गया। परिवार और गांव की बदनामी के डर से अनेक मामलों में लोग इस प्रकार का रवैया ही अपनाते हैं।
हरियाणा की छवि मीडिया में अलग-अलग माध्यमों पर कुछ अधिक अच्छी नहीं कही जा सकती। पाठकों को याद होगा कि नब्बे के दशक में एम टीवी पर एक चरित्र कम से कम शहरों में तो काफी पोपूलर हुआ था। हरियाणा के कुछ अधकचरे से प्रतीकों को उधार लेकर वो कोशिश थी कि एक ठेठ हरियाणवी छवि को रचनात्मकता के साथ परोसा जाये। एमटीवी के इस कार्यक्रम में एक फटा सा काला कंबल ओढ कर हाथ में एक लट्ठ लिये टूटी फूटी हरियाणवी बोली और लहजे की नकल करता ये कलाकार दरअसल दिल्ली में पला बढ़ा एक अंग्रेजीदां युवा था जिसका हरियाणा से कोई दूर-दूर तक का वास्ता नहीं था। उसने हरियाणा के बारे में जो कुछ भी सीखा था वो कॉलेज में पढ़ने वाले हरियाणवी दोस्त और दिल्ली के आसपास के गांवों के माहौल की थोड़ी बहुत झलक की बदौलत। खैर जो भी हो वो चरित्र अपने अलग अंदाज के कारण काफी चर्चा में रहा और साथ ही देशभर के दर्शकों में हरियाणा की एक ठेठ, अनपढ़, जाहिल, गंवार और कम बुद्धि की छवि का प्रसार भी हुआ।
आजकल ना आना इस देस लाड़ो नामक धारावाहिक भी टेलीविजन पर काफी लोकप्रिय हो रहा है। हरियाणा की पृष्ठभूमि पर रचा गया ये धारावाहिक हरियाणा की सचाई से कोसों दूर है। वैसे तो ये धारावाहिक महिलाओं के साथ होने वाले अन्याय के विरूद्ध आवाज उठाने का दावा करता है लेकिन अपनी बाज़ारू जरूरतों के दबाव में निर्माता हरियाणा की नकारात्मक छवियों को ही अधिक उजागर कर रहा है। हरियाणा में लड़कियों की भ्रूण हत्या का मामला हो या फिर पंचायती राज में महिलाओं की भागीदारी की बात हो ये धारावाहिक मसालेदार तरीके से दर्शकों को बांधे तो हुए है लेकिन इसका ग्रामीण हकीकत से अधिक वास्ता नहीं है।
हाल ही में एक चैनल ने पंद्रह अगस्त के अवसर पर स्टेज शो कराया और उसका प्रसारण चैनल पर किया गया। इस पैरोडी में महिलाओं पर अत्याचारों को दिखाने के लिए प्रतीक रूप में हरियाणा के चार खंडवाधारी पुरूषों को दिखाया गया। विजुअल मीडिया प्रतीकों में अपनी बात कहता है और रोचक पहलू ये है कि जो खंडवा एक समय शान, इज्जत और ठाठ-बाठ का प्रतीक था वो आज डर, खौफ, नृश्संता का पर्याय बन गया है। पिछले कुछ सालों में हरियाणा के अनेक युवाओं को फिल्मों में काम मिला है लेकिन अधिकांश को ये भूमिका विलेन के रूप में मिली है। ये भी शोध का विषय हो सकता है कि हरियाणा की ये नकारात्मक छवि किस – किस तल पर काम करती है। इसके क्या परिणाम होते हैँ और इस प्रकार के छवि निर्माण में स्वयं हरियाणवी समाज की क्या भूमिका है।
किसी भी समाज या समस्या को जब मीडिया चित्रित करता है तो उसकी कोशिश रहती है कि उसका सरलीकरण किया जाये। ऐसा मीडिया अपनी कार्यक्रम निर्माण की सुविधा के लिए करता है। कई बार मीडिया में काम करने वालों की अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक सीमाओं के कारण भी ऐसा घटित होता है। उदाहरण के तौर पर धारावाहिकों के मामले में ऐसे पटकथा लेखकों की संख्या ना के बराबर है जो लगातार समाज में हो रहे बदलावों से परिचित हों। कारण साफ है एक बार मीडिया उद्योग में काम शुरू करने के बाद अधिकतर निर्माताओं को लेखकों कों समय ही नहीं मिलता और वे अपने ही कोकून में कैद हो जाते हैं। इस दौरान वे धीरे-धीरे समाज की हकीकत से कटते चले जाते हैं। सच से खिलवाड़ अनेक बार कार्यक्रम की लोकप्रियता बढ़ाने के लिेये भी किया जाता है। ऐसे में किसी एक सनसनीखेज़ तथ्य को बढ़ाचढा कर पेश किया जाता है। तो अधिक जरूरी बारीकियों को सिरे से गायब कर दिया जाता है।
पिछले कुछ सालों के दौरान अगर मीडिया कवरेज पर नजर डालें तो कई और पहलू निकल कर सामने आते हैं। अखबारों में कवरेज दो तरीके की है। स्थानीय संस्करणों और राष्ट्रीय संस्करणों (या कहें दिल्ली से प्रकाशित समाचार पत्र) की कवरेज में काफी अंतर है। इसके अलावा हिन्दी और अंग्रेजी के अखबारों की कवरेज में भी काफी फर्क है। स्थानीय संस्करण इस मसले पर थोड़ा चुप से हैं। हरियाणा के प्रमुख समाचार पत्रों – दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, अमर उजाला, दैनिक ट्रिब्यून, हरिभूमि इत्यादि की बात करें तो अधिकांश मौकों पर इन अखबारों ने इस मसले पर कोई पहल नहीं दिखाई। दैनिक भास्कर ने कन्या भ्रूण हत्या और पानी के मुद्दे पर मुहिम चलाई लेकिन इस मसले पर एक एक्टिविस्ट की भूमिका निभाने में संकोच दिखाया। यहीं नहीं इन समाचार पत्रों ने इतने ज्वलंत मसले पर हरियाणवी समाज में एक बहस चलाने की भी जरूरत नहीं समझी। संपादकीय हों या फिर इस विषय विभिन्न पक्षों को स्थान देते हुए लेख छापने की बात हो ये अखबार निरंतर बचते रहे। लगभग राजनेताओं की तरह समाचार पत्र भी ताकतवर तबके के डर से इस आग में हाथ डालते समय दस बार सोचने लगे कि उनके शब्दों का सरकार और समाज के ठोलेदारों पर क्या असर पड़ेगा। उल्टा निरंतर छोटी-छोटी पंचायतों की बड़ी-बड़ी खबरों से समाज में उनके पक्ष में एक माहौल बनाते रहे।
संचार विज्ञानी जॉर्ज गर्बनर बताते हैं कि समाज में यदि एक ही पक्ष में तर्कों को लगातार प्रचार करते रहें तो एक समय के बाद वे तर्क पाठकों और दर्शकों के मन में घर कर जाते हैं। कल्टीवेशन सिद्धांत के माध्यम से इस पश्चिमी विद्वान ने अनेक शोधों से बताया कि मीडिया से हम ना केवल नयी जानकारियां ग्रहण करते हैं बल्कि हमारे आसपास के माहौल की नयी नयी व्याख्याएं भी सीखते हैं। एक मायने में यथार्थ को मीडिया नयी परिस्थितियों निरंतर पुनर्भाषित भी करता रहता है। स्पायरल ऑफ साइलेंस सिद्धांत के मुताबिक समाज में एक तबका ऐसा भी होता है जो बहुमत के विचारों के अनुसार ही अपनी राय तय करता है। मीडिया एक विशेष प्रकार के विचारों को अधिक प्रसारित करके दरअसल इस तबके की राय को अपने पक्ष में कर लेता है। खाप पंचायतों की सनसनीखेज अत्याधिक कवरेज से मीडिया उनकी सामाजिक उपस्थिति को ना केवल स्थापित कर रहा है बल्कि उन्हें मज़बूत ही कर रहा है।
न्यायालय द्वारा सजा सुनाये जाने के बाद जिस प्रकार कुरूक्षेत्र में सर्वखाप पंचायत का आयोजन किया गया और उसमें जिस प्रकार का तमाशा पंचायतियों के बीच हुआ उसने इन पंचायतों की आंतरिक राजनीति और अलोकतांत्रिक कार्यप्रणाली को साफ कर दिया। लेकिन मीडिया ने इस एंगल से कवरेज करने के बजाए पाठकों के मन में इस प्रकार का संदेश दिया मानों इस पंचायत के बाद बड़ा भारी बदलाव आने वाला है। खाप पंचायतों के नेता भी अब मीडिया की ताकत को पहचानने लगे हैं यही कारण है कि वे छोटी-छोटी पंचायते अलग अलग जगह कर रहे हैं और उनकी भरपूर बयानबाजी को प्रैस में दिया जा रहा है। अखबारों को खंगालने के बाद ये भी पता चलता है कि अधिकांश अखबार इन पंचायतों के नेताओं के बयानों और उनकी गतिविधियों से भरे पड़े हैं। वहीं दूसरे पक्ष की कवरेज सिरे से गायब है। इसके अलावा इस मसले पर हरियाणा के गैर जाट समुदाय की राय को भी कोई प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया है। पूरे देश में लोग मीडिया कवरेज के आधार पर यही जानते हैं कि ये समस्या पूरे हरियाणवी समाज और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की है। क्योंकि मीडिया ने ये तथ्य बताया ही नहीं कि खाप पंचायतों की उपस्थिति केवल जाट समाज में ही है। और ये समस्या जाट समुदाय से अधिक जुड़ी हुई है। अगर हरियाणा के विविध समाज, जिसमें अन्य जातियां, महिला समुदाय, दलित पक्ष भी शामिल है, के बुजुर्गों को शामिल करके इस समस्या का निदान ढ़ूंढ़ा जाये तो कई नये कोण और हल निकाले जा सकते हैं।
टेलीविजन चैनलों ने इस दौरान अनेक चर्चाएं आयोजित की। अखबारों में भी लेख प्रकाशित किये गये। लेकिन पूरे विमर्श में अनेक पहलू अनछुए ही रह गये। सारी बहस को केवल सगोत्र विवाह के खिलाफ विमर्श में समेटने की कोशिश की गयी। राष्ट्रीय महिला आयोग ने हाल ही में एक अध्ययन करवाया जिसमें आम धारणा के विपरीत कुछ तथ्य निकल कर सामने आये हैं। खापों के नेताओं ने पिछले लंबे अर्से से बहस को सगोत्र विवाह की मुखालफत तक सीमित करने की कोशिश की है और मीडिया ने भी इसमें उसका साथ दिया है। स्वयं सेवी संगठन शक्ति वाहिनी द्वारा किये गये इस सर्वेक्षण में पता चला कि ऑनर किलिंग की घटनाएं सगोत्र विवाह नहीं बल्कि अंतरजातीय विवाहों के मामले में अधिक हुई है। इस अध्ययन में ये भी पाया गया कि 89 फीसदी मामलों में लड़की के परिवार वाले ऑनर किलिंग के लिए जिम्मेदार हैं। शोध में ये भी पाया गया है कि भारतीय समाज के लगभग हर तबके में अंतरजातीय विवाह का विरोध किया जाता है। ये विरोध तब अधिक तीखा होता है जब लड़की अपने से निची जाति के लड़के से विवाह कर लेती है। यदि लड़का कथित ऊंची जाति का है तो ये विरोध अधिक नहीं होता। इस सर्वेक्षण में हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों के 600 लोगों से बातचीत की गयी।
गोत्र विवाद के नाम पर किसी एक भी घटना की बारीकी से जांच पड़ताल कोई पत्रकार करे तो उसे स्थानीय राजनीति, गरीब-अमीर की खाई, जात और गोत्र के प्रभूत्ववादी व्यवहार, भाईचारे के नाम पर जमीन हड़पने की साजिशों समेत ना जाने कितनी परते मिलेंगी। कोई भी सामाजिक परिवेश अपने अंदर अंतहीन उलझे तानेबाने समेटे होता है। लेकिन रिपोर्टिंग में हम केवल सतही रूप से जो घटित हुआ उसे लिखते हैं । किसी मुद्दे पर तुरंत बवाल मचाना और फिर उसे भूल जाना मीडिया की फितरत बन चुकी है। घटनाओं का फोलोअप करना और उसकी बारिकियों को उजागर करने की फुरसत पत्रकारों के पास नहीं है। इस प्रकार मीडिया का रवैया बड़ा ही खिलंदड़ापन लिये हुए है जिसमें जिम्मेदारी और गंभीरता का अभाव है।
आजकल मीडिया किसी भी मसले पर जनमत निर्माण करने में प्रमुख भूमिका निभा रहा है। समाज की जटिल संरचना को समझते हुए पत्रकार यदि इस मसले को भी सुलझाने में सकारात्मक भूमिका निभाने की ठान ले तो ये काम इतना भी कठिन नहीं है। लेकिन इसके लिए पहले मीडियाकर्मियों को भी सदियों पराने पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर आधुनिक विचारों को आत्मसात करना पड़ेगा। उदाहरण के तौर पर गोत्र विवाद से कुछ अहम मसले भी जुड़े हुए हैं जिन पर विचार विमर्श करना चाहिेए। जैसे प्यार करने की आजादी, अपना जीवनसाथी चुनने की स्वतंत्रता, संस्कृति और परंपरा को बदलते रूपों में समझना, परिवार और पंचायतों की आधुनिक समझ, इज्ज़त की अवधारणा, लोकतांत्रिक समाज के आधार इत्यादि। मीडिया को ये भी तय करना पड़ेगा कि उसकी भूमिका समाज को आगे ले जाने की है या फिर दबंगों के पीछे दुम दबा कर चलने की है। इतिहास इस बात का गवाह है कि समाज को आधुनिक बनाने की प्रक्रिया में अनेक अवसरों पर नेतृत्व करने वालों को अकेले ही पहल करनी पड़ती है।
लेखक – कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र में एसोसिएट प्रोफेसर रहे हैं।