ओमसिंह अशफाक
सरबजीत
(30-12-1961—13-12-1998)
दोस्तों का बिछडऩा बड़ा कष्टदायक होता है। ज्यों-ज्यों हमारी उम्र बढ़ती जाती है पीड़ा सहने की शक्ति भी क्षीण होती रहती है। जवानी का जोश तो बड़े-बड़े सदमें झेल जाता है, परन्तु उम्र के साथ ज्यों-ज्यों शारीरिक क्षमता घटती है, त्यों-त्यों मनोबल पर भी नकारात्मक प्रभाव बढ़ता जाता है और दुख हमें तोडऩे लगता है। कुछ विरले लोग ही ऐसे होते हैं, जो क्षीणकाय होकर भी अपना मानसिक हौसला दृढ़ बनाए रख सकते हैं, लेकिन वे अपवाद कहे जा सकते हैं। ठीक उसी तरह जैसे हमारे बीच कुछ ‘सुपर ह्यूमन’ मिल जाते हैं। जिानके मन में अत्यधिक शारीरिक दुख भी सामान्य ढंग से सह लेने की क्षमता पाई जाती है।
सन् 1984 में आकर मैं कुरुक्षेत्र में बस गया था। साहित्य पढ़ना अच्छा लगता था और कुछ कविता-कहानी भी लिखने लगा था। वहींं विश्वविद्यालय में अंग्रेजी विभाग में डॉ. ओ.पी. ग्रेवाल भी थे, जिनके मार्फत गोष्ठियों के जरिए तारा पांचाल, सरबजीत सरीखे लेखक मित्रों से परिचय, प्रगाढ़ता और दीर्घकालिक जुड़ाव स्थापित हुआ, जो आज भी कायम है और संभवत: इसीलिए निरन्तर पीड़ा से गुजरना पड़ रहा है। सरबजीत के बारे में मशहूर लेखक ज्ञान प्रकाश विवेक ने बिल्कुल सही लिखा है-‘सरबजीत युवा आलोचक और नए समय की कहानियां लिखने वाले कथाकार थे। उनमें खास तरह का आवेग और वैचारिक उत्तेजना थी। हिन्दी साहित्य में वो बहुत जल्दी से अपनी जगह बना रहे थे। उनमें साहित्य के प्रति हतप्रभ कर देने वाला लगाव था। अपने समकाल को जानने की प्रबल भावनाएं उनमें मौजूद थीं। उस वक्त जब हरियाणा का साहित्य और आलोचना इस बात से आश्वस्त हो रही थी कि एक सचेत और जुझारू युवा आलोचक अपनी ताजादम भाषा, पैनी दृष्टि और चौंका देने वाली जिज्ञासा के साथ अपनी उपस्थिति बना रहा है, ऐन उस वक्त वो रोगग्रस्त हो गए और कुछ ही महीनों में ब्रेन ट्यूमर के कारण उनकी मौत हो गई।’1
‘सरबजीत का कोई कथा संग्रह प्रकाशित नहीं हो पाया, लेकिन उन्होंने कुरुक्षेत्र के कथाकार तारा पांचाल के साथ मिलकर एक कथा संकलन ‘बणछटी’ का सम्पादन किया, जो अपनी समकालीनता के कारण तथा सरबजीत की कहानियों पर लिखी गई समीक्षात्मक भूमिका के कारण, विशिष्ट पहचान रखता है।’ 2
ब्नेन ट्यूमर की बीमारी किस तरह मरीज की हालत बिगाड़ देती है, ये हमने सरबजीत के मामले में प्रत्यक्ष देखा-समझा। हम सब मित्र उनसे मिलने दिल्ली गए। सरबजीत की एमआरआई पहले ही हो चुकी थी और कैंसर के भयंकर विस्तार का पता चल चुका था। बाद में रेडियोथिरेपी के समय उनके केश भी कटवा दिए गए थे। हम सरबजीत से गले मिलना और हाथ मिलाना चाहते थे, परन्तु वे मानसिक तौर पर इतने विचलित हो चुके थे कि स्पर्श से भी घबराने लगे थे और खुद को एकान्त और अंधेरे में छोड़ देना चाहते थे। उनकी ये दशा देखकर हमें बड़ा आघात लगा था।
इलाज के कुछ चक्र पूरे करवाकर और अस्थायी तौर पर स्वस्थ होकर महीनों बाद जब सरबजीत अपने घर (कुरुक्षेत्र) पहुंचे और मैं फूलों का गुलदस्ता लेकर उनसे मिला तो वे पहले जैसी आत्मीयता से गले मिले और बीमारी के दौरान (दिल्ली में) हुए अपने चिड़चिड़े स्वभाव के लिए अ$फसोस भी प्रकट किया, जिसका परिजनों के जरिए शायद उनको बाद में पता चल गया था, लेकिन ये तो सिर्फ संक्रमणकाल था। डाक्टरों ने उनके परिजनों को बता दिया था कि छह महीने बाद उनको दोबारा कैंसर के उभार का विकट आक्रमण झेलना पड़ सकता है, जबकि हम उनके पूर्णत: स्वस्थ हो जाने की गलत$फहमी पाले हुए थे, क्योंकि केश कटवाकर सरदार से मोना बना सरबजीत का रूप हमें पहले से भी जयादा आकर्षक लग रहा था। उनकी मृत्यु के बाद सरबजीत की प्रेमिका-पत्नी रेणु शर्मा ने अपनी कविताओं और सरबजीत की गज़लों का सांझा संकलन ‘हमसफऱ’ भी छपवाया था। उनकी ‘शुभकामना’ ‘लव इज़….’ और ‘धुंध’ कहानी खूब चर्चित हुई थी। संयोगवश ‘धुंध’ कहानी का पाठन और इस पर पहली गोष्ठी भी हमारे घर पर ही हुई थी, जिसमें अन्यों के अलावा डॉ. ग्रेवाल ने विश्लेषणात्मक टिप्पणी करके कहानी के गुण दोषों बारे हमारी समझ को बढ़ाया था। फिलहाल रेणू शर्मा पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला के हिन्दी विभाग में सेवारत है और उनका इकलौता बेटा विदेश पढऩे गया है।
सन् 2002 में छपा हमसफ़र देखकर मुझे पता चला था कि सरबजीत का एक कहानी संग्रह ‘बहुत दूर तक’ प्रकाशित हो चुका है। उनकी लगभग 30 कहानियां, 100 कविताएं और 20-25 ग़ज़लें भी छप चुकी हैं। शोधार्थियों को इस दिशा में प्रयास करके उस सामग्री को प्रकाश में लाना चाहिए। इस विषय में रेनू शर्मा मुख्य स्रोत/सूत्र का काम कर सकती हैं।
डॉ० चमन लाल ने ठीक कहा है कि 36 वर्ष की उम्र में एक प्रखर बौद्धिक और लेखक का चले जाना, सिर्फ पारिवारिक ही नहीं, एक सामाजिक त्रासदी भी है। वह युवा कवि, कहानीकार व आलोचक थे। अपने अल्पकालीन
जीवन में सरबजीत ने अपनी कविताओं, कहानियों व कहानी समीक्षा द्वारा अलग पहचान बनाने की ओर कदम बढ़ाए, जिसकी एक झलक ‘हमसफ़र’ में संकलित गज़लों से भी मिलती है।
सरबजीत के व्यक्तित्व के बारे में रेणु शर्मा (जो खुद को पत्नी से ज्यादा उनकी पक्की दोस्त मानती है) ने कहा था –
‘ब्रेन कैंसर जैसी बीमारी के दौरान भी मुझे हमेशा उसने पोजीटिव एप्रोच रखने को कहा। इस नाशवान संसार की सच्चाई से जोड़ा। यह सरबजीत का ही दिया हुआ हौसला और हिम्मत है, जिसने मरकर भी मेरा साथ नहीं छोड़ा। जो कुछ वह चाहता था, वही मैं करती हूँ। ऊपर वाले को मैंने नहीं देखा, लेकिन सरबजीत को मैंने देखा है…सरबजीत के साथ शादी हुए दस वर्ष भी पूरे नहीं हो पाए थे और मेरा परिवार तहस-नहस हो गया। हमारा इकलौता बेटा, जिसे पिता की अब ही जरूरत पडऩी थी, 7-8 वर्ष तक तो बच्चा मां की गोद में ही सुरक्षा समझ कर ज्यादा वक्त माँ के साथ काटता है। अब जरूरत थी, यही सब महसूस करती हूँ ‘मितवा’ को देखकर।’
उनकी सोच के बारे में रेणू शर्मा का कहना था कि- ‘उसके दिए इन संस्कारों के पीछे काम करती थी केवल उसकी अत्याधुनिक सोच, जिसे वास्तव में स्वयं उसने पुख्ता किया था, बल्कि मुझमें भी। एक गांवों के संस्कारों में जन्में-पले उस नवयुवक की बिल्कुल विदेशी सोच देखकर कई बार मैं हैरान हो जाती और उसे अधिक चाहने लगती। बेरोक-टोक चलती हमारी जिन्दगी में शक और दुख की कोई गुंजाइश नहीं थी। बस हर सुबह लगता था, अभी मेंहदी वाली रात गुजरी है।’
भरी जवानी में दो युवा प्रेमियों के बिछौड़े की ये दास्तान किसी हृदय-विदारक ट्रेजेडी से कम कहां है?
तारा पांचाल
(28-5-1950—20-6-2009)
तारा पांचाल अपने पेट की बीमारी के इलाज के लिए पीजीआई रोहतक में दाखिल थे। ये बात शायद 2009 के जनवरी-फरवरी माह की है। तभी हरियाणा साहित्य अकादमी ने बाबू बालमुकन्द गुप्त पुरस्कार हेतु उनके नाम की घोषणा की। ये सही समय पर सही निर्णय साबित हुआ। उनके जीवन में अकादमी का यह पहला और अंतिम पुरस्कार था। उनकी आर्थिक स्थिति पहले ही कमजोर थी और बीमारी के इलाज के चलते खर्चा और अधिक बढ़ गया था। लिहाजा 51 हजार की राशि ने उन्हें सम्मान के साथ-साथ थोड़ी आर्थिक राहत भी प्रदान की थी, लेकिन रोहतक में इलाज से उन्हें मामूली फायदा ही हो पाया। तब वे पीजीआई चंडीगढ़ में जाकर दाखिल हुए। कई प्रकार की जांच और परीक्षण करके डाक्टरों ने बताया कि उनकी आंत का कुछ हिस्सा सूख कर बिल्कुल सिंकुड़ गया है, जोकि दवाइयों से ठीक नहीं हो सकता है। अत: आप्रेशन करके डाक्टरों ने खराब हुई आंत का टुकड़ा निकाल दिया। कुछ दिन बाद डाक्टरों ने उनकी छुट्टी कर दी और तारा पांचाल अपने नए घर में पीरवाली गली, मोहन नगर कुरुक्षेत्र में आ गए। ये बड़ा घर उन्होंने कुछ समय पहले प्रोफेसर कालोनी, थानेसर वाला घर बेच कर खरीदा था, लेकिन कुछ सप्ताह बाद ही साहित्य का वो तारा हमेशा के लिए आकाश में विलीन हो गया। डाक्टरों का कहना था कि उनको यह बीमारी बीड़ी की वजह से हुई है। पता नहीं इस बात में सच कितना है, परन्तु ये सही है कि वह बीड़ी अत्यधिक पीते थे।
‘तारा पांचाल हरियाणा के चेतना सम्पन्न कथाकार थे। प्रेमचंद परमपरा और उसका विस्तार तारा पांचाल की कहानियों में मिलता है। सरबजीत तारा पांचाल की कहानियों पर बड़ी सार्थक टिप्पणी करते हैं, ‘तारा पांचाल की कहानियां, जहां गुम होते मानवीय रिश्तों को टटोलती, घुप्प अंधेरें में रूबरू होती हैं, वहीं इस सबके लिए जिम्मेवार व्यवस्था के प्रति तल्$ख अहसास अपने भीतर समेटे हैं, इसलिए सामाजिक विद्रूपताओं के पीछे छुपे निर्मम चेहरों की निर्ममता, पाठकों को साफ-साफ दिखने लगती है।’2
ज्ञान प्रकाश विवेक उनके कथा कौशल और पृष्ठभूमि के बारे में लिखते हैं कि- ‘तारा पांचाल अपनी कहानियों में समाज को पैनी नजर से देखते हैं। उनकी कहानियों को पढ़ते वक्त यह अहसास निरंतर होता है कि उनके पास ‘तीसरी आंख’ भी थी, जिसमें संवेदना का जल था और प्रतिवाद की तीक्ष्णता थी।’
तारा पांचाल गांवई पृष्ठभूमि के फ़क्कड़ लेकिन दानिशमंद कथाकार थे। उनकी हर कहानी के पसमंजर, अनुभवों की सुदीर्घ यात्रा का पता चलता है। उनकी कहायिों के पात्र जितने ज़मीनी होते हैं उतने ही करीबी। दुख झेलते, संघर्ष करते पात्र, न सि$र्फ व्याकुल करते हैं, बल्कि प्रश्र भी उछालते हैं कि ऐसी व्यवस्था जहां मनुष्यता का क्षरण हो रहा है, क्या उसमें परिवर्तन जरूरी नहीं?
तारा पांचाल ने बहुत नहीं लिखा। उनका एक कहानी संग्रह- ‘गिरा हुआ वोट’ प्रकाशित हुआ, लेकिन संग्रह की अनेक कहानियां यथा-खाली लौटते हुए, दीक्षा, टिक्स, गिरा हुआ वोट और युक्ति कहानियों के विषय और कथ्यगत ट्रीटमेंट बेचैन और प्रश्नाकुल करने में सक्षम होते हैं। जिस सामाजिक यथार्थ और सरोकार की बात की जाती है, तारा पांचाल की कहानियां उसी सरोकार की कहानियां हैं। अगर फै़ज की पंक्तियों में कहें तो ये कहानियां ऐलान करती हैं, ‘गूंजेगा अनलह$क का नारा, जो मैं भी हूं और तुम भी हो।’3
उनकी एक कहानी ‘मुनादियों के पीछे’ ‘कथन’ पत्रिका दिल्ली में दो बार छपी, जिस पर अभी भी विस्तृत चर्चा की गुंजाईश है।
उनको पेड़, प्रकृति और फूलों-पौधों से बहुत लगाव था। वह कबाड़ से जुगाड़ में भी माहिर थे। बेकार चीजों को तोड़-जोड़ कर सुंदर कलाकृति बनाने का हुनर उनको खूब आता था। अंतिम दिनों में भी उनके गमलों में अनेक पौधे लहलहाते देखे गए थे। एक बड़े से प्लास्टिक ड्रम गमले में छह फुट से भी ऊँचा पिलखन का पेड़ झूम रहा था। शायद बचपन में वे अपने गांव में किसी पिलखन के वृक्ष की सघन छाया का आनंद लेते रहे थे और वह उनकी चेतना का हिस्सा बन गया था, लेकिन शहर के पक्के फर्शों वाले छोटे मकानों में उनको पिलखन के बूटे को रौपने का उपयुक्त स्थान नहीं मिल पाया था और इसके अंदर ही वह पौधा पेड़ बनने को विवश था।
उनके अंतिम संस्कार के बाद ‘फूल चुगने’ वाले दिन उनके परिजनों-रिश्तेदारों ने उस पिलखन के पेड़ को भी उसी शमशान में रोप दिया, जहां पर उनका अंतिम संस्कार किया गया था। जब घर लौट कर उनकी पत्नी को ये खबर दी गई तो गहरी निश्वास छोड़ते हुए श्रीमती कैलाश ने कहा कि ‘चलो अच्छा किया, वहीं पेड़ पर बैठा-बैठा पिलखन तोड़ के खाए जागा…..।
संदर्भः
1. हरियाणा की समकालीन कहानी, ले०सं० ज्ञान प्रकाश विवेक
हरियाणा ग्रंथ अकादमी पंचकूला, सं. 2014
2. वही
3. वही