दास्तान- ए -शहर कैसे बयां करूं
जीऊँ तो कैसे जीऊँ, मरूँ तो कैसे मरूँ
मैं सन् 1984 में इस शहर में आया तो इसे आदतन शहर कहकर अपने कहे पर पुनर्विचार करना पड़ता था। बेशक जिला मुख्यालय तो यह 1973 में ही बन गया था, पर किसी भी कोण से शहर की शक्ल तब तक नहीं बन सकी थी। एक तो आबादी इतनी कम थी कि इसे मुश्किल से छोटा सा कस्बा कहा जा सकता है। दूसरे, बसासत बिखरी हुई होने के कारण सघन आकार नहीं ले सकी थी और पुराने मौहल्लों में अभी भी गांव के से ही चाल-ढाल थे। वैसे ही गलियां, वैसे ही घर, पानी और कीचड़ से गंधाती नालियां और धमा-चौकड़ी मचाते नंग-धड़ंग बच्चे, बिल्कुल ग्रामीण मौलिकता लिए हुए अक्सर दिख जाते थे। कहने को तो बहुत पुराना रेलवे स्टेशन भी यहां था, बल्कि रेलवे की तकनीकी शब्दावली में उसे जंक्शन कहा जाता था, क्योंकि यहां से एक ब्रांच लाईन भी पश्चिमी दिशा में जाती थी। जिस पर सुबह-शाम एक धुंधाता स्टीम-इंजन तीन-चार डिब्बों को खींचता दिख जाता था। इसे पैसेंजर गाड़ी के नाम से पुकारते थे। फिर भी पता नहीं क्यूं इस ‘शहर’ के लोग संतुष्ट और आश्वस्त थे।
लेकिन पिछले दस-बारह बरस में तरक्की करके इस कस्बे ने शहर की शक्ल अख्तियार कर ली है। डिवाइडरों का निर्माण करके सड़कों को दोहरा बना दिया गया है। डिवाइडरों पर खंभों की लाईन खड़ी करके स्ट्रीट लाइटें लगा दी गई हैं। नई बसासत के लिए सैक्टरों को विकसित करके प्लाट बेचे गए हैं। मध्य वर्ग के नौकरीपेशा और दुकानदार लोगों ने उनमें मकान बनाकर रिहायशें कर ली हैं। इस तरह रेलवे स्टेशन से जी.टी. रोड के बीच चार-पांच किलोमीटर खेत उजाड़ कर ये नया शहर उसर आया है। हालांकि कुछ लोगों का अभी भी यही मत है कि सरकार यदि थोड़ी सी भी दूरदर्शी हुई होती तो ये दोनों बातें एक साथ भी संभव हो सकती थी। यानि खेत भी बचाए जा सकते थे और लोग भी बसाए जा सकते थे। उनका प्रस्ताव है कि चौदह सैक्टर बसाने के बजाए एक सैक्टर में चौदह मंजिले फ्लैट बनाकर उतनी ही आबादी को घर दिए जा सकते थे। खैर, फिलहाल इस अवान्तर से बचते हुए हम शहर की बदलती फिज़ा पर ही केंद्रित रहने की कोशिश करते हैं।
शहर के कायाकल्प में दूसरा खास मोड़ तो पांच-छह साल पहले ही आना शुरू हुआ। हवा का रुख ऐसा बदला कि तरह-तरह की आकर्षक और छोटी-बड़ी चीजों से बाजार पट गया। इनमें कई तरह के रंगीन टी.वी., रेफ्रीजरेटर, कम्पयूटर, मोटर साइकिलें, वाशिंग मशीन और कारें इफ़रात में थीं। अब समस्या ये आई कि उनको खरीदने के लिए लोगों की जेबों में पैसा होना चाहिए था, जो नहीं था। लिहाजा बैंकों ने ऋण सुलभ करवाने की अनेक स्कीमें चालू कीं। जो लोग सरकारी कर्जों के झंझट से डरते थे, उनको फांसने के लिए प्राइवेट फाइनेंसरों के छोटे-बड़े गिरोह उग आए थे। सबसे पहले बड़ी तादाद में किस्तों पर या उधार में टेलीविजन सेट बेच गए, फिर उन पर सभी उपभोक्ता चीजों का बाजार सजाकर घर बैठे दर्शक ग्राहक बनाए गए। बैंकों और फाइनेंसरों के यहां से होते हुए ये सब ग्राहक बाजार में पहुंचे तो इस कस्बे उर्फ शहर की सड़कें दुपहिया-चौपहिया वाहनों से पट गईं। कई बार तो शहर के इकलौते फ्लाईओवर पर ट्रैफिक का जाम लग जाता, तो लोगों को गर्व सा होता कि कम से कम एक बात में तो अपना शहर भी दिल्ली-मुंबई जैसा हो ही गया है। चार वर्णों और छत्तीसों जातियों में बंटे इस शहर के लोग जब एक नए उपभोक्ता समाज में संगठित हुए तो ऐसा लगा कि अब उनके आंतरिक भेदभाव मिट गए हैं और सब के सब बस एक बात पर मुतमईन हैं कि उसकी कमीज अथवा इसकी साड़ी मेरी वाली से ज्यादा सफेद नहीं दिखनी चाहिए, लेकिन कुछ समय बाद ही इस नवनिर्मित समुदाय में ही एक अजीब किस्म का विभाजन शुरू हो गया। ज्यादा सफेदी वाले लोग ‘फील गुड’ हो गए और कम सफेदी वाले ‘फीलिंग बैड’ ही रहे। यूं तो ‘फील गुड’ संख्या में बहुत कम थे, लेकिन गलबा उनका ही ज्यादा था जबकि ‘फीलिंग बैड’ के लश्कर के लश्कर घूम रहे थे, मगर उनकी बात सुनीं नहीं जा रही थी। शहर के शुरूआती विकास के दौर में नर्सिंग होम्स की भी बाढ़ सी आ गई थी। कुछ देर उनके वार्ड ‘फील गुड’ मरीजों से भरे भी रहे, क्योंकि सरकारी अस्पताल में दवाइयां और इलाज संतोषजनक नहीं था। फिर नर्सिंग होम्स भी ठप्प होने लगे। हालांकि शहर में मरीजों की तादाद बढ़ रही थी। तब ये भी सुनने में आया कि हड्डियों के किसी डॉक्टर ने फ्लाई-ओवर के ऊपर डीजल बिखरवा दिया। उस कारनामे के चलते कुछ देर हड्डियों के अस्पतालों में मरीजों की तादाद खूब बढ़ गई, लेकिन शहर में अनेक लोग लंगड़े-लूले हो गए। विडम्बना ये भी हुई कि इस प्रकरण के मामलों में लोगों को मुआवजे भी नहीं मिल सके। उधर, सरकार ने सरकारी अस्पताल की सुध लेनी ही छोड़ दी थी। कुछ अरसा बाद स्थिति ने ऐसा पलटा खाया कि सरकारी अस्पताल में ‘फीलिंग बैड’ मरीजों की भरमार थी, लेकिन यहां दवाइयां और जरूरी उपकरण नदारद थे। हालांकि डॉक्टर वहां अभी भी थे। मगर ये पता नहीं चल सका कि अब वे वहां क्या कर रहे थे? यद्यपि उस अस्पताल में एक नया वार्ड जरूर खुल गया था, जो पहले वहां नहीं था। डॉक्टर लोग और अस्पताल के कर्मचारी बेशक उसे ‘साइकेटरी वार्ड’ कहते थे, मगर आम जनता की राय में वह ‘छोटा पागलखाना’ ही था। कहते हैं कि उस वार्ड का डाक्टर पागलों का इलाज करते-करते खुद भी पगला गया था।
तो मैं आपको बताना चाहता हूं कि तब ये शहर बेशक छोटा कस्बा या गांव-सा ही था, लेकिन इसमें इतनी तादाद में पागल भी नहीं थे। मुझे ठीक-ठाक याद है, यहां सिर्फ एक पागल था। लोग प्यार से उसे भगता कहते थे, सच पूछिए तो भगता भी तब तक इस हद तक पागल नहीं हुआ था, जितना वह आज है। तब भगता कई-कई दिनों तक एक ही पोशाक मेें नजर आता रहता था। स्पष्ट है कि वह न तो कपड़े फाड़ता था और न ही निकाल कर फैंकता था। पागलपन के लिहाज से देखें तो काफी संयत था और कुछ-कुछ विनम्रता-सी उसके व्यवहार में बची हुई थी। औरतों से छेडख़ानी नहीं करता था। हिंसक भी नहीं हुआ करता था, लेकिन कुछ लोगों की सलाह पर उसके बाप ने उसका इलाज करवाना चाहा। फिर पता चला कि उसको पागलों के अस्पताल में ले जाया गया और बिजली के झटके लगवाए गए। विडम्बना ये हुई कि भगता ठीक होने की बजाए और अधिक पागल हो गया। उसका स्वभाव भी उग्र हो गया। चौंक पर खड़ा होकर ट्रैफिक कंट्रोल करने जैसी हरकतें करने लगा। फिर कपड़े उसके तन से दूर होते गए और महिलाओं से छेडख़ानी करने लगा। रात-बिरात वाहनों की लाइटें भी फोडऩे लगा। इस दौरान कुछ लोगों ने उसे फ्लाई ओवर के फुटपाथ पर सरेआम अश£ील हरकतें करते भी देखा है। अब तक सभी ने इस बात को स्वीकार कर लिया है कि अब भगते से भगत सिंह बनने की कोई संभावना नहीं बची है। हालांकि उसके बाप ने शहीदों से प्रेरणा लेकर ही उसका नाम भगत सिंह रखा था।
इधर पिछले कुछ महीनों से एक और व्यक्ति अक्सर सड़क पर नजऱ आता है, जो हर रोज अपने हाथ में ब्रीफकेस साईज की लोहे की एक संदूकड़ी लिए रहता है। यह आदमी सुबह घर से धुले-धुलाए कपड़े पहन कर हजामत बनवाकर निकलता है और किसी चौराहे पर अथवा डिवाइडर के किसी कट पर तेज चहलकदमी करता हुआ अपनी संदूकड़ी को बार-बार हवा में उछालता है। हर वाहन से किसी भी दिशा में जाने की लिफ्ट मांगता है। उसके लिबास और मध्यवर्गीय व्यक्तित्व के बावजूद उसकी हरकतों, उग्र प्रतिक्रियाओं और स्वगत भाषण से वाहन सवारों को समझते देर नहीं लगती कि इस आदमी की मंजिल कहीं खो गई है। अब इसे कहीं भी नहीं जाना है और वे खुद की मंजिल का पुन: स्मरण करते हुए और अधिक तेजी से अपनी यात्रा पर निकल पड़ते हैं।
अभी कुछ दिन पहले एक और नौजवान पागल शहर में दिखाई दिया। मारे भूख के उसका बुरा हाल था। जिस्म में काफी कमजोरी थी। वह आहिस्ता-आहिस्ता चल पाता था। खाली पड़े प्लाटों अथवा एक्वायर हुए भूखंडों, जोकि अब बंजर पड़े थे और जिनमें बेतरतीब खरपतवार तथा कांग्रेस घास उग आई थी, में वह अक्सर घंटों खड़ा रहकर कुछ खोजता रहता था। इस पागल के पास सर्दी से बचाव का पर्याप्त कपड़ा भी नहीं था। इधर, सर्दी भी अपने पूरे यौवन पर थी, लेकिन दो-एक दिन बाद देखा गया कि किसी परलोक-संवारू परोपकारी व्यक्ति ने उसे एक सस्ता सा कम्बल दान कर दिया था। खुले आसमान के नीचे बसर करने वाले किसी तंदरुस्त आदमी के लिए तो ये बेशक नाकाफी था, लेकिन इस पागल को इसमें ठंड नहीं लगेगी, ये सोच कर संतोष कर लेने में किसी को कोई दिक्कत नहीं थी।
तभी एक दिन अजीब घटना घटी। शाम के करीब छह बजे का वक्त था। मैं दफ्तर से लौट रहा था। सोचा, थोड़ा जल्दी घर पहुंच जाऊंगा, इसलिए खाली पड़े भूखंडों में से होकर शार्टकट मारने लगा। रेडियो स्टेशन के पीछे सुनसान जगह थी। वहां पार्किंग स्थल जैसीे किसी चीज का निर्माण कार्य चल रहा था। जमीन से थोड़ी ऊंचाई तक फुटपाथ जैसा कुछ बन रहा था। उसी की 9 इंच बुनियाद पर लमलेट किसी मानव आकृति का आभास हुआ। कुछ और गौर से देखने का प्रयास किया। चारखाना कम्बल पर निगाह पड़ी। मामला साफ था। वही पागल नौजवान पड़ा था…पर इसकी एक टांग इस तरह अकड़ी क्यूं खड़ी है? लो जिसका डर था वही हुआ। ये तो मर गया। पिछली रात की जबरदस्त ठंड इसे भी लील गई? मुझे झटका सा लगा। पर दूसरे ही क्षण और और विचार दिमाग में कौंधा, ‘…दूर से ही खिसक लेने में तेरी भलाई है। पागल वो नहीं था, तू है जो लाश के पास चला जा रहा है?’ यदि लाश पागल की न हुई तो….? कम्बल से लाश की शिनाख्त करता है। कारखाने में जैसे एक वही कम्बल बना होगा? चलो मान लिया लाश पागल की ही है, परन्तु कैसे साबित करेगा कि वह कुदरती मौत मरा है? हो सकता है उसका किसी ने कत्ल किया हो? ज़हर दे दिया हो? उसका पता-ठिकाना तक तुझे मालूम नहीं है। हो सकता है जमीन-जायदाद का कोई लफड़ा हो। कातिल उसके पीछे लगे हों, मौका पाकर काम तमाम कर दिया हो? तू पढ़-लिखकर पागल हो गया है? सबसे पहले पुलिस तुझे ही बुलाएगी। बता लाश कब देखी, किस हालत में देखी, मौत कैसे हुई, क्यूं हुई, किसने की? अब बता तू कहां से कातिल को पकड़ कर पेश करेगा? नहीं करेगा तो पुलिस तुझे ही कातिल समझ लेगी….लाश तो बरामद हुई है, कत्ल तो हुआ है और सबसे पहले तूने लाश को देखा है….। अपने अंदर के प्रश्नों-प्रतिप्रश्नों ने वाकई मुझे विचलित कर दिया। मैंने सोचा कि मेरे लिए तो ये साबित करना भी मुमकिन नहीं होगा कि मरने वाला व्यक्ति पागल था। कानून भी सबूत मांगता है। मेरे पास कोई सबूत नहीं था कि मरने वाला पागल ही था। इसलिए ठंड से अपना बचाव नहीं कर सका? क्या दूसरे भले-चंगे गरीब लोग ठंड से अपना बचाव कर पाते हैं? यदि नहीं तो क्या वे सब पागल मान लिए जाएंगे?
दिमाग के कम्प्यूटर में सैकेंड के तिहाई-चौथाई हिस्से में हुई इस उथल-पुथल ने पता नहीं कब मेरा रास्ता बदल दिया। पत्नी ने चाय के लिए पूछा तो होश आया कि मैं तो घर में बैठा हूं। अगले दिन मैंने उस रास्ते की तरफ मुंह भी नहीं किया। दफ्तर पहुंचते ही सारे अखबार गौर से पढ़े। ठंड से मरने वालों की खबरों में उनके नाम-गाम ध्यान से देखे, लेकिन कुछ भी पता नहीं चला। उस रास्ते से दुबारा जाने की हिम्मत नहीं हुई। यही ख्याल परेशान करता रहा कि पता नहीं कौन था? किस वजह से भरी जवानी में पागल हुआ या कर दिया गया। पता नहीं खुद मरा या मार दिया गया। साथ ही एक और पश्चाताप कि बार-बार मन में चाहते हुए भी उस पागल से कभी बात क्यूं नहीं कर पाया। हो सकता है,वह अपनी कुछ परेशानी बयान कर पाता। उसकी बिपदा का कुछ तो पता चलता। क्या पता थोड़ा-बहुत ठौर-ठिकाना भी बता सकता होता। कई दिन इन्हीं उलझनों में बीतते रहे, लेकिन अब क्या हो सकता था। उलझन के सभी रास्ते बंद हो चुके थे।
आखिर एक दिन एक नर्सिंग होम के सामने गज़ब का नज़ारा दिखा। चाय के खोखे पर वही पागल नौजवान चाय पी रहा था और मैं उसके जिंदा होने की खुशी में पागल हुआ जा रहा था। मैं हैरान था। हफ्ताभर पहले मर चुका पागल साक्षात् मेरे सामने था। चाय खत्म होने में एक मिनट भी न लगा और तभी वह वहां से खिसक लिया। मैंने चाय वाले से उसके बारे में जानना चाहा। उसने पागल की दर्दनाक कहानी कुछ इस तरह बयान करी-उस नौजवान ने एक सपना देखा था। घर में थोड़ी-बहुत जमीन-जायदाद भी थी, जिससे बड़े भाई की पढ़ाई का खर्चा किसी तरह चल रहा था। वह नौजवान पढ़ाई मे थोड़ा तेज निकला। इंजीनियरिंग में दाखिला हो गया, लेकिन अब तक पेशेवर कोर्सों की फीसें चार से दस गुना तक बढ़ चुकी थीं। डिग्री बीच में छोडऩे का मतलब कैरियर चौपट करना था। उसके पिता ने जमीन बेच डाली। जैसे-तैसे दोनों भाइयों की पढ़ाई का खर्चा जुटाया। उम्मीद थी कि दोनों बेटे पढ़ाई पूरी करके अच्छी नौकरी पा जाएंगे। दुगनी जमीन कभी भी खरीद लेंगे। खैर, उन दोनों ने पढ़ाई पूरी कर ली, लेकिन तब तक बहन ओवरएज़ होने लगी थी। या तो बारोजगार लड़का (वर) नहीं मिलता, अगर मिलता तो पांच-सात लाख से कम शादी का एस्टीमेट नहीं बैठता। शादी तो करनी ही पड़ती। कुंआरी लड़की घर में कब तक रखी जाती? इस बार पिता को मकान भी बेच देना पड़ा। दोनों भाईयों की डिग्री का ही तिनके की तरह सहारा था, लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद उन्हें नौकरी नहीं मिल सकी। मिलती भी कैसे? नौकरी एक, उम्मीदवार एक लाख। अब तक पिता को भी स्थिति की गंभीरता का अहसास हो चुका था। एक दिन पिता ने उसकी मां को तसल्ली दी-‘नौकरी नहीं मिल रही तो इसमें बच्चों का क्या दोष? कुछ आगे की विचार। बेटों की शादी की सोच? खानदान का वंश भी तो चलाना है, लेकिन शादी का जो भी प्रस्ताव आता वापस लौट जाता। बिना मकान-जायदाद और बिना रोजगार के कोई न टिकता। माता-पिता को यही चिंता खाने लगी? पिता पहले ब्लड प्रैशर के शिकार बने, फिर हार्ट अटैक उनको लील गया। छह माह बाद माता भी पिता के वियोग में चल बसी। सालभर भी न बीता था कि बड़े भाई ने एक दिन सल्फास निगल ली। पूरे परिवार की बर्बादी झेलने की हिम्मत इस नौजवान में नहीं बची थी। सबसे छोटा, तो सबका प्यारा भी था। सब प्यार करने वाले चले गए, तो वह किसके लिए जिए? लेकिन वह मर भी नहीं सका और इस सदमे को झेल भी नहीं पाया। उसने एक दिन अपने-आपको ऊल-जलूल हरकतें करते पाया। लोगों ने शोर मचा दिया-पागल आया, पागल आया….। गली के सब बच्चे ईंट-पत्थर लेकर उसके पीछे दौड़ रहे थे और उसे दर-बदर कर दिया गया था।
लेकिन अफसोस, इस त्रासदी का अभी अंत नहीं हुआ है। तब से शहर में रोज नए-नए पागल देखे जा रहे हैं और अब तक तो ये शहर जैसे पागलो से ही भर गया है, बल्कि इसे पागलो का शहर कहना ही ज्यादा संगत प्रतीत होता है। अंतर बस इतना है कि कोई पूरा पागल, कोई आधा पागल और नीम पागल हुआ फिरता है। कुछ लोगों की राय में तो इस कहानी का लेखक भी उन्हीं में से एक है।