रागनी का मास्टऱ, ग़ज़ल का आशिक – रामेश्वर दास गुप्ता
(9-3-1951—18-8-2014)
जन्माष्टमी के दिन (18-8-2014) पिपली (कुरुक्षेत्र) निवासी मास्टर रामेश्वर दास गुप्ता जी का 63 की उम्र में निधन हो गया। वे करीब डेढ़ साल से गले के कैंसर से पीडि़त थे। इलाज की पीड़ा और भारी खर्च भुगतने के बाद भी वही अंजाम हुआ, जिसका डर था। पता नहीं ये विडम्बना है या हमारा सामाजिक स्वभाव कि मरने के बाद ही हमें बिछड़े की अहमियत और गुणों का अहसास होता है। गुप्ता जी के एक दोस्त ने उनकी शोक सभा में इस तथ्य का जिक्र भी किया। बकौल वक्ता गुप्ता जी खुद कहते थे कि मेरे मरने के बाद मेरी ज्यादा जरूरत और बात होगी। मैं नहीं रहूंगा, लेकिन मेरा लिखा साहित्य रहेगा, इस पर चर्चा भी होगी।
गुप्त जी में लिखने का जुनून था। आठ किताबें छप चुकी, 3 प्रक्रिया में हैं और कई पाण्डुलिपियां तैयार पड़ी होंगी। ‘दंगे पागल होते हैं’ (कविता) ‘त्रिवेणी’ (दोहा-कुण्डलियाँ) ‘डंगवारा’ ‘च्यौंद कसूती’ ‘खूण्डी छौल’ (रागनी), ‘अब चुप्पी तोड़ो’, ‘मुश्किल दौर से’ (गीत), ‘हाशिए से बाहर’ (गज़ल संग्रह) छप चुकी हैं। ‘अध्यापक समाज’ में उनकी रागनियां नियमित छपती रही। अन्य जगहों पर भी छपी होंगी। उन्होंने गीत-गज़लों में खूब हाथ आजमाया, बेशक उस्ताद लोग पास करें या न करें, सभी से अपने लिखे पर बात की, करने की कोशिशें की, सीखने सुधारने से कभी गुरेज नहीं किया और हरेक विधा की जानकारी हासिल करने का प्रयास किया। नतीजा उनकी रचनाएं पुख्तगी पाने लगी थी। कथ्य तो उनका मजबूत था ही, चूंकि उन्होंने गरीबी, शोषण, दमन, गैर बराबरी और सामाजिक न्याय के मुद्दों को लेखन का विषय बनाया था। उनकी शिक्षा-दीक्षा बेशक मैट्रिक तथा जेबीटी तक हुई थी और प्राथमिक स्कूल में अध्यापन किया, परन्तु उन्होंने स्वाध्याय और लेखन से निरन्तर विकास का प्रयास किया।
गीत-रागनी रचने के संस्कार उन्हें बचपन में ही उनके पैतृक गांव सीधपुर (करनाल) में पिलखन के पेड़ की छांव में जमती लोक महफिलों में महाश्य मुनीश्वर देव की संगत में हासिल हुए थे, जो खुद एक प्रसिद्ध लोक कवि, प्रचारक और समाज सुधारक तथा माक्र्सवादी लोक चिंतक थे। गुप्ता जी ने स्कूल अध्यापक संघ और साक्षरता अभियान में भी काम किया। बाद के समय में वे जनवादी लेखक संघ (जलेस) से जुड़े रहे और जनवादी विचारों से वैचािरक शक्ति ग्रहण करते गए, जिससे उनके लेखन की धार तेज होती गई और उनकी रचनाओं का जनसंघर्षों में सदुपयोग होता रहा, जोकि गुप्ता जी का सबसे बड़ा ईनाम था। जब तक संघर्षों की जरूरत बनी रहेगी, उनके गीत-गज़ल, रागनियों की सार्थकता बनी रहेगी और उनका नाम पुरस्कृत होता रहेगा, बेशक किसी साहित्य अकादमी ने उन्हें पुरस्कार न दिया हो।
गांव-देहात में कई कहावतें प्रचलित हैं, जिनके सहारे हम गुप्ता जी को पहचान सकते हैं। ‘गुदड़ी का लाल’ और ‘दीवे तले अंधेरा’ उनके ऊपर सटीक बैठती हैं। अग्रेजी राज में मशहूर लेखक-पत्रकार बालमुकंद गुप्त जी गुडियानी (रिवाड़ी) हुए हैं। उन्होंने ‘शिवशम्भू के चिट्ठे’ लिखकर अंग्रेजी राज से टक्कर ली। नए-नए रूपक रचकर देश के सामने उनके पाखंड को नंगा किया। ‘जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो’-नारा उस दौर में बहुत प्रचलित हुआ था। रामेश्वरदास के जज़्बे को हम गुप्त जी की परम्परा से जोड़ कर भी देख सकते हैं। गुप्ता जी का बचपन गरीबी और अभावों में बीता। वहीं से उनके मन में जुल्म और जालिम के प्रति आक्रोश पैदा हुआ जो लेखन के जरिए उनकी रचनाओं में प्रकट होता रहा।
गुप्ता जी भी आम आदमी ही थे, देवता नहीं। हमारी तरह उनमें भी कई कमियां, कमजोरियां रही होंगी। (यूं देवता भी दोष रहित नहीं होते) कईयों को दूर भी किया होगा। बीड़ी पीने की भयानक लत आखिर तक हावी रही। डाक्टरों की डांट-डपट सही, पर छूटी नहीं। शरीर को नुक्सान भी हुआ, लेकिन नहीं। गुप्ता जी का जन्म 9 मई 1951 को हुआ था और 18 अगस्त 2014 को वे कूच कर गए। आयु में मुझसे भी दो साल छोटे बैठते हैं, परन्तु मृत्यु ने उन्हें हम सबसे बड़ा कर दिया है। पहले उनसे हमारा स्नेह था, अब श्रद्धेय बना दिया है, परन्तु उनके लेखन से प्रेरणा लेने, सीखने और उस पर नुक्ताचीनी करने का हक हमें अभी भी है।
उनके पीछे भरा-पूरा परिवार है। भाईयों, बहनों के अलावा दो पुत्र और पुत्र-वधु हैं। दो बेटियां, दामाद, उनकी पत्नी श्रीमती पुष्पा गुप्ता। उनका बड़ा बेटा श्रवण गुप्ता प्रगतिशील जनवादी विचारों का समर्थक और सचेत नौजवान है। बेटे-बहू (चारों) बारोजगार हैं, चिंता की बात नहीं, लेकिन उनका आग्रह है कि गुप्ता जी के साहित्य का प्रकाशन, प्रसारण, वितरण वे अकेले नहीं कर सकते। सभी लेखकों, पाठकों का सहयोग चाहिए! बात सही है सबको विचार करना होगा।
उनके अंतिम संस्कार में अनेक लेखक शामिल हुए। कैथल से राजबीर पराशर, अमृत लाल मदान, कमलेश शर्मा, रिसाल जांगड़ा, अम्बाला से ओ.पी. वनमाली, जयपाल तथा राधेश्याम (घरौंडा) और कमलेश चौधरी (बाबैन) राम कुमार आत्रेय, बृजेश कृष्ण, अश$फाक, सुभाष, श्रोणिक लुकंड, हरपाल, करूणेश, सूबे सिंह सुजान व अन्य (कुरुक्षेत्र), अध्यापक नेता मा. शेर सिंह, जरनैल सिंह, सुरजीत सैनी, रोहताश पूनिया, बलजीत कुंडू, बलजिन्द्र सिंह, शिवराम, महीपाल, प्यारे लाल, बलवंत सिंह व अन्यों ने शिरकत की। कर्मचारी नेताओं महावीर दहिया, आजाद सिंह, ओम प्रकाश पूनिया व अन्य शामिल हुए। 25 अगस्त, 2014 की शोक सभा जनवादी लेखक संघ कुरुक्षेत्र व हरियाणा विद्यालय अध्यापक संघ, कुरुक्षेत्र के संयुक्त तत्वाधान में डॉ० ओ.पी. ग्रेवाल अध्ययन संस्थान, कुरुक्षेत्र में आयोजित हुई, जिसमें गुप्ता जी के सभी परिजन शामिल हुए और बड़ी संख्याा में अध्यापक मौजूद रहे तथा दूसरी 29 अगस्त 2014 को पारिवारिक रस्म पगड़ी के साथ सम्पन्न हुई, जिसमेें रिश्तेदार और शहर निवासी अन्य प्रेमीजन शरीक हुए।
मैं ‘दोस्तÓ भारद्वाज की बरसी पर हुई कविता गोष्ठी के बाद में गुप्ता जी के घर गया था। उस दिन भी उन्होंने गज़लें सुनाई, जो तभी लिखी गई थी। यानि आखिरी दम तक लिखने में जुटे रहे तब भी नाराजगी जताई कि गोष्ठी में मुझे क्यों नही बुलाया गया, मैंने समझाया कि आपकी सेहत का ध्यान करके आपको कष्ट नहीं दिया। कहने लगे कि मुझे इसी हालत मेें अस्पताल भी तो जाना पड़ता है। मुझे गोष्ठी में क्या कष्ट होता? खैर, प्रो. लुकंड का आग्रह था कि गुप्ता जी को सम्मानित करने का एक कार्यक्रम कर लेते हैं। उन्हें शाल और प्रशस्ति पत्र देकर घर तक छोड़ कर आएंगे। सारा खर्च मैं दूंगा। मैं भी सहमत था, परन्तु वक्त ने अवसर ही नहीं दिया और गुप्ता जी चले गए। मा. बलवंत सिंह ने गुप्ता जी के बारे में ठीक ही कहा है-
‘रामेश्वर दास गुप्त को आम आदमी की समस्याओं ने बहुत गहराई तक उद्वेलित किया। यह पीड़ा ही शब्द बनकर उनकी कलम के द्वारा उनकी रचनाओं मेें उतर आई और इस प्रकार घुलमिल गई कि पहचान ही नहीं हो पाती कि यह पीड़ा लेखक की है अथवा आमजन की। नशे की शिकार जवानी, दाने-दाने को मोहताज कमेरा, कर्ज के कारण किसान द्वारा आत्महत्या, छीजता भाईचारा, चरम पर भ्रष्टाचार, देश से बाहर एवं देश में काला धन, नेताओं, अधिकारियों का बेशर्म गठजोड़, संवेदनहीनता, जाति धर्म के नाम पर टूटता भाईचारा, अंधविश्वास, कमर तोड़ महंगाई, कन्या भ्रूण हत्या, दहेज, महिलाओं एवं दलितों पर बढ़ता अत्याचार, अनपढ़ता एवं बेरोजगारी प्रत्येक विषय को धारदार आवाज में उठाती इस कलम का नाम ही रामेश्वर था।’
‘रामेश्वर दास गुप्त का बात कहने का अंदाज बेबाक एवं वैज्ञानिक चिंतन पर आधारित था। वे अपनी रचनाओं के द्वारा समाज की आंखें खोल देते थे और आईने में समाज का सच्चा रूप दिखाने का सफल प्रयास करते थे। धार्मिक, पाखंड की आड़ में आम जनता से करोड़ों का चढ़ावा लेकर ऐश करने वाले धर्म गुरुओं पर गुप्त जी ने कबीर के समान (तरह) गहरी चोट की है।’1
संदर्भः
1. तर्कशील पथ अंक -6 नवम्बर 2012