ओमसिंह अशफाक
ओम प्रकाश वाल्मीकि (30-6-1950—18-11-2013) जी से मेरी मुलाकात सिर्फ तीन बार हुई, लेकिन फोन पर चार-पांच बार की बातचीत ने हमारे बीच काफी आत्मीयता पैदा कर दी थी, बल्कि उससे भी पहले ‘जूठन’ पढ़ते हुए ही इस आत्मीयता और घनिष्ठता की बुनियाद पड़ चुकी थी। कुछ यूं हुआ कि उनकी आत्मकथा पढ़ते हुए मैं बेहद पिंघल गया था-पढ़ता गया, रोता गया और उनके बचपन और स्कूली जीवन से गुजरते हुए अपने बचपन से भी पूर्व साक्षात्कार करता गया। अपने बालमन पर चढ़े पारिवारिक-सामाजिक संस्कारों का स्मरण विश्लेषण करता रहा। ‘जूठन’ से ही मुझे समझ आया कि हमारे व्यक्तित्व के निर्माण में हमारे परिवेश की कैसी भूमिका होती है और किस तरह असामाजिक, अस्भाविक और अमानवीय व्यवहार भी हमें स्वाभाविक लगना शुरू हो जाता है। यहां तक कि बच्चों की पिटाई भी हमें स्वाभाविक लगने लगती है। हम सभी बचपन में बड़ों से और माँ-बाप से पिटते रहे ही हैं। डांट-डपट तो बात-बात पर या बिना बात भी होती रहती थी और हमारे मन ने मान लिया था कि यही कुदरती ढर्रा होता है? बालक मेें इतनी विशेषात्मक बुद्धि कहां से आती? वह तो उम्र बढऩे पर अनुभव जगत के विस्तार से ही हासिल हो सकती है। सो बाद में थोड़ी बहुत हुई भी होगी, लेकिन मुझे लगता है कि ‘जूठन’ के अध्ययन के दरम्यान ही मेरी व्यक्तित्वान्तरण की प्रक्रिया शुरू हुई और इसके अध्ययन ने ही मुझे न्याय, समानता और स्वतंत्रता की जरूरत का अहसास कराया। अन्याय-उत्पीडऩ के प्रति आक्रोश तथा अन्यायी और उत्पीड़क के प्रति घृणा के भाव का संचार किया था। वाल्मीकि के व्यक्तित्व का निर्माण किन परिस्थितियों में हुआ था। उसके कुछ साक्ष्य उनकी आत्म कथा में भी मिल जाते हैं।
‘चारों तरफ गंदगी भरी होती थी। ऐसी दुर्गंध कि मिनट भर में सांस घुट जाए। तंग गलियों में घूमते सूअर, नंग-धड़ंग बच्चे, कुत्ते, रोजमर्रा के झगड़े, बस यह था वह वातावरण जिसमें बचपन बीता। इस माहौल में यदि वर्ण-व्यवस्था को आदर्श व्यवस्था कहने वालों को दो चार दिन रहना पड़ जाए, तो उनकी राय बदल जाएगी।’1
खैर, मुझसे रुका नहीं गया और रोते-रोते मैंने वाल्मीकि जी को एक पोस्टकार्ड लिख डाला। उस स्थिति में क्या-क्या लिखा गया, स्पष्ट तौर पर याद नहीं, परतु एक बात जरूर याद है कि-वाल्मीकि जी, मैं आपको साथ लेकर एक बार बरला गांव जाना चाहता हूँ और उन जगहों और महानुभावों को देखना-मिलना चाहता हूँ। पूछना चाहता हूँ कि उन्होंने आपके साथ इतना क्रूर व्यवहार क्यों किया और क्या वे किसी रूप में आज इसका प्रायश्चित करना चाहते हैं या अभी भी अपने उन्हीं अन्यायकारी-उत्पीडऩकारी विचारों पर अडिग हैं? यदि हाँ तो कृपया त्यागी बंधुओं और मान्यवर चौधरियो, वैसी ही यातनाएं मुझे भी दे दो, ताकि मैं इस अपराध बोध से मुक्त हो सकूं, जो मुझे चैन से सोने नहीं देता है, क्योकि आज भी आपका तो मैं कुछ बिगाड़ नहीं सकता। एक मामूली आदमी वह भी निरीह लेखक उनका भला क्या बिगाड़ सकता है? सामंती, जातिवादी व्यवस्था तो आज भी बदस्तूर जारी है। वाल्मीकि जी ने सही ही लिखा है-
‘दलित-जीवन की पीड़ाएं असहनीय और अनुभव-दग्ध हैं। ऐसे अनुभव जो साहित्यिक अभिव्यक्तियों में स्थान नहीं पा सके। एक ऐसी समाज व्यवस्था में हमने सांसें ली हैं, जो बेहद क्रूर और अमानवीय हैं। दलितों के प्रति असंवेदनशील भी।’2
मुझे याद नहीं कि खत पढऩे के बाद खुद वाल्मीकि जी का फोन आया अथवा मैंने उनको किया था, जिसमें उन्होंने बताया था कि मेरा वह खत उन्होंने कहीं छपवा दिया है और अफसोस भी जाहिर किया था कि मेरा नाम प्रूफ की गलतीवश कुछ गलत-सलत छप गया है। 3
मेरा जन्म दलित जाति में नहीं हुआ। हाँ उसे आज ओ.बी.सी. में ज़रूर शामिल कर दिया गया। उस जाति के पास गांवों में खेतीबाड़ी की जमीन भी होती है। सो मेरे परिवार के पास भी थोड़ी-बहुत है, परन्तु फिर भी ये लोग सामंती, जातिवादी संस्कारों, विचारों की गिरफ्त में ऐसे जकड़े हुए हैं कि उनके बीच में आज भी बराबरी की, जातिविहीनता और अंतर्जातीय विवाह जैसे विचारों की दाल गलनी बहुत ही मुश्किल है। आज भी ऑनर किलिंग जैसे कांड भी वहां आसानी से हो सकते हैं। होते भी रहते हैं।
‘जूठन’ पढ़ते हुए मुझे अपने साथ कई बार घटा प्रसंग बहुत याद आया। हमारे परिवार के पास पशु कई हो गए थे और पशुचारे की कमी पड़ गई थी। मुझे प्राईमरी स्कूल से हटाकर जगंल में पशु चराने भेज दिया गया। अब मैं पाल़ी बन गया था। पालियों की मंडली का हैड था-सुखबीरा। वह लगभग मेरे बाप का हमउम्र था और उसकी नज़र भी काफी कमजोर थी। वह रंड-मलंग (अविवाहित) था। भैंसों की खरीद-बेच से काफी रुपया भी उसने जमा कर रखा था, जिससे सूदखोरी का धंधा भी खूब चलता था। वह मुझे बार-बार दूर निकल गई भैंसों को घेरने के लिए दौड़ाता रहता था। तकरीबन 8-9 साल का बालक आखिर कितना दौड़ सकता था। बार-बार दौड़ कर मैं थक जाता और भैंस घेरने से मना करता तो सुखबीरा मुझे लालू चूहड़े के लौंडे के साथ भिड़ानेे (कुश्ती) की धमकी देकर ब्लैकमेल करता था। लालू का लौंडा बेशक मेरा हमउम्र ही था, लेकिन मुझसे तगड़ा था और वह आसानी से मुझे पछाड़ सकता था। मुझे कुश्ती में सिर्फ हारने का गम कम, बल्कि एक अछूत से हार जाने का डर, ग्लानि और अपमान अधिक सताता रहता था और इसी मारे बार-बार भैंसों को घेरने दौडऩा पड़ता था। बाकी सब पाल़ी उम्र में बड़े थे और बैठे मौज-मस्ती करते रहते थे। कहने का भाव ये है कि बचपन से ही हममें छूआछूत और ऊँच-नीच के संस्कार कूट कर भर दिए जाते हैं, जिनसे छुटकारा पाना बड़ा मुश्किल है। पूरी तरह से छुटकारा तो शायद ही कभी होता हो। अधिकांश मामलों में तो बिल्कुल नहीं हो पाता बावजूद पढऩे-लिखने के, क्योंकि हमारी शिक्षा पद्धति ऐसी ही थी कि इसमें अच्छा इंसान कैसे बने? ऐसा कोई अध्याय किसी पाठ्यक्रम में पढ़ाया ही नहीं जाता था। आज भी शायद न पढ़ाया जाता हो। यदि होता तो छुआछूत, भेदभाव, पक्षपात, जातिवाद, संकीर्णता, कट्टरता और नफरत जैसी बुरी चीजें कब की खत्म हो चुकी होती।
वाल्मीकि जी से फोन पर लंबी बातचीत एक बार सन् 2006 में माह जनवरी/फरवरी में हुई थी। कंवल भारती द्वारा सम्पादित मोटी पुस्तक ‘दलित निर्वाचित कविताएं’ इतिहास बोध प्रकाशन इलाहाबाद से छपकर आई थी। उसमें वाल्मीकि जी की 12 कविताएं छपी थी। मैंने फोन करके उन्हें बधाई दी, लेकिन पुस्तक उनके पास तब तक पहुंची ही नहीं थी। इसलिए उन्होंने फोन पर ही छपी हुई कविताओं की $फेहरिस्त पूछी और मैंने उन्हें 12 कविताओं के नाम- ठाकुर कूऑं, झाड़ूवाली, दीया, तब तुम क्या करोगे, शायद आप जानते हों, मेरे पुरखे, वह दिन कब आयेगा, बस बहुत हो चुका, कभी सोचा है, मुट्ठी भर चावल, वे भूखे हैं और पेड़ बता दिये । उनके छपने का क्रम और स्थान आदि सारा विवरण भी बताया। अन्य कवियों के नाम भी उन्होंने पूछे तो मैंने क्रमश: उनको बता दिए-सर्वश्री मलखान सिंह, जय प्रकाश कर्दम, जय प्रकाश लीलवान, श्योराज सिंह बेचैन, मोहन दास नोमिशराय, असंग घोष, सी.बी. भारती, सुशीला टाक भौरे और रजनी तिलक, विपिन बिहारी, नवेन्दु महर्षि, सुखबीर सिंह, मुकेश मानस, अशोक भारती, शांति यादव, कंवल भारती सरीखे 16 दलित हिन्दी कवि वाल्मीकि जी के संग छपे हैं। गुजराती, तेलगू, बंगला, असमी, पंजाबी, मलयालम और मराठी भाषा की 38 कवियों की दलित कविताएं भी इसी पुस्तक में छपी हैं। ऐसा मैंने वाल्मीकि जी को फोन पर ही बताया था। बाद में पुस्तक भी उनको मिल गई होगी।
सन् 2006 का एक और प्रसंग वाल्मीकि जी से जुड़ा है। मैंने हरियाणवी लोक भाषा में एक लंबी कविता लिखी थी, जिसमें 40 बन्द थे, जोकि दलित उत्पीडऩ, आर्थिक, सामाजिक उत्पीडऩ और खापों के उत्पीडऩ से संबंधित थे। मैंने उसको ‘न्याय चालीसा’ शीर्षक दिया था और पाण्डुलिपि वाल्मीकि जी के पास भेजी थी कि वे उस पर अपनी राय दें और फ्लैप के लिए टिप्पणी भी लिख दें। उन्होंने सार्थक टिप्पणी भी लिखी और सलाह दी कि कविता को ‘चालीसा’ का नाम न दें। उससे ‘हनुमान चालीसा’ जैसा भाव ध्वनित होगा। उनकी सलाह वाजि़ब थी। मैंने पुस्तक और कविता का शीर्षक ‘जब इंसाफ कहीं न होता हो’ उपशीर्षक ‘अन्याय गाथा’ कर दिया।
वाल्मीकि जी से तीन बार साक्षात् मुलाकात हुई-एक बार मधुबन (करनाल) पुलिस अकादमी में डिनर पर। वहीं पता चला कि उन्हें बिरयानी बहुत पसंद है और तब तक मैंने बिरयानी कभी देखी भी नहीं थी। दलित चिंतक, लेखक डॉ० सुभाष चन्द्र भी उस डिनर में हमारे साथ ही थे।
1 दिसंबर, 2010 को दूसरी बार उनके साथ डिनर का मौका देहरादून में मिला। कुरुक्षेत्र से एक प्राध्यापक मित्र के बेटे की बारात देहरादून जानी थी और मेरा नाम बारातियों की सूची में शामिल था। चलने का प्रस्ताव आ गया तो मैंने शर्त रखी कि मेरा एक मित्र देहरादून है, उसे सपत्नीक बारात में शामिल करने की अनुमति हो तो मेरा चलना संभव हो सकता है। बारात जाटों की थी । इसके लिए मैंने मित्र का नाम और जाति का भी खुलासा कर दिया। लड़के वालों ने मंजूर कर लिया तो हम बारात में देहरादून पहुंचे। वाल्मीकि जी को पहले फोन कर रखा था और स्थिति बता रखी थी । वहां पहुंच कर फोन किया और उनकी नई पुस्तक ‘अब और नहीं’ लेते आने का आग्रह भी। वाल्मीकि जी थोड़ा विलम्ब से पहुंचे और हमने पहले अपनी-अपनी किताबों की अदला-बदली की, फिर कुछ स्नैक्स वगैरह एक ही प्लेट में खाए। ड्रिंक से उन्होंने उस दिन मना कर दिया । क्योंकि उनके साथ एक बच्ची भी थी। (शायद श्रीमती चन्दा की भांजी) और उन्होंने डिनर के बाद उसको छोडऩे उनके घर जाना था। श्रीमती चन्दा दोनों बार उनके साथ ही थी।
तीसरी मुलाकात शायद 14-15 अप्रैल 2012 (सही समय याद नहीं) कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में सीनेट हाल में दलित साहित्य पर आयोजित एक कार्यक्रम में हुई थी। वाल्मीकि जी सपत्नीक उपस्थित थे। राजेेंद्र बडग़ूजर ने दलित लोक गायक दयाचंद मायना (सांगी) की रागनियों की पुस्तक का विमोचन उनके हाथों से कराया था। बाद में पुस्तक पर बोलते हुए उनका आक्रोश भी झलका कि जिस ग्रंथावली का उनसे विमोचन कराया गया है, उसकी अनेक रागनियों में सामन्ती विचारों और मूल्यों की भरमार है। उन्होंने अफसोस सा प्रकट किया कि ऐसे ग्रंथ का विमोचन उनके हाथों से हो गया है। हालांकि राजेंद्र बडग़ूजर ने हाल ही में हमें बताया है कि दरअसल दयाचंद मायना को पं० लख्मीचंद समझ कर वह उक्त टिप्पणी कर गए थे। मायना की रचनाएं उन्होंने पढ़ी ही नहीं थी। अब यह बात तो रहस्य ही बनी रहेगी कि वाल्मीकि जी किस वजह से नाराज और उत्तेजित हुए थे।
कुछ साल पहले महर्षि दयानंद यूनिवर्सिटी रोहतक में भी ओम प्रकाश वाल्मीकि जी को किसी संस्था द्वारा बुलावा गया था। वह मंच पर मौजूद थे और वहां दलित साहित्य पर विमर्श चल रहा था। उन्होंने बहस सुनते हुए आक्रोश प्रकट किया कि वहां पर वक्ता बिना उनके साहित्य को पढ़े ही अधिकारपूर्वक असंगत टिप्पणी कर रहे हैं। वहां काफी हंगामा खड़ा हो गया था। इस प्रकरण बारे वाल्मीकि जी ने मुझे फोन पर विस्तार से उस घटना बारे खुद ही बताया था।
वाल्मीकि जी ऊर्जावान, मेधावी, प्रखर लेखक तो थे ही, वह समर्पित अभिनेता-नाटककार भी थे। उन्होंने 69 से अधिक नाटकों में अभिनय किया। कई नाटकों में पति-पत्नी दोनों ने साथ काम किया। अनुवाद और आलोचना में भी उन्होंने हाथ आजमाया था, परन्तु उनकी आत्मकथा ‘जूठन’ को सर्वाधिक ख्याति मिली और रचनात्मक साहित्य में वह मील का पत्थर बन गई, जिसका देशी-विदेशी अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। कई पाठ्यक्रमों में उनकी रचनाएं शामिल हुई हैं। अपने 63 साल के सीमित जीवन में साहित्य जगत में उन्होंने बहुत ख्याति प्राप्त की। उनका व्यक्तित्व बहुत आकर्षक था और लेखन की भाषा भी खूब परिष्कृत है। फिर भी वह लोक भाषा से प्यार करते थे और उसकी खुलकर सराहना करने से संकोच नहीं करते थे।
उनकी बीमारी की सूचना मुझे प्रैस से मिली, जिसमें इलाज के लिए आर्थिक सहयोग की अपील भी थी। मैंने जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव चंचल चौहान को फोन किया और आर्थिक सहायता तथा उपयुक्त चिकित्सा जुटाने में मदद की गुज़ारिश की। चचंल ने बताया कि वे प्रतिनिधि मंडल लेकर कांग्रेस के बड़े नेता हरीश रावत और दिल्ली में साहित्य अकादमी के पदाधिकारियों से मिल चुके हैं। धन का इंतजाम शीघ्र हो जाएगा और अच्छे अस्पताल में उनका इलाज चल रहा है। फिर फोन किया तो उन्होंने बताया कि पांचेक लाख रुपए की सहायता का प्रबंध हो गया है और इलाज चल रहा है। बाद में फोन किया तो चंचल ने बताया कि वाल्मीकि जी पुस्तक मेले मे मिले थे। प्रसन्नचित दिख रहे थे। आशा करते हैं कि संकट टल गया है और वे शीघ्र पूर्ण स्वस्थ हो जाएंगे। इस बात का आभास नहीं था कि वह हमें छोड़ कर इस तरह चले जाएंगे। उनसे अंतिम समय में न मिल पाने का अफसोस हमेशा मन में रहेगा। बहरहाल 19 नवम्बर 2013 को दिल्ली में डिफैंस कालोनी में उनकी शोक सभा में शामिल हुआ। उनकी अनुपस्थिति साहित्य जगत को देर तक सालती रहेगी, क्योंकि उनकी रचनाओं में जीवन धड़कता है। इसके नमूने ‘जूठन’ में भी सब जगह बिखरे पड़े हैं। पाठक कुछ नमूने यहां भी पढ़ सकते हैं।
‘अस्पृश्यता का ऐसा माहौल कि कुत्ते-बिल्ली, गाय-भैंस को छूना बुरा नहीं था लेकिन यदि चूहड़े का स्पर्श हो जाए, तो पाप लग जाता था। सामाजिक स्तर पर इन्सानी दर्जा नहीं था। वे सिर्फ जरूरत की वस्तु थे। काम पूरा होते ही उपयोग खत्म। इस्तेमाल करो, दूर फैंको।’
‘त्यागियों के बच्चे ‘चुहड़े का’ कहकर चिढ़ाते थे। कभी-कभी बिना कारण पिटाई भी कर देते थे। एक अजीब-सी यातनापूर्ण जिंदगी थी, जिसने मुझे अंतर्मुखी और चिड़चिड़ा, तुनकमिजाजी बना दिया था। स्कूल में प्यास लगे तो हैंडपमप छूने पर बवेला हो जाता था। लड़के तो पीटते ही थे। मास्टर लोग भी हैंडपम्प छूने पर सजा देते थे। तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जाते थे, ताकि मैं स्कूल छोड़ कर भाग जाऊँ और मैं भी उन्हीं कामों में लग जाऊँ, जिनके लिए मेरा जन्म हुआ था। उनके अनुसार, स्कूल आना मेरी अनाधिकार चेष्टा थी।’
‘मेरी ही कक्षा में राम सिंह और सुक्खन सिंह भी थे। राम सिंह जाति में चमार था और सुक्खन सिंह झींवर, राम सिंह के पिता जी और माँ खेतों में मजदूरी करते थे। सुक्खन सिंह के पिता जी इंटर कालेज में चपरासी थे। हम तीनों साथ-साथ पढ़े, बड़े हुए, बचपन में खट्टे-मीठे अनुभव समेटे थे। तीनों पढऩे में हमेशा आगे रहे, लेकिन जाति का छोटापन कदम-कदम पर छलता रहा।’
‘हैडमास्टर ने लपककर मेरी गर्दन दबोच ली थी। उनकी ऊँगलियों का दबाव मेरी गर्दन पर बढ़ रहा था। जैसे कोई भेडिय़ा बकरी के बच्चे को दबोच कर उठा लेता है। कक्षा से बाहर खींच कर उसने मुझे बरामदे में ला पटका। चीखकर बोले, ‘जा लगा पूरे मैदान में झाडू…..नहीं तो गांड में मिर्ची डाल के स्कूल से बाहर काढ़ (निकाल) दूंगा।’
अब हम संविधान की चाहे जितनी कसमें खाएं। हर साल डॉ० अम्बेडकर की जयंती मनाएं, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता दिख रहा है। ओम प्रकाश वाल्मीकि की पीढ़ी भी वही कुछ झेल रही है, जो कुछ अम्बेडकर साहब ने भुगता था। जैसा कि हमें वाल्मीकि की आत्मकथा पढ़कर पता चल जाता है।
लेकिन समाज में अन्य जातियों में भी एक ऐसा नौजवान शिक्षित वर्ग पैदा हुआ है, जिससे हमारी साक्षात् भेंट वाल्मीकि जी के इलाज के दौरान होती है। इन शिक्षित नौजवानों ने किस तरह अंतिम समय में उनके मन के सब क्लेश और कड़वाहट धो डाली थी। ये हमें खुद वाल्मीकि जी के अंतिम संस्मरण पढ़कर पता चला। हम इस पीढ़ी के इन होनहार नौजवानों पर गर्व किए बिना नहीं रह सकते हैं, क्योकि ये ही वो लोग हैं, जो समाज परिवर्तन के आंदोलन के वाहक बन सकते है:
‘मैंने चंदा से कहा, ‘देखो तुम परेशान रहती थी कि हमारा कोई अपना बच्चा नहीं है, ये बच्चे जो इस वक्त जातपात भूल कर जिस तरह मेरी सेवा कर रहे हैं, क्या हमारे अपने बच्चे इनसे ज्यादा कर सकते थे? शायद नहीं…ये कौन हैं हमारे? क्या रिश्ता है इनसे? फिर भी रात-रात जाग कर मेरी देखभाल कर रहे हैं, बिना किसी स्वार्थ के, क्या ये मेरे अपने नहीं हैं? इन बच्चों ने यह साबित कर दिया है कि समाज बदल रहा है, जिसे पहचानना ज़रूरी है। मेरी तमाम शिकायतें धराशायी हो गई थीं। डॉ० पल्लव, डॉ० देवेंद्र चौबे मेरी इस त्रासदी में हर पल मेरे साथ थे। नमिता गोखले, अशोक वाजपेयी, रेखा अवस्थी, मुरली बाबू, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, रविन्द्र कालिया, अलोक जैन (भारतीय ज्ञानपीठ), अशोक माहेश्वरी (राजकमल प्रकाशन) मेरे साथ खड़े थे और इस बीमारी से लडऩे के लिए मेरा हौसला बढ़ा रहे थे। इन सबका मेरे साथ खड़ा होना मेरे सोच और मान्यताओं को बदल रहा था….।’
‘मुकेश और कौशल पंवार ने रात-दिन हर तरह से मेरा साथ दिया। मेरी ताकत बने। डॉ० गुलाब, हेमलता महीश्वर का अपनापन और सहयोग मेरे जीवन की उपलब्धि है। कैलाश चंद चौहान के बारे में जो भी कहूंगा, वह कम ही होगा। इस त्रासद घड़ी ने एक पारिवारिक, बेहद आत्मीय मित्र दिया, जिसे मैं जीवनभर अपना बनाकर रखने की कोशिश करता रहूंगा। असंग घोष ने मेरे लिए जो कुछ भी किया, उसे शब्दों में नहीं बांधा जा सकता है। मुझे जीने का एक मकसद दे दिया है। मेरे पुराने मित्र शिवबाबू मिश्र लगातार मेरा हौसला बढ़ाते रहे हैं। कैलाश वानखेड़े आदि मित्रों का सहयोग मिलता रहा है।
‘ब्लॉग, फेसबुक आदि के जरिए अनिता भारती, रजनी तिलक, अशोक पाण्डेय ने जिस तरह मुझे पाठकों से जोड़े रखा, वह मेरे लिए गहरे विश्वास का कारण बना रहा। आज सोचता हूं इस त्रासद घड़ी ने जहां मुझसे बहुत कुछ छीना है, वहीं मुझे बहुत कुछ ऐसा भी दे दिया है, जिसने मेरे भीतर जीने की एक गहरी ललक पैदा कर दी है। एक बहुत बड़े परिवार से मुझे जोड़ दिया हे। जहां न जाति की दीवारें हैं, न धर्म की।
और अन्त में वाल्मीकि जी की एक छोटी कविता के साथ अपने संस्मरणों पर फिलहाल विराम लगाता हूँ :
लोहा-लंगड़। गारा-सीमेंट। ईंट-पत्थर,
सभी पर है। स्पर्श हमारा। लगे हैं जो घरों में आपके
फिर भी बना दिया आपने। हमें अछूत और अन्त्यज।
भंगी-डोम-चमार। माँग-पासी और महार।
छूना भी जिन्हें पाप। हिस्से में जिनके सि$र्फ।
उपेक्षा और उत्पीडऩ।
‘जाति’ कही जाए जिनकी नीच। आप बता सकते हैं।
यह किस सभ्यता और संस्कृति की देन है? 4
संदर्भः
1. ‘जूठन’ पृष्ठ-11, राधकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली।
2. वही
3. यदि किसी पाठक की नज़र में वह पत्र/पत्रिका कहीं आये तो कृपया सूचित करें या फोटो कॉपी भेजने का कट कष्ट
जरूर करें।
4. अब और नहीं