नव जागरण के अग्रदूत डॉ. ओ.पी. ग्रेवाल – ओमसिंह अशफाक

डा. ओमप्रकाश ग्रेवाल

पृष्ठभूमि और परिवार :

डॉ. ओम प्रकाश ग्रेवाल का जन्म (6-6-1937—24-1-2006) जिला भिवानी (हरियाणा) के गांव बामला में एक साधारण किसान-परिवार में हुआ था। उनमें वे सभी राग-द्वेष, गुण-अवगुण होने चाहिएं थे जो हर साधारण इन्सान में प्राय: होते हैं। शायद रहे भी होंगे? परन्तु उनका बड़प्पन इस कारण है कि उन्होंने सचेत ढंग से इन सीमाओं का अतिक्रमण किया। अपने व्यक्तित्व का विशिष्ट विकास किया और वे इसमें किस कदर सफर रहे- यह आज हम सबके सामने खुली किताब की तरह स्पष्ट है। अपने अध्यापन के शुरूआती और मध्य दौर तक उनमें आदर्शवाद ज्यादा प्रभावी रहा होगा। हमें बाद में पता चला कि इस आदर्शवाद के चलते ही उन्होंने अपने छोटे भाई प्रताप सिंह (अब स्वर्गीय) और अन्य परिजनों को भी कई अवसरों पर न केवल निराश किया, बल्कि नाराजगी का कारण भी बने। प्रताप सिंह छोटी उम्र में ही कुरुक्षेत्र में उनके पास रहकर पढ़ाई करने आ गया था। 12वीं कक्षा में बायलॉजी की पै्रक्टिकल परीक्षा होनी थी। प्रताप को पता चला कि उनके अनेक सहपाठी तो प्रैक्टीकल परीक्षा के लिए सिफारिश करा चुके हैं और थियोरी की परीक्षा में उनसे ज्यादा अंक हासिल करने के बावजूद वह उनसे मैरिट में पिछड़ सकता है। लिहाजा प्रताप ने बालसुलभ प्रलोभनवश सिफारिश की जिज्ञासा डॉ० ग्रेवाल के समक्ष प्रकट कर दी। डॉ. ग्रेवाल ने प्रताप को ऐसी झाड़ लगाई कि बच्चे का मन अपने प्रति ग्लानि से भर गया और तद्जनित निराशा, नाराजगी में जा बदली, जोकि वर्षों तक प्रताप के जहन में खड़ी रही, जब तक कि वह कामयाब वेटेनरी सर्जन बनकर सरकारी नौकरी में एडजस्ट नहीं हो गया। उसके बाद ज्यों-ज्यों प्रताप में परिपक्वता आती गई और सामाजिक विकास एवं सम्बंधों की उसकी समझ डॉ० ओ.पी. ग्रेवाल के बड़े उद्देश्य को समझने और आत्मसात करने के लायक बनती गई, त्यों-त्यों प्रताप के लिए डॉ० ओ.पी. ग्रेवाल एक विलक्षण प्रतिभा-पुंज, यथार्थवादी चिंतक, परिवर्तनकारी-प्रेरणादायी व्यक्तित्व में परिवर्तित होते गए। इसके बाद प्रताप के लिए वे बड़े भाई के दर्जे से अत्याधिक ऊपर उठकर पिता, गुरु, पथ-प्रदर्शक और भविष्यवेत्ता की स्थिति में पहुंच चुके थे। उनके व्यक्तित्व के इस गुण का प्राय: सभी जिज्ञासुओं पर ऐसा ही असर पड़ता था। मेरा खुद का अनुभव भी इससे अलग नहीं है। एकाध वाक्या का संक्षिप्त जि़क्र करने की कोशिश आगे करूंगा

भाई की मौत :

लेकिन इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि जब प्रताप सिंह ग्रेवाल एक काबिल पशु वैज्ञानिक बनने की स्थिति में पहुंचे और देश को उनकी रिसर्च से बहुत लाभ मिलने की आशाएं बंधनी शुरू हुई, तभी ब्रेन हैमरेज के प्रहार के रूप में मौत ने उनको हमसे छीन लिया और उनके असमय ही छोटे-छोटे बच्चों और जवान पत्नी को छोड़कर यूं चले जाने का डॉ० ओ.पी. ग्रेवाल को शायद सबसे ज्यादा आघात पहुंचा, लेकिन अपनी तर्कसंगत सोच और व्यापक दृष्टिकोण के चलते डॉ० ग्रेवाल ने खुद को उस दुखद स्थिति से जल्दी ही निकाल तो लिया, लेकिन उस आघात के कुछ जख्म स्थायी तौर पर उनके भौतिक शरीर के अंदर भी लग चुके थे। नतीजतन जल्द ही उन्हें हृदयघात हुआ, जिसके प्राणांतक- परिणाम से तो तत्काल समुचित उपचार मिल जाने से बच निकले, लेकिन शुगर की समस्या और रक्तचाप का उतार-चढ़ाव भी हृदयरोग के साथ चल पड़ा, लेकिन साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक काम में उनकी व्यवहारिक सक्रियता और ज्यादा बढ़ गई। पता नहीं इस कारण कि उन्हें अपने प्रति ये अहसास शायद हो गया था कि उनका शरीर लंबे समय तक उनका साथ नहीं दे पाएगा, इसलिए कम से कम समय में अधिक से अधिक काम सम्पन्न करने का संकल्प उन्होंने मन ही मन कर लिया था, जिसे किसी के सामने प्रकट भी नहीं किया और उसी गति, तल्लीनता, जोश और हंसमुख स्वभाव के साथ वे अंत तक काम में जुटे रहे, जब तक कि बे्रेन कैंसर के अंतहीन इलाज और तद्जनित कमजोरी ने उन्हें बिस्तर पर पडऩे के लिए मजबूर नहीं कर दिया। वही समय उनके लिए जीवन में शायद सबसे कष्टकर समय रहा। मन चाहता होगा कि उठकर काम पर लगा जाए और शरीर साथ नहीं निभाता था। बे्रन ट्यूमर बनने की प्रक्रिया में ही उनकी ‘बेहतर आंखÓ की रोशनी भी चली गई, जिससे उनकी सबसे प्रिय गतिविधि – अध्ययन भी बंद हो गया।

दूसरा आघात :

प्रताप की असामयिक मृत्यु के बाद पढऩे-लिखने का ये काम बिल्कुल छूट जाना शायद उनके जीवन का दूसरा बड़ा आघात था। मेरी राय में पढऩा-लिखना उनके तई संसार की सबसे प्यारी और जरूरी गतिविधि थी, जो उनके लिए ऑक्सीजन का काम करती थी और उनके मुलायम शरीर में ऊर्जा संचार करके उन्हें अनथक शक्ति से भर देती थी, बस, बीच-बीच में चाय के कई दौर चलते रहते थे, जोकि रात में तो वे खुद ही बनाया करते थे। सिगरेट पीने की आदत शायद उन्होंने पी.एच.डी. के सिलसिले में अमरीकी-प्रवास (रिचेस्टर यूनिवर्सिटी) के दौरान ही सीखी होगी और वहां से लौटने के कुछ समय बाद ही उन्होंने इससे मुक्ति पा ली थी। फिर शेष जीवन में हमने तो कभी उनको धुम्रपान करते नहीं देखा था। हालांकि हम कई साथी उनके समक्ष धुम्रपान करते ही थे। पर वे इस बुरी आदत को भी व्यक्तिगत निर्णय मान कर छूट देते रहे और कभी भी किसी से इस कारण खिन्न होते नहीं देखे गए।

आदर्शवाद की सीमाएं :

आदर्शवाद के प्रसंग में एक घटना और सुनने में आई थी। जब ग्रेवाल साहब के ज्येष्ठ पुत्र संजीव ने 12वीं (साईंस) की परीक्षा पास की थी, तब रीजनल इंजीनियरिंग कालेज, कुरुक्षेत्र (आर.ई.सी.के.) में मैरिट के आधार पर ही दाखिला होता था, प्रवेश-परीक्षा का चलन शुरू नहीं हुआ था। बाकी जगहों पर भी शायद ऐसा ही होता रहा होगा? लिहाजा संजीव ग्रेवाल का मैरिट के आधार पर आर.ई.सी.के. में दाखिला हो गया। आजकल उस संस्थान का नाम नेशनल इंस्टीच्यूट आफ टैक्नोलोजी (एनआईटी) हो गया है और वह शायद डीम्ड यूनिवर्सिटी भी बन गया है। घर में जब डॉ० ओ.पी. ग्रेवाल को बेटे के दाखिले की सूचना दी गई तो वे संजीव के इस निर्णय पर बिगड़ गए। कहने लगे-क्या हो जाएगा इंजीनियर बनकर? पहले क्या अपने देश में इंजीनियरों की कमी है, जो तुम उस फौज में शामिल होना चाहते हो? देखते नहीं हो अखबारों में रोजाना ही कोई पुल टूट जाने या किसी स्कूल की बिल्डिंग ढह जाने की खबर आती रहती है। कितने ही बेकसूर इन्सानों को जान गंवानी पड़ती है। वहां जाकर तुम भी उन जैसे ही बन सकते हो? यदि देश और समाज के लिए कुछ करना है, तो इकॉनोमिक्स पढ़कर देश की गरीबी और जहालत का कोई हल निकालो! जिससे समाज में खुशहाली आए और तरक्की के कुछ रास्ते निकल सकें।….बताते हैं कि संजीव ने इंजीनियर बनने का ख्याल तभी छोड़ दिया और बी.ए. में दाखिला लेकर इकॉनोमिक्स पढऩे लगा और पढ़ाई के साथ-साथ छात्र संघर्षों में भी शामिल रहने लगा। फलत: वह स्टूडैंट फैडरेशन आफ इंडिया (एस.एफ.आई) की हरियाणा राज्य इकाई का उपप्रधान चुन लिया गया। बी.ए. (प्रथम वर्ष) पास करते-करते छात्र आंदोलन की बदौलत कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय प्रशासन ने उसके अगली कक्षा में दाखिले पर रोक लगा दी। अत: मजबूरन बी.ए. द्वितीय में उसे यमुनानगर के किसी कालेज में दाखिल होकर स्नातक की डिग्री पूरी करनी पड़ी। मेधावी छात्र होने के कारण एम.ए. की पढ़ाई के लिए उसे दिल्ली विश्वविद्यालय के ‘स्कूल आफ इकॉनोमिक्सÓ में प्रवेश मिल गया और वहां उसने दिल्ली विश्वविद्यालय को टॉप कर दिखाया, बाद में फैलोशिप लेकर अमेरिका (पिं्रसटन यूनिवर्सिटी) जाकर पी.एच.डी. पूरी की और डॉ० संजीव ग्रेवाल बनकर आजकल दिल्ली सेंट स्टीफन कालेज में अर्थशास्त्र पढ़ा रहे हैं।
सुबोध की पहल : हालांकि छोटे बेटे सुबोध के 12वीं कक्षा पास करते वक्त तक डॉ० ओ.पी. ग्रेवाल भी अपने आदर्शवाद की सीमाओं से शायद ज्यादा परिचित हो चुके थे। उन्हें ये अहसास भी कहीं न कहीं था कि बच्चों पर अपने निर्णय थोपना शायद उचित नहीं है। दूसरे, इंजीनियरिंग की पढ़ाई में भी उस वक्त तक नए-नए ट्रेड खुल चुके थे। कम्पयूटर और आई. आई.टी. का जमाना आ चुका था, जिसमें नित नई खोजों की गुंजाईश तो थी ही, भ्रष्टाचार के कदम भी वहां अभी तक पहुंचे नहीं थे। इसलिए जब सुबोध ने इंजीनियरिंग में दाखिले का निर्णय लिया तो ग्रेवाल साहब ने शायद कोई विरोध नहीं किया। इलैक्ट्रोनिक्स इंजीनियर बनकर सुबोध ने कुछ वर्ष भारत की कुछ कम्पनियों में नौकरी की और बाद में अमरीका चला गया। इंजीनियर सुबोध ग्रेवाल भी आजकल किसी बड़ी कम्पनी में हैदराबाद में कार्यरत है।

ज्योति का त्याग :

तीनों संतानों में सबसे छोटी है- ज्योत्सना उर्फ ज्योति जिसने शिक्षा के क्षेत्र में पिता के रास्ते पर चलना चाहा और अंग्रेजी साहित्य में एम.फिल तथा पी.एच.डी. करके कई साल रादौर (यमुनानगर) के एक इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ाती रही, परन्तु डॉ० ओ.पी. ग्रेवाल की बीमारी और अंत में उनकी देह के अवसान और तद्जनित मां के अकेलापन को समझते हुए ज्योति रादौर की नौकरी छोड़ कर कुरुक्षेत्र ही चली आई, हालांकि वहां आकर वेतन और पद दोनों ही दृष्टि से उसे काफी नुक्सान उठाना पड़ा। हम सब ज्योति के इस त्याग और ममता की बेहद कद्र करते हैं और करनी चाहिए भी। फिर भी उसको देख-समझ कर अभी भी यही लगता है कि जैसे वह एक छोटी सी बच्ची है और ग्रेवाल साहब की गोद में झूल रही है। हालांकि वह खुद साढ़े तीन साल के एक बच्चे की मां बन चुकी है। उसका बेटा अर्जुन करीब दो साल तक नाना-नानी यानि डॉ० ओ.पी. ग्रेवाल और श्रीमती उर्मिल ग्रेवाल के सान्निध्य में पला बढ़ा। उस छोटे बच्चे को नाना से अत्यधिक स्नेह था। उनके देहांत के हफ्तों बाद तक उनसे मिलने का उसे बेसब्री से इंतजार रहा। शुरू मेें तो कई दिनों तक वक्त से खाना और दूध पीना भी छोड़ दिया था। भाषा उसके पास तब तक थी नहीं, बस एक ही रट लगी रहती थी-नाना…नाना…लेकिन नाना कहां से आ सकते थे? लिहाजा उनकी फोटो दिखाकर या खेल-खिलौनों में उसका ध्यान बंटाकर उसको कुछ खिलाया-पिलाया जाता रहा। समय धीरे-धीरे सभी के जख्मों को भर देता है। लिहाजा वह मासूम भी सब्र का पाठ पढऩा सीख गया। पता नहीं क्यूं मुझे लगता है कि ये बच्चा अपने नाना और बड़े मामा की तरह जीनियस है और उनके नक्शे-कदम पर जा सकता है। कुदरत उसे सहयोग करे, यही कामना कर सकते हैं। ये बात भी काबिले तारीफ है कि ज्योति और उसके पति संजय ने अपनी मम्मी उर्मिल ग्रेवाल के साथ लगकर डॉ० ओ.पी. ग्रेवाल की बीमारी के दौरान जो संभाल और सेवा की-वैसा आजकल कम ही दिखाई देता है। शायद यही वजह रही कि श्रीमती ग्रेवाल भी अंत तक हिम्मत संजोए रही और एम्स (एआईएमएस) दिल्ली में भी तथा घर पर भी उनकी तीमारदारी में कोई कसर नहीं छोड़ी। बेशक बातचीत में कह देती थी कि अब में थक चुकी हूं, पता नहीं मुझसे कुछ हो पाएगा या नहीं।

दोस्त और बड़े भाई का फर्क :

डॉ० ओ.पी. ग्रेवाल उम्र में मुझसे करीब साढ़े 12 साल बड़े थे। मेरे दो बड़े भाईयों की उम्र का अंतर भी यही कोई 10 और 12 साल है। इसलिए मेरे जहन में उनसे मुलाकात के बाद यही छवि बनी रही कि वे मेरे बड़े भाई के समान ही है, लेकिन जब घनिष्ठता बढ़कर अनौपचारिक हो गई तो मुझे पता चला कि उनकी तरफ से ये रिश्ता दोस्ती का है और वहां छोटे-बड़े जैसी कोई बात है ही नहीं! अपने इस दृष्टिकोण की पुष्टि उन्होंने सन् 2003 में लिखकर भी कर दी थी। मेरे प्रथम कहानी-संग्रह ‘आज का सचÓ की भूमिका लिखना उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। हालांकि उस वक्त वे छोटे भाई डॉ० प्रताप सिंह ग्रेवाल की मृत्यु के आघात से पूरी तरह शायद उबर भी नहीं पाए होंगे, लेकिन वे जानते थे कि पढऩा और लिखना ही उनकी इस परेशानी का भी समाधान करेगा। उन्होंने लिखा- ‘ओम सिंह मेरे उन आत्मीय मित्रों में से हैं जिनके साथ एक शहर में रहते हुए मैंने पिछले 20-25 सालों के दौरान अनेक साहित्यिक गोष्ष्ठियों तथा स्थानीय स्तर की सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में भागीदारी की है…उनके प्रथम कहानी संग्रह का प्रकाशित होना और उनकी रचनाओं का इस प्रकार व्यापक पाठक समुदाय के सामने एक साथ प्रस्तुत होना मेरे लिए व्यक्तिगत रूप में एक अत्यंत सुखद और महत्वपूर्ण घटना है….।Ó खैर, भूमिका तो साढ़े पांच पृष्ठ की है और उसमें साहित्यिक दृष्टि से कई महत्वपूर्ण बातें लिखी गई हैं, परन्तु उनकी चर्चा करने का यहां प्रयोजन नहीं है। यह भी संभव है कि उक्त भूमिका ही उनके जीवन का अंतिम लिखित साहित्यिक दस्तावेज हो, क्योंकि बाद में उनकी बीमारी बढ़ती गई जिसने उनकी नेत्र ज्योति छीन ली और वे कुछ भी पढऩे-लिखने से वंचित हो गए थे। उद्धृत पंक्तियों से इस तथ्य का खुलासा तो हो ही जाता है कि डॉ० ओ.पी. ग्रेवाल सृजनात्मक-साहित्य को कितना ज्यादा महत्व देते थे। उस समय वे देश के प्रतिष्ठित-समीक्षक आलोचक गिने जाते थे और मैं किसी गिनती में नहीं था। जाहिर है कि मेरा पहला ही कहानी संग्रह छप रहा था और वे उसकी भी भूमिका खुशी से लिख रहे थे। बिना ये सोचे कि वे दो-दो भाषाओं और साहित्य के बड़े विद्वान हैं, बड़ी हस्ती हैं (जोकि वे थे) और मैं नौसिखिया कथाकार! खैर अमरीका- पलट विद्वान कहलाना उन्हें अच्छा नहीं लगेगा। हालांकि पी.एच.डी. वहीं से की थी। हैनरी जेम्स पर उनका शोध बहुत महत्वपूर्ण माना गया है, लेकिन नहीं, वे रचनाकार को मन से सम्मान देते थे। दिखावे के वे कभी भी कायल नहीं रहे। अनेक अनुभव ऐसे हैं, जब हमने स्वयं देखा है कि वे नए-नए उभरते हुए कवियों, कथाकारों, शायरों की रचनाएं कितनी उत्सुकता और तल्लीनता से सुनते, आत्मीयता से विवेचना करते थे और उनकी खूबियों तथा खामियों से साक्षात् करवा देते थे। यही वह गुण था कि नए से नया रचनाकार भी उनके पास जाने, उनको रचना सुनाने और विमर्श करने में कोई झिझक महसूस नहीं करता था। उनसे मिलकर और अधिक उत्साहित और समृद्ध होकर लौटता था। उनके सान्निध्य में हरियाणा में दर्जनों रचनाकारों ने अपना साहित्यिक विकास किया। इस संदर्भ में स्व. सरबजीत, तारा पांचाल, राजबीर, सुभाष, करूणेश, प्रदीप कासनी, ब्रजेश कठिल, दिनेश दधीचि, राम कुमार आत्रेय, रविन्द्र गासो, कर्मजीत सिंह, हरभगवान चावला, देश निर्मोही, विजय अस्थाना, के.के. ऋषि, रोहताश, सुशील, सरोज, अशोक भाटिया, पृथ्वी अरोड़ा, बलदेव महरोक, रणवीर दहिया, मंगत राम शास्त्री, महावीर दुखी, रामफल जख़्मी, अविनाश सैनी, मदन भारती, दीपा, रविन्द्र बत्तरा, नरेश प्रेरणा, मंजीत राठी, अश$फाक आदि कितने ही नामों का उल्लेख किया जा सकता है। आबिद आलमी और बलबीर राठी तो उन्हीं की पीढ़ी के हैं।

तार्किक समझ और पारदर्शी नजर :

समाज बारे उनकी समझ बहुत पैनी और स्पष्ट थी। कई बार लगता, क्या इनके पास कोई ‘एक्सरे’ मशीन है जो मन की बात भी बिना बताए जान जाते हैं। हमारी आर्थिक दिक्कतें हों- बच्चों की पढ़ाई- नौकरी का मसला हो, मन में कोई वैचारिक द्वंद्ध चल रहा हो, इसकी जानकारी उन्हें यथाशीघ्र हो जाती थी और उपयुक्त सुझाव पाकर हम उन संकटों से उबर जाते थे। अब महसूस होता है कि यह उनकी तर्कसंगत समझ और वस्तुनिष्ठ विश£ेषण का नतीजा होता था कि हमें समस्याओं के कारण समझ आ जाते थे और उनकी सलाह से हौसला पाकर हम अपनी कठिनाइयों से पार पाने की दिशा में सही प्रयास कर सकते थे। किसी परेशानी की स्थिति में तो उनसे मिलकर बहुत राहत मिल जाती थी। स्थितियों का उनका विश्लेषण और संभावित परिणाम बहुत सटीक बैठते और उबारने में उपयोगी साबित होते। इसलिए ऊपर एक जगह मैंने संकेत किया था कि कई बार हमें वे भविष्यवेता की तरह लगने लगते और हम हैरान होकर सोचते थे कि इन्हें पहले से ही घटनाओं-स्थितियों का पता कैसे चल जाता है? ये शायद उनकी विवेकशीलता, तर्कसंगत सोच और विस्तृत अध्ययन-अनुभव का ही परिणाम रहा होगा।

आत्मीयता से सराबोर :

आत्मीयता भी ग्रेवाल साहब के व्यक्तित्व का विशिष्ठ गुण है जिसका बार-बार स्मरण होता हे। उनके सभी मित्र एवं सहयोगी इस तथ्य से बखूबी वाकिफ हैं। उन्हें प्राय: सब मित्रों-सहयोगियों के बच्चों के नाम, वे पढ़ाई की किस अवस्था में हैं? पढऩे में कैसे हैं? क्या विषय पढ़ रहे हैं? हमारी गृहणियों की क्या दिक्कतें हैं? किसका कैसा स्वास्थ्य है? इन सब मसलों की तथ्यपरक जानकारी रहती थी। हालांकि काम में व्यस्तता के चलते एवं मित्रों के घरों-परिवारों में जल्दी-जल्दी जा पाना उनके लिए प्राय: संभव नहीं हो पाता था, लेकिन वे अपने ‘मन के कम्प्यूटर’ की मेमोरी की सूचनाओं को शायद अपडेट करते रहते थे। जाहिर है यह बात किसी भी व्यक्ति के लिए तभी संभव हो सकती है, जब वह बेहद आत्मीयता के साथ किसी से जुड़ाव महसूस करता हो? हर घर-परिवार में उनका अतिरिक्त सम्मान और प्रभाव होने के पीछे शायद यह भी एक कारण रहा है। दोस्तों-मित्रों की पत्नियां भी पति से नोंकझोंक होने पर प्राय: इसी धमकी का इस्तेमाल करती थीं कि ये बात ग्रेवाल साहब को बताई जाएगी और हमारी किसी बुरी आदत अथवा ज्यादती की शिकायत वे उनके सामने नि:संकोच भाव से कर भी देती थीं, लेकिन वे बातों-बातों में उनका समाधान सुझा कर फौरन ही माहौल को तनावमुक्त करते हुए संबंधित पक्षों को अपनी-अपनी गलती का अहसास भी करा देते थे और किसी को कुंठित या अपमानित भी नहीं होने देते थे। लिहाजा चंद मिनटों बाद ही हंसी-मजाक के फव्वारे फिर चलने शुरू हो जाते थे और हम स्वयं को पहले से बेहतर इंसान बना पाते थे।

नैतिक ताकत का स्रोत:

अब यही पछतावा रह गया है कि किसके सामने शिकायत करेंगे और किसके सामने अपील। पूरे राज्य और समाज में आज हमारा कोई भी इतना आत्मीय और शुभचिंतक नहीं रह गया है, जिसके सामने जाकर दिल का दर्द उड़ेला जा सके, जो हमें पोर-पोर, रोम-रोम समझता हो, जो हमारी कमजोरियो को जानता हो और उनसे उबरने की ताकत दे सकता हो। अब किसके संग ठहाके लगाकर हंसा करेंगे, किसके संग अंतर्मन के दुखड़े नि:संकोच कह सकेंगे? किसके सहारे
संघर्ष के लिए शक्ति जुटा सकेंगे। समस्याएं बहुत हैं, दुखड़े अनंत हैं। पर उनका अंत करने वाला ही जैसे चला गया है। कभी मन कहता है कि साहित्य में घुसो! ग्रेवाल साहब को साहित्य से अत्यधिक प्यार था। शायद हमें भी उन जैसी जादू की छड़ी वहां पड़ी मिल जाए। मन फिर डगमग होता है कि संघर्ष को भी वे बहुत अहमियत दिया करते थे। इसलिए जनसंघर्ष में घुसना चाहिए। पिछले 7-8 महीने से यही उधेड़बुन मन को मथती रहती है। संभव है संयत होने पर कुछ बात बने। कहते हैं समय भी जख़्मों को भरने का काम करता है।

इधर कुछ लिखा है?:

एक प्रश्न तो बार-बार मन में कौंधता है। मिलते ही यह जरूर पूछते थे- इधर क्या कुछ लिखा है- इसलिए उनके पास जाते समय जेब में कोई ताजा कविता, कोई कहानी लेकर जाना हमेशा याद रहता था, चाहे वह रचना अपने सृजन की प्रक्रिया में ही चल रही हो। कई बार कच्ची-पक्की रचनाओं पर ही उनकी अमूल्य राय हमें प्राप्त हो जाती थी, जोकि रचना के समूचित विकास की दिशा हमें दिखला जाती थी। पता नहीं मुझ जैसे साधारण लेखक में उन्हें कौन सी संभावना दिखती थी? लेकिन उनके इस प्रश्न से मुझे ये बड़ा लाभ हुआ कि मैं हतोत्साहित होकर नहीं बैठा और कुछ न कुछ पढ़ता-लिखता रहा। अन्यथा उस समय की व्यवसायिक पत्रिकाओं में मुझ जैसे लेखक के कथानक छपते नहीं थे और लघु पत्रिकाओं से मेरा परिचय शायद हो नहीं पता, जिनको मैं अधिकतर ग्रेवाल साहब के विमर्शों से ही जान पाया था। इस प्रकार साहित्यिक-दोस्ती ने ही हमारी पारिवारिक दोस्ती की बुनियाद रखी थी। हम उनके लिए भी भी कर गुजरने को तत्पर रहते थे। जानकार लोग कहते हैं और सही ही कहते हैं कि ग्रेवाल साहब ने हरियाणा में रचनाकारों-लेखकों की पूरी पीढ़ी विकसित करके नवजागरण का वो काम शुरू कर दिखाया, जोकि पहले नहीं हो सका था, फिर भी अपनी सहृदयता, सादगी और विनम्रता के चलते वे रचनाकार को ही बड़ा मानते रहे, जबकि स्वयं अपने भीतर विश्वभर के रचनाकारों को ताउम्र साथ लिए चलते रहे। अंग्रेजी और हिन्दी साहित्य के तो विलक्षण विद्वान वे थे ही, संसार की प्राय: सभी भाषाओं के उत्कृष्ठ साहित्य और चिंतन की विशद जानकारी उनके जहन में मौजूद रहती थी।

साहित्य सृजन और आलोचना :

साहित्य सृजन और आलोचना को लेकर ‘ग्रेवाल साहब’ (सम्मान और प्यार में हम उनको इसी तरह संबोधित करते थे) के विचार व्यक्तिगत स्तर तक मौलिक और विशिष्ठ थे। मैंने उन्हें कई बार कहते सुना था कि क्रिएटिव-लेखन जिस रूप में मौलिक होता है, आलोचनात्मक लेखन उस शक्ल में मौलिक नहीं है।…. ‘मेरे जैसा आदमी भी आलोचना का काम कर सकता है, जिसने कभी एक कविता या एक कहानी भी नहीं लिखी।’ यह उनका सादगी और विनम्रतापूर्ण बड़प्पन ही है अन्यथा जितना महत्वपूर्ण लेखन आलोचना के क्षेत्र में उन्होंने किया है उसका मूल्य सृजनात्मक लेखन से कम नहीं है। वे बेझिझक रचना को आलोचना से ज्यादा महत्वपूर्ण और बड़ा काम मानते थे और उसे अतिरिक्त सम्मान दिया करते थे। शायद यही वजह है कि वे अपने विश्वविद्यालय में भी एक रचनाकार क्लर्क को अपने गैर रचनाकार प्रोफैसर सहयोगी से ज्यादा आदर देते हुए देखे जाते थे। ऐसे मौकों पर उनके सहयोगी प्रोफैसर साहिबान प्राय: ये निष्कर्ष निकाल कर अपनी जिज्ञासापूर्ति करते कि अमुक क्लर्क भी जरूर कोई ‘कामरेड ही होगा? क्योंकि वे ग्रेवाल साहब को भी कामरेड ही मानते थे और इस संबंध की विशिष्ठता को अपने ही ढंग से पहचानते-परिभाषित करते थे। जाहिर है इसमें भी वे सब लोग एकमत नहीं होते थे, बल्कि ‘जितने मुंह उतनी बात’ वाली बात यहां लागू हो सकती थी। इस बारे सबके अपने-अपने मत होते।’

फर्ज और प्रतिबद्धता :

डॉ० ओ.पी. ग्रेवाल के पढ़ाए एक दर्जन से भी ज्यादा छात्र हरियाणा राज्य प्रशासन में और हरियाणा से बाहर उच्च प्रशासनिक पदों पर हैं। इनमें अनेक वरिष्ठ आई.ए.एस. और आई.पी.एस. हैं। प्राय: देखने में आता रहा है कि ये सभी पूर्व छात्र अफसर ग्रेवाल साहब का अत्यधिक सम्मान करते हैं। इस बाबत मैंने ग्रेवाल साहब से पूछा तो पता चला कि हमेशा उनकी प्राथमिकता अपने छात्रों की संतुष्टि रही है। हमेशा कक्षा में पूरी तैयारी के साथ जाना, पीरियड मिस नहीं करना और पढ़ाते समय पसीना-पसीना हो जाना अक्सर उनको देखा जाता रहा है। उनका अधिकतर कार्यकाल अंग्रेजी साहित्य की एम.ए., एम.फिल. क्लास और पी.एच.डी. के लिए शोध कार्य के निर्देशन में ही बीता है। उन्होंने कभी अपने फर्ज से कोताही नहीं की और अपनी प्रतिबद्धता से कभी समझौता नहीं किया। फिर भी प्रशासन कभी उनका कुछ बिगाड़ नहीं सका, जबकि वे शिक्षकों के हकों के आंदोलन में हमेशा अगली कतार में पाए जाते थे। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से प्रोफैसर बनकर रोहतक विश्वविद्यालय में जिन दिनों वे गए, तो वहां हरद्वारी लाल (अब स्वर्गीय) कुलपति के पद पर थे। उनके रहते ही वहां उनके खिलाफ शिक्षकों का आंदोलन शुरू हो गया। शिक्षक संघ ने मरणव्रत (भूख हड़ताल) पर बैठने का निर्णय ले लिया, तो भी डॉ० ओ.पी. ग्रेवाल सबसे पहले बैठे और अपने जीवन को दांव पर लगा दिया। हालांकि वह खुद इस निर्णय के पक्ष में नहीं थे, लेकिन बहुमत के निर्णय का उन्होंने आदर किया। विभिन्न कारणों के चलते आंदोलन तो शायद सफल नहीं हो पाया, लेकिन ग्रेवाल साहब को इसकी कीमत चुकानी पड़ी और वे प्रोफैसर का पद त्याग कर वापिस कुरुक्षेत्र रीडर के पद पर ही आ गए थे, लेकिन कुलपति की तानाशाही के समक्ष समर्पण नहीं किया। बाद में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में प्रोफैसर, डीन अकादमिक आदि महत्वपूर्ण पदों पर रहे, लेकिन शिक्षक वर्ग की प्रतिष्ठा और मान-सम्मान की लड़ाई में कभी पीछे नहीं हटे, हमेशा आगे ही रही, इसलिए उनके वैचारिक-विरोधी शिक्षक भी उनका बहुत सम्मान करते हैं।

निजी स्वार्थ और कैरियरवाद से परहेज :

चौधरी देवीलाल जब हरियाणा के मुख्यमंत्री थे, तो प्रो. डी.आर. चौधरी के जरिए डॉ० ग्रेवाल के पास कुलपति के पद का ऑफर भी आया था, जिसको उन्होंने अत्यंत विनम्रतापूर्वक नामंजूर कर दिया था। बाद में, उनके छात्र रहे प्रो. भीम सिंह दहिया भी कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के कुलपति बने, तो उनकी सगी भतीजी सुनीता (शायद यही नाम है) का लेक्चरार के पद के लिए इंटरव्यू हुआ, लेकिन उसका चयन नहीं हो सका। जब हमने इस बारे मालूम किया तो पता चला कि ग्रेवाल साहब ने कुलपति को इंटरव्यू तक की सूचना भी नहीं दी थी, सिफारिश करना तो दूर की बात है। अपने पूर्व छात्र अफसरों के मामले में भी उनकी यही आदत थी कि वे कभी उनको अपने व्यक्तिगत काम के लिए नहीं कहते थे। हां सामाजिक-सामुदायिक काम है तो जरूर फोन कर दिया करते। जहां तक आमदनी का सवाल है और वे पी.एफ. से हमेशा ही पैसा निकालते रहते थे जिससे बच्चों की शिक्षा और अन्य अतिरिक्त खर्चे चल सकें। ट्यूशन उन्होंने कभी नहीं की। हां, उनके छात्रों को छूट थी कि किसी भी वक्त घर आकर भी उनसे कुछ समझ सकते थे, अपनी समस्या का समाधान करवा सकते थे, लेकिन ट्यूशन पढ़ाना और पैसे लेकर पढ़ाना वे अनुचित मानते थे।

लोक समाज और हास्य विनोद :

अपनी वेशभूषा और चेहरे-मोहरे से तो बेशक वे शहरी-भद्रजन लगते थे, लेकिन हरियाणवी ग्रामीण समाज और ग्रामीण बोली-बाणी में भी उनका अंदाज ठेठ देशज और ठाठ निराला ही था। ग्रामीण समाज में प्रचलित लोकोक्तियों, कहावतों और मुहावरों का भी उनके पास बेजोड़ खजाना था, जिसको वे उपयुक्त अवसरों पर खोला करते थे। घर से बाहर तो अक्सर ‘अंग्रेजी-पढ़े जैंटलमैन’ की छवि ही अक्सर झलकती रहती थी, ग्रामीण समाज में प्रचलित हास्य -विनोद बारे उनका अनुभव बहुत मौलिक एवं गहरा था। इस समाज के अंतर्मन को वे गहराई से समझते थे। बताते हैं कि भिवानी इलाके में पहले पानी की बहुत कमी थी, इसलिए गुड़ और गन्ने का अभाव रहता था। रात के वक्त खाना खाने के बाद जब गांव के लोगों की महफिल जुटती तो राजा-रानी और भूत-प्रेतों के किस्से भी छिड़ जाते। कोई कहता कि जींद वाले राजा के पास हजारों घोड़े, सैंकड़ों हाथी और न जाने कितनी फौज-पलटन और माल-असबाब है। तभी कोई दूसरा प्रतिक्रिया दे डालता-‘भाई राजा की के रीस सै, राजा चाहे तो खाट कै गुड़ के पाए लगवा ले!’ जाहिर है कि इस मासूम प्रतिक्रिया पर कोई भी हंसे बिना नहीं रह सकता। बाद में पानी पहुंचा, नहरें बनी तो गन्ना भी पैदा होने लगा, लेकिन नई जिंस थी, इसलिए गुड़ बनाना आता नहीं था। लिहाजा गुड़ के इलाके से यू.पी. से गुड़ पकाने वाले कारीगर लाए जाते थे। जब सर्दी का मौसम खत्म करके वे वापिस अपने गांवों-घरों को लौटते तो वहां उनके पड़ौसी-अड़ौसी पूछते कि हरियाणा के लोग कैसे हैं? उनका रहन-सहन, बोल-चाल कैसी है? बकौल डॉ० ग्रेवाल- ‘भैया, पूछो मत। भूतन की बात छिड़ी तो भूतन की और बलधन की छिड़ी तो सारी रात बलधन की चलती रहत।’ कहते हैं कि लड़की को शादी के बाद उसका छोटा भाई जब उसे ससुराल से लिवाने गया तो वहां उसे गेहूं की पतली-पतली रोटी और घी-बूरा परोसा गया जोकि रिवाज था। उसे इस भोजन में अत्यधिक मजा आया। तब उसने अपनी नवविवाहित बहन को संबोधित करके कुछ इस तरह अपनी खुशी का इजहार किया-‘जीजी! बूरा-माँडे गेल मेल मेरा सै ना, इसा किसो का ना….!’ ये सब कहावतें मैंने खुद ग्रेवाल साहब के मुंह से ही सुनी थीं। इस मुद्दे पर यूं तो कई मित्र उनका साथ दिया करते थे, परन्तु प्रो. टी.आर. कुंडू इस विषय में सबसे सक्षम साथी हुआ करते। जब दोनों की जुगत मिलती तो ठाठ देखने लायक होता और श्रोताजन हंसी के फव्वारे छोड़ते-छोड़ते लोट-पोट हो जाया करते थे। अब लगता हैे कि उस अखाड़े में कुंडू साहब भी अकेले रह गए हैं। शायद ही कोई ऐसा जोड़ीदार उन्हें मिल सकेगा, जहां गांव की चौपाल के अंदाज में नहले पर दहला चलता रहे और श्रोताओं के पेट में हंस-हंस कर बल पड़ जाएं । यूं इस संगत में प्रो. रणबीर सिंह, प्रो. बलदेव सिंह, प्रो. सूरजभान, प्रो. डी.आर. चौधरी, प्रो. ईश्वर सिंह गुर भी अचछा साथ निभाते रहे, परन्तु मुझे प्रो. कुंडू और प्रो. ग्रेवाल साहब की संगत को सुनने के ही अधिक मौके मिल सके हैं।

साहसी भी, डरपोक भी :

आपको ये उप-शीर्षक विरोधाभाषी, असंगत और विचित्र लगता है, क्योंकि इसमें एक बुनियादी-विरोधाभाष है, लेकिन ऐसा भी कभी-कभी हो जाया करता है। किसी विशेष मौके पर साधारण मनुष्य भी अत्यधिक शौर्य पराक्रम दिखा सकता है और किसी अन्य विशेष मौके पर निडर सेनापति भी घबरा जाया करता है, क्योंकि साहस और भय दोनों ही प्रवृति इंसान के भीतर मौजूद होती हैं और अवसर अनुकूल उनका प्रभाव बदलता रहता है। एक बार विश्वविद्यालय परिसर में किसी गुंडे ने सड़क पर सरेआम किसी लड़की को छेड़ दिया। संयोगवश प्रो. ग्रेवाल वहां से गुजर रहे थे, तो अचानक उनकी नजर पड़ी। उन्होंने चीते की तरह झपट कर उस बदमाश का हाथ पकड़ लिया। बदमाश ने टोन्ट किया-तेरी बहन लगती है? ग्रेेवाल साहब ने माकूल उत्तर दिया- हां लगती है और तू फौरन दफा हो जा। बदमाश ने तुरंत खिसकने में ही भलाई समझी। ये वही ग्रेवाल साहब थे जो सड़क पर चलते हुए पीछे से साइकिल की तेज आवाज से भी चौंक जाया करते थे, क्योंकि उनकी नजर कमजोर थी और चश्में के लैंस बहुत मोटे थे, जिस कारण फासले का सही-सही अंदाजा शायद नहीं हो पाता था।

साहित्यिक-सांस्कृतिक अवदान :

डॉ. ग्रेवाल के साहित्यिक-सांस्कृतिक योगदान को 10-20 पंक्तियों या चंद पृष्ठों में समेट देना बहुत मुश्किल काम है। दरअसल, इसके लिए तो एक स्वतंत्र-विस्तृत लेख की जरूरत है। फिर भी मैं सरसरी तौर पर कुछ बिंदुओं पर रोशनी डालने की कोशिश करूंगा। राष्ट्रीय स्तर और राज्य स्तर पर अनेक साहित्यिक-सांस्कृतिक मंचों-संगठनों में न केवल उनकी लंबे दौर तक साक्रिय हिस्सेदारी रही, बल्कि कई संगठनों के तो वे संस्थापक सदस्य ही थे। सन् 1980 में पूरे देश के हिन्दी-उर्दू के लेखकों को संगठित करके उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर ‘जनवादी लेखक संघ’ की स्थापना करवाई, जिसमें देश के अधिकांश प्रगतिशील जनवादी लेखक जुड़े और इस तरह ‘जलेस’ लेखकों का सबसे बड़ा संगठन बनकर उभरा, जिसके वह कई बार अध्यक्ष एवं महासचिव चुने गए। रंगकर्मियों एवं सांस्कृतिक कर्मियों के लिए उन्होंने सफदर हाशमी की शहादत के पश्चात ‘सहमत’ नाम के मंच की स्थापना में विशिष्ट योगदान दिया। हरियाणा में ‘जनवादी सांस्कृतिक मंच’ और बाद में ‘जनवादी लेखक संघ’ के मुख्य निर्माता रहे। हरियाणा में साक्षरता के प्रसार के लिए उन्होंने ‘हरियाणा ज्ञान-विज्ञान समिति’ की स्थापना करवाई, जिसकी देखरेख में राज्य के कई जिलों में साक्षरता अभियान चलाए गए। आज एच.जी.वी.एस. के पास 500 से अधिक कलाकारों नाट्य कर्मियों की टीमें हैं, जो पूरे राज्य में सामाजिक जागरूकता का काम दिन-रात कर रही हैं। इस संगठन के कलाकार न केवल वैचारिक पिछड़ापन दूर करने का महत्वपूर्ण काम करते हैं, बल्कि राज्य में जहां कहीं भी सामाजिक उत्पीडऩ एवं अन्याय की घटनाएं घटती हैं, वहां पर सबसे पहले पहुंच कर न्यायपूर्ण हस्तक्षेप करते हैं और सामाजिक सौहार्द एवं ताने-बाने को टूटन से बचाने, सामुदायिक माहौल को बिगाडऩे से बचाने का काम भी करते हैं। साक्षरता एवं जागरूता के अभियानों को समुचित मागदर्शन देने और हरियाणा की सामाजिक समस्याओं पर शोध कार्य करवाने के लिए उन्होंने ‘राज्य संसाधन केंद्र, हरियाणा’ (सर्च) की स्थापना करवाई, जिसके वो विशिष्ट परामर्शदाता रहे। गौर करने वाली बात यह भी है कि उनकी कार्यशैली ‘आगे दौड़, पीछे छोड़’ वाली कभी नहीं रही, बल्कि उपरोक्त सभी संगठनों-मंचों से वे मृत्यु पर्यन्त जुड़े रहे और जब तक स्वस्थ रहे, अपना अमूल्य समय एवं वैचारिक-बौद्धिक श्रेष्ठ इन मंचों को देते रहे। हरियाणा में ‘जन नाट्य मंच’ के गठन में उन्होंने विशेष रूचि ली थी। आज इसके कई कलाकार एन.एस.डी. (राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय) के स्नातक बन चुके हैं और फिल्मों अथवा टी.वी. सीरियल में न जाकर गांवों-बस्तियों में नाटक कर रहे हैं। उन द्वारा बनाया गया ‘जनवादी विचार मंच’ कुरुक्षेत्र कई बड़े आयोजन कई साल तक करता रहा। हरियाणा के सांस्कृतिक, साहित्यिक, बौद्धिक वातावरण पर उपरोक्त मंचों का कितना और कैसा प्रभाव पड़ा, यह भी एक शोध का विषय है और हो सकता है। कुछ लोग इस दिशा में पहल करके हमें बता सकें कि ग्रेवाल साहब के जाने के बाद हमारे प्रयासों की दिशा और दशा कैसी हो? ताकि हमारा समाज और ज्यादा गति से सही दिशा में तरक्की के रास्ते पर आगे बढ़ सके।

उनका साहित्यिक पक्ष और भी ज्यादा विस्तृत है। विभिन्न भाषाओं के जितने ख्यातिलब्ध लेखकों-रचनाकारों से उनका व्यक्तिगत सम्पर्क और मिलना-जुलना था, उसका हमारे पास समुचित रिकार्ड तो नहीं है, हां उनके लिखे समीक्षात्मक लेखेंा से ही हम कुछ-कुछ अंदाजा लगा सकते हैं या फिर उनकी फोन डायरी से, जोकि संबंधों की अंतरंगता और गहराई बारे कोई मदद नहीं करती है। हां, एक प्रामाणिक स्त्रोत था-उनके पास आई चिट्ठी-पत्रियां, लेकिन वे सब तो रिटायर होने से कई साल पहले उनकी गैर हाजरी में बेची गई पुरानी पत्रिकाओं-किताबों-अखबारों के साथ रद्दी में चली गई, जो ेकि बहुत साहित्यिक विवेचना के ही होते थे और वही उनकी दोस्ती का आधार तैयार करते थे। सिलसिलेवार पूरी बहस उनकी चिट्ठियों में चलती थीं। इनके इस तरह गुम जाने पर वह कई दिनों तक आहत रहे थे। हां, उनके कुछ पत्र डॉ० रमेश उपाध्याय, सम्पादक ‘कथन’ के पास जरूर सुरक्षित बचे हैं, जिनमें से कुछेक उन्होंने ‘कथन’ में प्रकाशित भी किए हैंं। हिन्दी की पुरानी पीढ़ी के लेखकों में वे प्रेम चंद को सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण मानते थे, हालांकि प्रेमचंद की पीढ़ी के शेष बड़े लेखकों के प्रति भी उनके मन में यथोचित सम्मान था ही। क्लासिक हिन्दी साहित्यकारों में सबसे प्रखर कबीर को मानते थे। भारतेन्दू, राहुल सांकृत्यायन, रांघेय राघव, यशपाल, भीष्म साहनी, फणीश्वरनाथ रेणू, राही मासूम रजा, नागार्जुन, शील, हरीश भादानी, नजरूल, निराला, मुक्तिबोध की साहित्यिक विरासत और परम्परा से डॉ. ग्रेवाल बखूबी परिचित थे और बाद की पीढिय़ों के नए लेखकों को उस परम्परा को समूद्ध और संवर्धन करने हेतु हमेशा प्र्रेरित एवं प्रोत्साहित करते रहते थे। उर्दू के समकालीन लेखकों में शहरयार, जुब्बैर रिजवी, इस्राईल से उनकी अच्छी घनिष्ठता थी। हिन्दी में शेखर जोशी, दूधनाथ सिंह, मार्कण्डेय, उदय प्रकाश, स्वयं प्रकाश, मंगलेश डबराल, रघुवीर सहाय, आलोकधन्वा, असद जैदी, अरूण कमल, इब्बार रब्बी, कुमार विकल, एकांत श्रीवास्तव, विमल कुमार आदि उनके प्रिय कथाकार-कवि थे, जिनकी रचनाओं के संदर्भ वह बातचीत में और रचना गोष्ठियों में अक्सर दिया करते थे। अरअसल उनके लेखकों-रचनाकारों की सूची बहुत लंबी है, मैं कितना भी स्मरण करूं, अनेक नाम फिर भी रह जाएंगे। सभी नामचीन लेखकों, आलोचकों, चिंतकों, सम्पादकों से उनका विशिष्ठ स्नेह था-नामवर सिंह, राजेंद्र यादव, ज्ञानरंजन, कमला प्रसाद, नमिता सिंह, अजय कुमार, कुंवरपाल सिंह, मोहन दास नेमिश्राय, ओम प्रकाश वाल्मीकि, सूरजपाल चौहान, शिव कुमार मिश्र, भैरव प्राद गुप्त, चंद्रबली सिंह, राजेश जोशी, ललन राय, गुरदयाल सिंह, कांतिमोहन सोज, चंचल चौहान, स्वदेश दीपक, विकास-विभूति राय आदि अनेक नाम हैं। वरिष्ठ कवि मनमोहन व शुभा से तो इतनी ज्यादा निकटता थी कि प्राय: हर महीने मुलाकात हो ही जाती होगी, बावजूद नियमित फोन सम्पर्क के।

नये रचनाकारों के लिए उनका विशेष आग्रह यही होता था कि सृजन के साथ-साथ देश और दुनिया का श्रेष्ठ साहित्य भी जमकर पढ़ा जाए और अपने ज्ञान का विस्तार किया जाए। उस ज्ञान को फिर ‘अपने अनुभव के साथ जोड़ कर जांच-परखा जाए और इस संशलिष्ट प्रक्रिया से गुजर कर जो रचनात्मक लेखन हमारे सामने आएगा, वह अधिक गुणवत्तावान होगा’ अफसोस ये भी है कि हम अभी तक उनकी अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पाए हैं।

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