रात भर लोग अंधेरे की बलि चढ़ते हैं – ओम सिंह अशफाक

ओमसिंह अशफाक 

आबिद आलमी
(4-6-1933—9-2-1994)

पिछले दिनों अम्बाला में तरक्की पसंद तहरीक में ‘फिकोएहसास के शायर’ जनाब आबिद आलमी हमसे हमेशा के लिए बिछड़ गए। उनका मूल नाम रामनाथ चसवाल था, परन्तु शायरी की दुनिया में वे ‘आबिद आलमी’ के नाम से मशहूर हुए। उनका जन्म 4 जून 1933 को जिला रावलपिंडी की गूजनखान तहसील के गांव ददवाल में हुआ था। आजीवन अपनी शायरी में भी इंसानी जिन्दगी की बेहतरी के लिए जद्दोजहद करने वाले मरहूम आबिद आलमी ने यूं तो अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. करके अध्यापन को आजीविका का जरिया बनाया था, परन्तु उर्दू भाषा से उन्हें बेहद प्यार था और गजलों-नज्मों की शायराना खूबसूरती, अंदाजेबयां, न$फासत एवं ताकत पर वे बेहद भरोसा करते थे। उनके इस हौसले की झलक उनकी शायरी में भी बखूबी देखी जा सकती है।
ताजिंदगी उनके सामने आलम कुछ ऐसा रहा कि मौकापरस्ती को उन्होंने कभी पास नहीं फटकने दिया, निजी स्वार्थ को कभी तरजीह नहीं दी और उनकी माली हालत लगातार कमजोर ही बनी रही। एमरजेंसी के दौर में गवर्नमैंट कालेज टीचर्स एसोसिएशन में सक्रिय होने की बदौलत पहले उन्हें नौकरी से मुअत्तल और फिर बर्खास्तगी झेलनी पड़ी। बहरहाल जनता सरकार आने पर नौकरी में बहाल हुए। महेंद्रगढ़, भिवानी, रोहतक और गुडग़ांव की जमीन उनका मैदान-ए-जंग बनी। भगत सिंह अध्ययन केंद्र भिवानी को गतिशील रखने में उनकी अहम् भूमिका रही। वे हरियाणा के जनवादी सांस्कृतिक मंच, जनवादी लेखक संघ और प्रयास तथा जतन पत्रिकाओं के सूत्रधारों में से थे।
उक्त पत्रिकाओं के सम्पादन-प्रकाशन तथा सम्मेलनों, संगोष्ठियों और वैचारिक सांस्कृतिक गतिविधियों में हमेशा उनकी शिरकत रहती थी। वे ‘जलेसÓ हरियाणा के अध्यक्ष भी रहे। वे अपनी शायरी के लिए तो मशहूर थे ही उससे भी ज्यादा एक निष्ठावान और ईमानदार शिक्षक के रूप में उनकी छवि थी। शिक्षा की रक्षा और विकास के लिए तथा शिक्षकों के हितों की खातिर संघर्ष में वे हमेशा आगे रहा करते थे। हरियाणा के शिक्षा जगत में उन्हेंं विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त थी।
दमे की दुसाध्य बीमारी ने पिछले तीन साल से उनें बिस्तर से जकड़ दिया था। अक्सर उन्हें आक्सीजन सिलेंडर का सहारा लेना पड़ता था। ऐसी हालत में भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और जरा सा दम सधते ही बच्चों तथा परिवार की हिम्मत बंधाते हुए कहते थे कि दमे के ये हमले मुझे परास्त नहीं कर सकते। ऐसे में उनके जेहन से शायरी भी उमड़ती थी। गत 9 फरवरी की रात को अनहोनी का होना तय था। लगातार 48 घंटे बैठकर दमे से जूझते बीत गए थे। अंतत: उन्होंने अपने दोनों हाथ हवा में उछाले और पास बैठे बेटे से ‘अलविदा-अलविदा’ कहते हुए इस दुनिया से कूच कर गए।
उनकी नमों की पहली किताब ‘दायरा’ 1971 में छपी और गजलों का दूसरा संग्रह ‘नए जाविए’ 1990 में हरियाणा साहित्य अकादमी के सहयोग से ‘जलेस’ भिवानी ने छापा। किताब के नाम से ही जाहिर है कि जिंदगी और दुनियादारी की उन्होंने ‘नए कोण’ से देखने-समझने की कोशिश की थी। उनके चुनिंदा शेर यहां प्रस्तुत हैं :
जिनको हर रोज नई राज गुजर होती है। जाने क्या शौक लिए उनकी नजर होती है। रातभर लोग अंधेरे की बलि चढ़ते हैं। ‘आबिद’ इस शहर में तब जाके सहर होती है। सामाजिक बदलाव का आह्वान उनकी प्राय: हर गजल में रहता है-बगुलों का बुलावा आ चुका है, देखते क्या हो? चलो कदमों में अब तो रासता है, देखते क्या हो? अब भी वक्त है ए दोस्तो इसको बदल डालो। बहुत जहरीली आबोहवा है, देखते क्या हो?
शायरी में कल्पनाशीलता की उड़ान और चुनौती देने के हौसले की एक मिसाल देखिए-

नजर से आगे नए फासले तलाश करें।
वो जो ख्याल में है रास्ते तलाश करें

ये आसमां तो सफर को बहुत कम निकला।
चलो कि चल के नए मरहले तलाश करें।

उनकी मुश्किलतर जि़ंदगी के तल्ख तजुर्बों की खूबसूरत बानगी उनके शेरों में कुदरती रूप में आ जाती है, लेकिन निराशा-हताशा का कोई संकेत नहीं मिलता है-

शहर-ए-हस्ती में तो हम औरों से पीछे थे ही।
कत्लगाहो में भी थी लंबी कतारें आगे।

उम्रभर पीछा हमारा न खिजा ने छोड़ा।
उम्रभर यारो रही हमसे बहारें आगे।

सियासी हल्कों के दिखावटी और ढोंगी आचरण से उन्हें बहुत पीड़ा होती थी-खोखले लफ्जों का ये शोर उठाकर रख दो। इस तरह देखो कि पत्थर को रूलाकर रख दो। आंख ये बोझ उठा पाएगी आखिर कब तक। अब ये तस्वीर किसी गार में जाकर रख दो।
उनकी खुद्दारी और खिलाफ मौसम में भी उनका अदम्य साहस स्पृहणीय था-ये मैंने माना कुछ उसने कहा है, लेकिन क्या? हमारा हाल सब उनको पता है, लेकिन क्या? मेरी सलीब तो रख दो अदद मेरे कंधों पर। कतार लंबी वक्फा बड़ा है, लेकिन क्या?
सामाजिक, राजनीतिक अंतरविरोधों पर वे इतनी बारीकी और बेबाकी से कटाक्ष करते थे कि सुनने वाला दंग रह जाए-

यूं तो था, सुबह का ऐलान हुआ था यारो।
यूं भी था, छाया था हरसिम्त अंधेरा यारो।

अगले दो शेर लगता है कि जैसे सोवियत संघ के विघटन को मुखातिब होकर लिखे गए हों-

किस तरह रास्ता कदमों से कटा साफ नहीं।
किसने ला फैंकी है ये धुंधली फिजा साफ नहीं।

कारवां सारा कभी यूं भी मिटा सकता है।
कैसे हर शख्स का दम टूट गया साफ नहीं।

बेजा ताकत और दमन के खिलाफ आम आदमी की असहमति की तरफदारी वे इस तरह करते हैं-

किसी जबाान का नहीं है चलन यहां खामोश।
सदा पे टूट के पड़ती है बर्छियां खामोश।

न जाने कौन से लफ्जों का क्या समझ बैठे।
ये कातिलो का नगर है मियां यहां खामोश।

हिंसा, आंतक और सत्ता के सताए लोगों की स्थिति को वे इन लफ्जों में उजागर करते हैं-

पूछते फिरते हैं घरवाले ये घर किसका है।
कौनसी बस्ती है यारो ये नगर किसका है।

घर के आँगन में खिली धूप को भी छू न सके।
काश समझाए कोई मुझको कि डर किसका है।

और फिर खुद ही खौफ के मुखौटे को चीरकर तार-तार कर देते हैं

बस्ती के हर कोने से जब लोग उन्हें ललकारेंगे।
आवाजों के घेरे में वो कैसा वक्त गुज़ारेंगे।

सब कुछ लुटवा बैठे हैं हम बाकी है अब काम यही।
यानि अब रहजन के सर से अपना माल उतारेंगे।

जाहिर है कि आबिद की इस शायरी का रिश्ता इकबाल और फैज़ की तहरीक के बहुत करीब बैठता है। इसमें संगीतात्मक सौंदर्य की उदारता पर ज्यादा जोर है।
आबिद साहब का शायर सुख में दुख में हमेशा जनता के बीच रहना चाहता है-दिल के जख़्मों के लिए जो प्यार का मरहम बने। चलके आबिद छेड़ कोई ऐसा लहरा शहर में
और जिंदगी के 60 साल का सफर तय करते हुए वे लंबे सफर पर दूर निकल गए। इतनी दूर कि जहां से कोई कभी लौट कर नहीं आता। बस उसकी यादें आती रहती हैं-

अब आंधियों के साथ उड़ा जा रहा हूं मैं।
अब कोई संगेमील मुझे रोकता नहीं।

निकला हूं अपने आपसे अपनी तलाश में।
‘आबिद’ मेरे सफर की कोई इंतहा नहीं।

नवभारत टाईम्स नई दिल्ली-19 मार्च 1994

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