शमशेर बहादुर सिंह
(13-1-1911—12-5-1993)
आज से करीब 64 साल पहले मैं शमशेर के इलाके में ही पैदा हुआ था। उनके पैतृक गांव ऐलम (मुज्जफरनगर) से मेरा पैतृक गांव कुरड़ी (बागपत) सिर्फ 18 किलोमीटर की दूरी पर है और गांव में जाते वक्त मुझे अक्सर उनके गांव ऐलम के बीच से गुजरना पड़ता है। ऐतिहासिक शहर पानीपत से ऐलम गांव की दूरी वाया कैराना—कांधला बामुश्किल 40 किलोमीटर है और मुझे अपने गांव जाने हेतु प्राय: यही रास्ता चुनना पड़ता है।
शमशेर आज जीवित होते तो 100 साला बुजुर्ग के रूप में मुझे ऐलम में मिले होते। अभी भी उनके हमउम्र कई बुजुर्ग उस इलाके में मौजूद हैं। उनसे मिल कर कैसा आनन्द प्राप्त होता, यही सोच कर रोमांचित हो जाता हूं और रोहतक में एक बार बाबा नागार्जुन से मुलाकात की यादगार बरबस ताजा हो जाती है। कैसा सुखद संयोग है कि दोनों बड़े कवि एक ही वर्ष 1911 मेें पैदा हुए और इस वर्ष (2011 में) दोनों की जन्मशती है। दो की ही क्यों, केदारनाथ अग्रवाल, अज्ञेय, फैज अहमद फैज और निराला जी का भी जन्मशती वर्ष यही है और रविन्द्रनाथ टैगोर की 150वीं वर्षगांठ भी है।
शमशेर का जन्म 13 जनवरी 1911 को देहरादून में हुआ था और उनके पिता बाबू तारीफ सिंह अंग्रेजी राज में कलैक्टर के दफ्तर में रीडर (पेशकार) थे, लेकिन गांव में सपरिवार उनका आना-जाना होता रहता था। इसलिए शमशेर का ताउम्र ऐलम से भावनात्मक जुड़ाव रहा। साहब बहादुर, रायबहादुर उस कालखंड में सम्मानजनक सम्बोधन और पदवियां हुआ करती थीं-शायद इस कारण उनके पिता ने अपने दोनों बेटों के नाम क्रमश: शमशेर बहादुर और तेज बहादुर रख दिए होंगे। अन्यथा बच्चे जन्मते ही भला उसकी बहादुरी अथवा तेज का परीक्षण कैसे हो सकता है। उनकी माताक्का नाम प्रभुदेई था जो शमशेर के बालकपन (8-9 साल की उम्र) मेें ही चल बसी थी। शमशेर की शुरूआती शिक्षा के.पी. मिशन हाई स्कूल देहरादून में हुई। दसवीं की परीक्षा भी 1928 में देहरादून से ही पास की। वे कम उम्र में ही कविता की तरफ आकर्षित हुए और शेर तथा गजलें लिखने लगे थे। पिता को पता चला तो क्रोधित हुए और उनकी गजलों-कविताओं की डायरी जला दी गई। इंटर की परीक्षा गौंडा से 1931 में पास की और 1933 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. किया। 1935-36 में वे उकील बंधुओं से कला प्रशिक्षण लेते रहे और अच्छे चित्रकार बने। उनकी कविता में भी अनेक जगह उनकी चित्रकारी का प्रभाव झलकता है। 18 साल की उम्र में 1929 में धर्मदेवी से उनका विवाह हुआ, लेकिन छह वर्ष की छोटी सी गृहस्थी के पश्चात ही टीबी से उनकी पत्नी की मौत हो गई, क्योंकि टीबी उस वक्त तक लाइलाज बीमारी थी। शमशेर ने पत्नी की चिकित्सा के साथ-साथ पहाड़ पर सेनिटोरियम में ले जाकर बहुत सेवा-सुश्रुषा की, परन्तु उनकी जान नहीं बच सकी।
पत्नी वियोग ने शमशेर के जीवन को ऐसा मोड़ दिया कि वे ताउम्र अविवाहित रहे। पिता चाहते थे कि शमशेर पुन: विवाह करें। सिविल सेवा चयन आयोग के किसी सदस्य की बेटी के साथ विवाह का प्रस्ताव भी इस प्रलोभन के साथ आया था कि उन्हें डिप्टी कलैक्टर के पद के लिए चुन लिया जाएगा, लेकिन वे अपनी दिवंगत पत्नी के पे्रम को भुला न सके। इस मुद्दे पर पिता-पुत्र के बीच मतभेद भी मुखर हुए और इस स्थिति के चलते 1938 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एम.ए. (इंग्लिश) प्रिवियस करते ही उन्होंने घर छोड़ दिया और एम.ए. फाइनल की पढ़ाई अधूरी ही रह गई। एक बार दिल्ली आए तो लाल किला के पास स्थित जाट फौजी धर्मशाला में एक-दो रात रूक सके, नियम ही ऐसा था। कोई काम इतनी जल्दी मिला नहीं और धर्मशाला से निकाल दिए गए। इस मोड़ पर कोइ्र तांगेवाला मदद को आगे आया और उन्हें अपने घर ले गया। कमरा घर में एक ही था, जिसमें तांगाचालक दम्पति और उसका परिवार सोता था। बाहर छप्पर में सिर छिपाने की जगह मिली और वहीं पर कई रातें गुजारी-मैं वो गुठ्ठल काली कड़ी कूबवाला बैल हूं, काल तुझसे होड़ है मेरी, शीर्षक कविताएं दिल्ली प्रयास के अनुभवों पर आधारित लगती हैं।
‘वह सलोना जिस्म’ टूटी हुई बिखरी हुई, इतने पास अपने, ‘छिप गया वह मुख’, ‘कहीं दूर से सुन रहा हूं’, ‘मौन आहों में बुझी तलवार’, ‘विरह आग से तुम्हें, मैं सुहाग दूं,’ ‘मकई से वे लाल गेहुंए तलवे,’ ‘सजल स्नेह का भूषण केवल’, ‘थरथराता रहा’, ‘गीली मुलायम लटें’ सरीखी कविताओं में कहीं मुखर रूप में तो कहीं पृष्ठभूमि में उनकी पत्नी की यादें जैसे लगातार सफर करती है, योगी की तरह समाधिस्थ होकर हर बार वे साहसी गोताखोर की मानिंद उन यादों की गहरी कंदराओं में उतर जाते हैं और बिम्बों, दृश्यों, प्रतीकों, उपमाओं के जरिए वही जीवंत आदमकद तस्वीर बनाने की कोशिश करते हैं-वही लावण्य, वही काया, वही अनुराग, निश्च्छल एवं सम्पूर्ण समर्पण और प्यार कविता में साक्षात् करना चाहते हैं, परन्तु किसी संकोचवश स्मृति दर्ज उस दृश्य को प्रकटन के मोड़ पर आकर किसी अन्य, बिम्ब, प्रतीक अथवा स्थिति की तरफ मोड़ कर मन्तव्य को जज्ब कर जाते हैं। शमशेर उस आलौकिक सौंदर्य को फिर से देखना—दिखाना भी चाहते हैं और जमाने से छुपाना भी-ऐसी स्थिति बार-बार उनकी इस रंगत की कविताओं में बना करती है।
अजब संयोग है कि ऐलम गांव को भी मेरी तरह शमशेर के अंतिम दर्शन का मौका नसीब नहीं हुआ, क्योंकि अपनी मृत्यु के समय वह अहमदाबाद (गुजरात) में प्रवास करते थे। उससे पहले करीब आठ साल शमशेर सुंदरनगर में रंजना अरगड़े के पास रहे। उन्हें पार्किन्सन नामक बीमारी ने जकड़ लिया था और उसी के बेहतर इलाज की खातिर उनके मित्रों ने उन्हें अहमदाबाद में शिफ्ट किया था। रंजना अरगड़े ने जब शमशेर से सम्पर्क किया तो वे उस समय (1965-1977) दिल्ली विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में उर्दू हिन्दी कोश के सम्पादन-संकलन में व्यस्त थे और वहां कोई जर्मन शोध छात्रा उनकी कविता पर काम कर रही थी। अत: रंजना को प्रतीक्षा करनी पड़ी। बाद में वह उन्हें सुंदरनगर अपने साथ ले गई और वहां विश्वविद्यालय द्वारा आबंटित अपने फ्लैट पर उसने अपनी नेम प्लेट हटाकर शमशेर बहादुर सिंह की नाम पट्टिका लगा दी और दिन-रात उनकी सेवा के साथ-साथ अपना अध्यापन कार्य और शोध भी करती रही। अहमदाबाद विश्वविद्यालय का उनका प्रवास चंद महीने ही रहा और 82 साल की उम्र में ‘काल से शमशेर की होड़’ पर विराम लग गया। विराट जीवन और अनुभव वाले उस महान कवि ने जब इस दुनिया से कूच किया (12 मई, 1993) तो प्रिंट और इलैक्ट्रोनिक मीेडिया के जरिए इस दु:खद समाचार को सुन-देख कर मुझे अपने सीमित ज्ञान पर बेहद गुस्सा आया और पश्चाताप भी हुआ कि मैं क्यों उस महान कवि से अपरिचित रहता रहा।
बहरहाल मैंने इधर-उधर हाथ-पैर मारकर ‘शमशेर की प्रतिनिधि कविताएं’ (चयन एवं सम्पादन नामवर सिंह) जुटाई, उसे देखा-पढ़ा और कुरुक्षेत्र से अपन स्कूटर उठाकर एक दिन सपत्नीक ऐलम गांव में जा पहुंचा। वहां सड़क पर रुक कर किसी से उनके घर का पता जानना चाहा तो उसने असमर्थता प्रकट करते हुए मुझे रेलवे लाईन के दूसरी तरफ प्रधानाचार्य सुखपाल सिंह की बैठक दिखलाई और कहा कि वहां जाकर आपको कुछ पता चल सकता है। मैंने अपनी पत्नी यशोदा को ऐलम में ही एक रिश्तेदार के घर ठहराया और सुखपाल सिंह की बैठक में पहुंचा तो पता चला कि वहं एक-डेढ़ मील दूर ट्यूबवैल पर गए हैं। बैठक में मौजूद लोगों ने एक युवा लड़के को मेरे साथ बिठाया और उसके बताए रास्ते से हम दोनों ट्यूबवैल पर पहुंचे। वहां मैंने अपनी तमाम जिज्ञासा प्रकट की और सुखपाल सिंह के समक्ष उक्त पुस्तक से कई कविताओं की कुछ पंक्तियां पढ़कर सुनाई। वे मुझसे उम्र में बड़े थे और पहले भी किसी अन्य स्त्रोत से शमशेर की कविता देख-पढ़ चुके थे। उन्होंने कहा कि जैसी कविताएं हमने स्कूल में पढ़ी थी, वे कविताएं उससे भिन्न किस्म की हैं और गद्यात्मक हैं। उन्होंने कहा कि कई कविताएं तो हमारी समझ से बाहर ही रह जाती हैं। बहरहाल, मैंने उनसे आग्रह किया कि वे मुझे शमशेर के पैतृक घर भिजवा दें। उन्होंने बताया कि गांव में अब उनके चचेरे भाई कैप्टन विशम्भर सिंह पंवार और उनकी पत्नी रहते हैं। वे दोनों भी बुजुर्ग हैं और शायद उनसे मुझे शमशेर के बारे में अंतरंग जानकारी मिल सकती है।
थोड़ी देर बाद मैं शमशेर के घर में खड़ा था। कप्तान पंवार ने गांधी जी की तरह आधी धोती पहनी हुई थी और आधी कंधों पर ले रखी थी। मेरा परिचय और वहां आने का मकसद जानकर कप्तान साहब बहुत भावुक हो गए। बेशक अपनी जवानी में वे सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिन्द फौज में लड़ाका सिपाही रहे थे। उन्हें ऐसा लगा जैसे मैं शमशेर का कोई संदेश लेकर आया हूं और शमशेर ने खुद ही मुझे वहां भेजा है। हालांकि शमशेर अब इस दुनिया में नहीं थे और यादगार के तौर पर मेरे पास तो बस उनकी कविता की एक किताब थी, जिस पर शमशेर का फोटो भी छपा था। कप्तान साहब से मेरी भेंट दहलीज में हुई थी और छोटा सा आंगन पार करते ही एक सामान्य कमरे में उनकी पत्नी एक खटोले पर लगभग उसी स्थिति में बैठी हुई हाथ के पंखे से हवा झोल रही थी, क्योंकि भादवे का महीना था और चिपचिपी गर्मी अपने चरम पर थी। घाघरी और ओढऩे में ढकी वे मुझे मेरी मां सरीखी प्रतीत हुई। वे चाय बनाने चली गई। मैं और कप्तान साहब फिर से गले मिले, सिसकियों से थर्राये और चोरी-चोरी आंखें पोंछ कर अपना जी सयंत किया। शमशेर के बारे में उनके आत्मीय अनुभव सुने। ‘शमशेर उन्हें तेज बहादुर जितना ही चाहते थे, बहुत स्नेह रखते थे। तेज बहादुर डाक्टर हैं और मध्य प्रदेश में ही सपरिवार रहते हैं।’
इस संक्षिप्त परिचय के बाद तो कैप्टन पंवार तीन-चार बार कुरुक्षेत्र में हमारे पास आए हैं। एक बार साथ में उनका पोता भी था। वे स्वतंत्रता सेनानी हैं, रेल में नि:शुल्क यात्रा कर सकते हैं और एक सहायक को भी साथ में मुफ्त यात्रा की सुविधा है। बिशम्बर जी के सान्निध्य में हमने डा. ओ.पी. ग्रेवाल (अब स्व.) की प्रेरणा और मार्गदर्शन से शमशेर की स्मृति सभा कुरुक्षेत्र विश्विद्यालय में आयोजित की थी। उनके अर्ध सक्रिय भौतिक शरीर की छवि को देखने और कैसेट में उनकी आवाज को सुनने का मेरे जीवन में वह पहला अवसर था, जो उनके निधन के बाद मिल सका था। कुछ अरसा बाद डा. रंजना अरगड़े दिल्ली में उनकी पेंटिग्स की प्रदर्शनी लेकर आई तो एहसास हुआ कि शमशेर अच्छे चित्रकार भी थे। वहीं पर रंजना अरगड़े नामक उस विलक्षण लड़की से मिल कर हम कृतार्थ हुए, जिसने शमशेर के जीवन को अंतिम आठ साल का विस्तार दिया और अपना विवाह भी इसी कारण स्थगित रखा कि पता नहीं भावी पति को एक बीमार वृद्ध का सहचर्य पसंद आएगा अथवा नहीं और उस स्थिति में इस महाप्राण कवि की वैकल्पिक व्यवस्था भला क्या हो सकेगी?
आज उनकी मौत के 18 साल बाद एक बार फिर हम कुछ महत्वपूर्ण संस्मरणों के जरिए उनकी स्मृति से साक्षात्कार करने का प्रयास करते हैं : लेखक सूरज प्रकाश ने अपने स्मृति लेख ‘शमशेर: आखिरी पड़ाव के कुछ अंतिम दिन’ (नभाटा , नई दिल्ली, मई 1993) में हमें शमशेर के व्यक्तित्व से इस तरह परिचित कराया था-‘शमशेर जी चले गए। कवियों के कवि शमशेर। एक बेहतरीन गद्यकार, उत्कृष्ठ कवि, कुशल सम्पादक, संवेदनशील कलाकार और सबसे बढ़कर एक खरे इंसान।’
‘जिंदगीभर फकीरों की तरह रहे और फकीरों की तरह चल दिए। कभी कोई घर नहीं बसाया, लेकिन जहां भी रहे, जैसे भी रहे, वही जगह उनका घर हो गई। जिसके साथ रहे वही उनका परिवार हो गया। जाने से पहले कहते गए-सुबह-सुबह अपनी यात्रा पर निकल जाऊंगा। गेंदे के फूलों से सजाना मेरी अर्थी….शमशेर जी को प्रकृति से, फूलों से, पत्तों से अगाध प्यार था। वे ‘क्या लिखा जाए’ की तुलना में ‘क्या न लिखा जाए’ के बारे में ज्यादा सतर्क रहते थे। शमशेर जी जीता-जागता एन्साइक्लोपीडिया थे। हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत वाङ्गमय का उन्हें अच्छा ज्ञान था। गालिब का पूरा दीवान तथा समकालीन और पूर्ववर्ती रचनाकारों की ढेरों रचनाएं याद थीं। 1935 में वे मात्र 24 वर्ष की उम्र में अपनी संगिनी धर्मदेवी को खो बैठे। पूरी उम्र योगी की तरह आदर्श बने रहे। उनके नाम के साथ कोई विवाद नहीं जुड़ा। बेदाग और साफ-शफ्फ़ाक व्यक्तित्व….।
सुपरिचित कवि, आलोचक, नाट्य चिंतक नेमीचंद जैन और रेखा जैन के परिवार का शमशेर के साथ बम्बई से लेकर इलाहाबाद तक अच्छा साथ रहा है। रेखा जैन ने ‘बहुत पास से शमशेर’ को जाना है। 23 मई, 1993 के उपरोक्त शीर्षक लेख में (नभाटा, नई दिल्ली) वे लिखती हैं-शमशेर के साथ वास्तविक सम्पर्क 1947-48 के आसपास इलाहाबाद में ही बना और वह इतना घनिष्ठ हुआ कि शमशेर जी चाहे जितनी दूर रहे, वह हमेशा घर के व्यक्ति जैसे लगते थे। नेमी जी से उम्र में बड़े होने के कारण वे हमारे बच्चों के ताऊ जी थे और जब बच्चों से मिलते थे तो उनका स्नेहभाव देखते ही बनता था….तेज बहादुर की पत्नी और दो बेटियों-सरोज और इन्दू के इलाहाबाद आने से पारिवारिक घनिष्ठता और बढ़ गई थी, क्योंकि वे हमारी बेटियों उर्मि और रश्मि की हमउम्र थीं। इलिए बच्चे खूब खेलते और धमाचौकड़ी करते थे।
‘उनकीखेलों में ताऊ जी भी शामिल हो जाते थे। शमशेर जी सामाजिक असमानताओं, बुराइयों या किसी के भी दुख से बहुत विचलित हो जाते थे। हर किसी की तकलीफ में मदद करने के लिए तत्पर रहते थे। माक्र्सवाद में विश्वास रखने वाले होकर भी एक मायने में उन्हें गांधी जी का सच्चा अनुयायी कह सकते हैं।’ कविता के बारे में उनका यकीन था कि ‘बात बोलेगी, हम नहीं’ तमाम संकटों के बीच में वे घोषणा करते रहे-‘चूका भी हूं नहीं मैं।’ वे सृजन का निमंत्रण ‘कहीं दूर से सुनते’ रहे और जीवनभर ‘सुकून की तलाश’ कविता में करते रहे। वे देख रहे थे कि ‘घिर गया है समय का रथ’ फिर भी ‘एक आदमी दो पहाड़ों को कुहनियों से ठेलता’ जा रहा है। यह आदमी शायद खुद शमशेर ही था। शमशेर कभी-कभी बड़ी सुरीली आवाज में गाते थे, मगर बाथरूम के अंदर से ही वह आवाज आती थी, बाहर से नहीं।
प्रकाशन-सम्पादन का भी शमशेर को खासा अनुभव था-पहले पंत जी की पत्रिका ‘रूपाभ’ में बाद में ‘कहानी’ पत्रिका में त्रिलोचन के साथ (1939-40) में काम किया। 1945-46 में ‘नया साहित्य’ का सम्पादन बम्बई से किया। 1948 से 54 तक ‘माया’ में रहे और बतौर सहायक सम्पादक ‘नया पथ’ और ‘मनोहर कहानियां’ में सम्पादन किया।
उन्हें कई सम्मानों-पुरस्कारों से नवाजा गया-साहित्य अकादमी पुरस्कार, तुलसी पुरस्कार, मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार, कबीर सम्मान आदि। वे प्रेमचन्द सृजनपीठ के अध्यक्ष भी रहे, परन्तु हर बार पुरस्कार ही उनको पाकर सम्मानित हुए, क्योंकि उनकी कविता का कद ही इतना बड़ा है कि उसके समक्ष हर पुरस्कार छोटा पड़ जाता है।
उनकी पहली बरसी पर एक विचार गोष्ठी कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग ने आयोजित की थी। गोष्ठी में रोहतक से आए कवि मनमोहन ने कहा कि शमशेर हिन्दी जगत के लिए पहेली की तरह हैं। शमशेरियत एक अलग एवं विलक्षण चीज है। शमशेर को किसी आलोचक ने हिन्दी कविता का अपवाद भी कहा है, क्योंकि उनकी पहले से कोई परम्परा नहीं मिलती। यह उनके महत्व का तो प्रमाण है ही, हिन्दी आलोचना के समक्ष शमशेर ने एक चुनौती भी प्रस्तुत की है।
मनमोहन ने स्वयं प्रश्न किया था कि शमशेर का मुकाम क्या है? वे कहां खड़े हैं? फिर खुद ही इस प्रश्न का समाधान तलाशने का प्रयास करते हुए इस तथ्य की ओर इशारा किया था कि शमशेर अपने समय के प्रभावों के प्रति बेहद संवेदनशील थे। बहुत संस्पर्श था उनमें। नये-से-नये रचनाकार को भी पूरी तल्लीनता से पढ़ते थे। वे खड़ी बोली के परिवेश में पैदा हुए थे, जिसका उर्दू के साथ गहरा संबंध रहा है। एक माने में वे गालिब से बहुत प्रभावित थे। कठिन से कठिन बात बोलचाल की भाषा में लिखना चाहते थे। इसीलिए बच्चन जी शमशेर की उत्तर छायावादी बोलचाल की भाषा से बहुत प्रभावित हुए थे।
रोमांटिक संवेग शमशेर में कभी समाप्त नहीं हुआ और नयी कविता में भी रोमांटिक संवेग खत्म नहीं हुआ है। मुक्तिबोध ने छायावाद और उत्तर छायावाद से शमशेर की कविता को अलग किया है।
मनमोहन ने संकेत किया था कि शमशेर को उनके समकालीन कवियों-मुक्तिबोध, अज्ञेय, केदारनाथ अग्रवाल के साथ रखकर ही समझा जा सकता है। शमशेर का मुकाम उदार मानवतावाद है और शमशेर का मुख्य स्वर मानवतावाद का सौंदर्य ही लगता है, परन्तु सौंदर्य उनके लिए देखने का नहीं, आत्मा का विषय है। वे उसी में स्नान करना चाहते हैं। शमशेर समय को स्थान की तरह देखते हैं। उनके लिए इतिहास एक रहस्य है। बकौल मुक्तिबोध शमशेर ने कवि का काम चित्रकार से लिया है। यह भी उनके संज्ञान का एक पहलू है।
प्रतिष्ठित आलोचक डा. ओम प्रकाश ग्रे्वाल ने कहा था कि शमशेर में बच्चों जैसी सरलता है। ऊपर से देखने में विरोधी बातें भी उलझी हुई दिखती हैं। शमशेर प्रभावी स्वर के साथ-साथ एक पहेली भी लगते हैं। उनके बारे में जल्दबादी में कोई निष्कर्ष निकाल कर हम गलती भी कर सकते हैं। एक तरफ तो शमशेर आत्ममुग्ध लगते हैं। संवेदनशील स्वभाव के कारण वह निजी दुनिया में रहते लगते हैं। दूसरी तरफ वे आसपास घट रही चीजों में स्वयं को झुलसा देखते हैं।
ग्रेवाल की राय में शमशेर एक मनीषी की तरह हैं, जिसने अपना मुकाम कायम कर लिया हो। उनका व्यक्तित्व पारदर्शी एवं विनयशील है। किसी ने कहा है कि उन्हें पेरिस में पैदा होना चाहिए था। शमशेर की कविता हमें निहत्था करती है। हमें अपनी सीमाओं का अहसास कराती है। उनकी कविता में सांझी संस्कृति मृतरूप में बोलने लगती है। हिन्दी उर्दू की मिली-जुली विरासत है, शमशेर के यहां, जो इस क्षेत्र में अंत: सलिला के रूप में बहती रही है।
शमशेर पर बने वृत्तचित्र पर असहमति प्रकट करते हुए डा. ग्रेवाल ने कहा था कि वृत्तचित्र में शमशेर को उत्सवप्रिय कहा गया है, परन्तु शमशेर का व्यक्तित्व ऐसा नहीं दिखता। वह वंचित हैं, वहां टीस है, उलझन है, टैम्पटेशन है, अवरोध है। उनका व्यक्तित्व एक उत्तर भारतीय महिला की तरह है, जिसके अंदर अनेक ख्वाहिशें हैं, पर दुर्भाग्य से बाहर आने का अवसर नहीं पा सकी हैं। उनकी इच्छाएं मन मसोस कर रह जाती हैं।
डा. ग्रेवाल की राय में अभावों के साथ मानवीय रूप में जिंदा रहने की भावना शमशेर की कविता का अहम पहलू है। उनकी नैतिक और मानसिक शुद्धता अभावों के बावजूद उल्लेखनीय है। वे बंबई की चकाचौंध से विभोर नहीं हुए। उपभोक्तावाद भी उन्हें हिला नहीं सका, विचलन वहां नहीं है। शमशेर आत्मनिरीक्षण करने का व्यक्तित्व है।
‘टूटी हुई बिखरी हुई’ कविता का उल्लेख करते हुए डा. ग्रेवाल ने कहा कि सभी उपलब्धियों से वंचित होने का स्वर उनकी कविता में है, पर वह उन्हें विचलित नहीं करता। शमशेर दुनिया के गिने-चुने शीर्षस्थ कवियों में से हैं। वे अज्ञेय से ज्यादा गंभीर और सूक्ष्म संवेदना के कवि हैं। 3
बहरहाल यह कड़वी सच्चाई है कि हमारी सामाजिक फिज़ा इतनी प्रदूषित हो चुकी है कि शमशेर जैसे कवि को परिवार, जाति-समाज सब जगहों से उपेक्षित, कठिनतम जीवन मिला। उनके काव्य को समझे की कुँजी भी उसी दर्द में कहीं छिपी है।
आज कहते हैं वो किस अंदाज से।
हम नहीं वाकिफ़ तुम्हारे राज से।
राजदां और बेख़बर हो राज से।
दिल दुखना है यह एक अंदाज से।
छेड़ मत दिल को कभी पर्देचाक है।
आह निकलेगी फकत इस साज से ।
और
अपने दिल का हाल यारों हम किससे क्या कहें।
कोई भी लगता नहीं ऐसा जिसे अपना कहें…..
अथवा
जान तो लोगे तुम्हारी जान है।
इससे आगे और क्या अम्कान है।
संदर्भः
1. नवभारत टाइम्स, नई दिल्ली-मई 1993
2. वही – 23 मई 1993
3. वही – 28 मई 1993 (पहले की तरह हैं शमशेर -ले०)