मैं क्यों लिखता हूँ – ओम सिंह अशफाक

ओम सिंह अशफाक

मैं क्यों लिखता हूँ?-इस सवाल का जवाब बहुत सरल भी हो सकता है और जटिल भी। सरल इस तरह कि जैसे हर इंसान भोजन करता है, सोता है, जागता है, चलता-फिरता है, उठता-बैठता है, नहाता-धोता है, सोचता-विचारता है, बातचीत करता है यानि दैनिक जीवन के सभी कार्य-कलाप करता है, वैसे ही लिखता भी है। अब आप कह सकते हैं कि फिर तो सभी व्यक्ति लेखक होने चाहिएं थे? मेरा उत्तर है कि हां सभी व्यक्ति लेखक हो सकते हैं। यानि हर सामान्य व्यक्ति में लेखक बनने की क्षमता मौजूद होती है। बस उसको निखारने-संवारने की जरूरत होती है और निखारने-संवारने की प्रक्रिया काफी हद तक निर्भर करती है परिस्थितियों पर यानि समुचित वातावरण होने पर। शिक्षा एवं स्वाध्याय भी व्यक्ति के लिए ऐसा ही समुचित वातावरण बनाने में मदद करते हैं। अब आप कहेंगे कि फिर कबीर, सूरदास, मिल्टन जैसे व्यक्ति बिना समुचित शिक्षण-प्रशिक्षण के इतने महान लेखक कैसे बन गए थे, ये सही सवाल है और इसका उत्तर ये हो सकता है कि यदि उनकी शिक्षण-प्रशिक्षण तक समुचित पहुंच हो गई होती तो शायद वे और भी ज्यादा महान साहित्य समाज को देने में समर्थ हो सकते थे।
आईये, अब हम अपने मुख्य: सवाल के जटिल पक्ष की तरफ चलते हैं। जैसा कि हमने ऊपर जिक्र किया है कि लिखना भी जीवन की अन्य दैनिक गतिविधियों की तरह ही एक गतिविधि है तो फिर हम लेखन को उसी तरह अपने तक सीमित रखकर क्यों नहीं बैठ जाते? ठीक उसी तरह जैसे हम मनपसंद भोजन सबको दिखाकर तो नहीं खाते? बस, एकांत में भोजन किया, संतुष्ट हुए और सो गए। सही बात है। यहीं से लेखन का जटिल पक्ष शुरू हो जाता है जिस पर आगे विमर्श की जरूरत है कि क्यों कोई लेखक अपने लिए नहीं, बल्कि अन्यों के लिए भी यानि समाज के लिए भी लिखता है। या कहें कि वह समाज के समक्ष/साथ अपने विचारों को अभिव्यक्त करना चाहता है। अपने सुख-दुख:, राग-विराग, चिंताएं-अपेक्षाएं समाज के साथ साझा करना चाहता है। क्योंकि वह सामाजिक प्राणी है। समाज ने ही उसके अस्तित्व एवं व्यक्तित्व को गढ़ा है। एक मायने में लेखक का व्यक्तित्व सचेत सामाजिक उत्पाद ही है। यदि वह अपने लिखे को समाज, पाठक वर्ग के साथ शेयर न कर सके तो उसे परम-संतुष्टि की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसलिए हर सार्थक लेखक चाहेगा कि उसका लेखन समाज तक पहुंचे, उस पर चर्चा-परिचर्चा हो और प्रतिक्रियास्वरूप उसे समाज-पाठकों का रिस्पांस मिले। यही रिस्पांस लेखक का वास्तविक सम्मान है जो उसे परम-संतुष्टि दे सकता है। इसी से लेखक की लोकप्रियता बढ़ती है। पाठकों का दायरा विस्तृत होता है और लेखक का अनुभव जगत भी । और अधिक श्रम करने, और अधिक अनुभव हासिल करके और अधिक सार्थक-सोद्देश्य लेखन करने की ऊर्जा प्राप्त होती है।
यह दुतरफी प्रक्रिया है। एक तरफ लेखक जनता से ताकत ग्रहण करता है तो दूसरी तरफ सार्थक लेखन के ज़रिए जनता को ताकत देने का कार्य भी करता है। यही वजह है कि कबीर, रैदार, प्रेमचंद, यशपाल, शरतचंद्र, टैगोर, नागार्जुन, मुक्तिबोध, मैक्सिम-गोर्की, टॉल्स्टॉय, लू-शुन सरीखे महान लेखकों का साहित्य हमें आज भी ताकत देता है, मानव-कल्याण के संघर्षों में सफलता की आशा का संचार हमारे मनों के अंदर करता है और आगे भी सैंकड़ों सालों तक करता रहेगा। सभी जानते हैं कि भगत सिंह, राजगुरु , सुखदेव और उनसे पहले राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, राजेंद्र लाहिड़ी, शचीन्द्र नाथ शान्याल सरीखे नौजवान शहीद साहित्य से प्रेरणा पाकर ही क्रांति में अपना सर्वस्व बलिदान कर देने के लिए प्रेरित हुए थे। भगत सिंह तो फ ाँसी के वक्त तक लेनिन की कोई किताब पढ़ते हुए पाये गये थे। यानि साहित्य ने उनको असीम ताकत दी और फिर उनके बलिदानों की कथाएं /आत्मकथाएं/डायरियां पढ़कर आज तक हम सब ताकत ग्रहण करते आ रहें हैं। दुतरफी-प्रतिक्रिया का यह जीता-जागता सबूत है।
ज़ाहिर है ऊपर की गई चर्चा सार्थक-साहित्य के संदर्भ में ही है। निरर्थक अथवा व्यावसायिक साहित्य उसके दायरे में नहीं आता है। व्यावसायिक साहित्य को निरु द्देश्य तो हम नहीं कह सकते हैं क्योंकि उसके पीछे भी स्पष्ट उद्देश्य होता है। वह उद्देश्य पैसा कमाना ही मुख्य हो सकता है।
ऐसा साहित्य व्यवसायिक – लेखन कहलाता है। इसे भी उपन्यास, कहानी, नाटक, कविता आदि किसी भी विधा में लिखा जा सकता है। इससे व्यवसायिक फिल्में, सीरियल, एलबम, सी.डी. आदि बनाकर आसानी से बेचा जा सकत है और खूब पैसा बटौरा जा सकता है। पर व्यवसायिक साहित्य से सामाजिक-चिंतन में कोई प्रगति नहीं होती। उससे जनता का कोई बड़ा हित साधन नहीं होता। अलबत्ता थोड़ा-बहुत तत्कालिक मनोरंजन तो हो ही सकता है। इसलिए ऐसा साहित्य दीर्घजीवी नहीं रह पाता है और न ही वर्तमान एवं भावी पीढिय़ों को उससे कोई पे्ररणा एवं ताकत मिलती है। व्यवसायिक साहित्य-लेखन ऐसा ही है जैसे हम बाजार में कोई परचून अथवा थोक की दुकान खोल कर मुनाफा कमाते रहें और अपना तथा परिवार का भरण पोषण करते रहें। जाहिर है कि दुकान की कोई सामाजिक विरासत हो भी नहीं सकती है।
मैं सोचता हूँ कि सार्थक साहित्य भिन्न परिप्रेक्ष्य के साथ रचा जाता रहा है। यहां लेखक व्यष्टि को समष्टि में समर्पित कर देने की भावना से संचालित रहा करता है और समष्टि की ही एक इकाई के रूप में स्वयं को रोपित हुआ देखता है। समाज का भविष्य ही उसका भविष्य और समाज की नियति ही उसकी नियति बन जाती है। महान कवि-चिंतक मुक्तिबोध ने इसी नियति को दृष्टि में रखते हुए कहीं लिखा था-‘मुक्ति के रास्ते अकेले नहीं मिलते, यदि वे कहीं हैं तो सबके साथ ही हैं।Ó
कुछ लोगों का विचार है कि लेखक धन, यश और प्रसिद्धि के लिए लिखता है, लेकिन यश, प्रसिद्धि और सम्मान पाने के तो और भी कई तरीके हो सकते हैं। उसके लिए लेखक बनना तो जरूरी नहीं है। धनी व्यक्ति दान करके यश कमा सकता है। कोई राजनीति में आकर प्रसिद्धि लूट लेता है। अच्छा खिलाड़ी खेलों में कीर्तिमान बनाकर यश और धन पा जाता है। आजकल तो अज़ीबोगरीब किस्म के करतब करके भी कई लोग गिनीज बुक और लिम्काबुक में रिकार्ड दर्ज कराकर धन और प्रसिद्धि पा रहे हैं। कोई सांपों-बिच्छुओं के संग अधिकाधिक समय बिताने का कीर्तिमान बनाता है, तो कोई ज्यादा से ज्यादा साबुत मिर्चें खाने का। मूछों की लंबाई बढ़ाने का कीर्तिमान भी प्रचलन में है। समुद्र के भीतर शादी-रचाकर या आसमान से पैराशूट द्वारा कूद कर शादी करके भी प्रसिद्धि पाई जाती है। कहने का भाव यह कि यश, प्रसिद्धि, सम्मान पाने के अनेकों तरीके प्रचलन में हैं, फिर भी कुछ लोग अभाव, भूख नतीजतन अकाल मौत को साक्षात देखते हुए सार्थक लेखक ही क्यों बनता चाहते है? ऐसा लेखन जो प्रेमचंद, शरतचंद्र, गोर्की, लू शुन सरीखो कष् गरीबी से नहीं उबार सका? भरपेट रोटी और दवा-दारू नहीं दे सका?
मुझे लगता है कि यह जीवनदृष्टि की खुरा$फात है। ऐसे लेखकों की विवशता होती है कि वे और किसी काम में वो आनंद, वो संतुष्टि नहीं पा सकते, जो सार्थक लेखन में पाते हैं। वे समाज के दुखों को अपना दुख और उसी के सुख को अपना सुख मानने की जीवनदृष्टि बना चुके होते हैं। वे अपने समाज का और इस तरह पूरी मानवता का वैचारिक-आवयविक हिस्सा बन जाते हैं और जीवन भर इसी तड़प से संचलित रहे रहते हैं। खाद के रूप में खुद को गला-सड़ाकर मानवीयता की फसल उगाना चाहते हैं। दीपक के रूप में खुद जलकर मानवता से प्रेम का प्रकाश फैलाना चाहते हैं। इस तरह नई-नई फसलें लहलहाती रहती हैं, नए-नए दीपक जलते रहते हैं। विनाश पर विकास और अंधकार पर प्रकाश की विजय का यह संघर्ष दुनिया में निरंतर चलायमान रहता चला आया है और निश्चय ही आगे भी चलता रहेगा। पुरानी फसल खाद बनकर नई फसल उगाएगी और पुराने दीपक बुझते-बुझते नयों को जला जाएंगे।
हम जानते हैं कि ऐसे सार्थक लेखकों को पुरस्कार भी प्राय: नहीं मिला करते। टॉलस्टॉय, गोर्की, प्रेमचंद, लुशुन आदि को नोबल पुरस्कार नहीं मिले, लेकिन उनके लेखन/साहित्य के समक्ष नोबल पुरस्कार खुद छोटा पड़ जाता है। तो मित्रो! ये मानवता से प्रेम की डगर है। इसीलिए ये कठिन भी है। फिर भी दुनिया में अनेक लेखक उस डगर को खोजने और उस पर चलने की कोशिश करते हैं। कबीर और रहीम ने कुछ तरह कहा है:

कबीरा ये घर प्रेम का, खाला का घर नाँहि।
सीसर उतारैं भुंई धरै सो पैठे घर माँहि।।
जो सुलगे ते बुझ गए, बुझे ते सुलगे नाँहि।
रहीमन दाहे प्रेम के, बुझ-बुझ के सुलगाँहि।।

निसंकोच कह सकता हूं कि मेरे लेखक को तो वो डगर आज तक नहीं मिली, हाँ, जद्दोजहद् अब भी जारी है।

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