कविता
ये कैंसर अस्पताल के पेड़ हैं
इन पर पत्ते भी हैं
इनकी टहनियां भी लंबी हैं
हवा चलने पर हिलते हैं ये सब
पर इनकी हरकत में हंसी नहीं है
इनके अंदर जैसे दर्द की अपनी समझ है
परेशां किस्म का हरापन है इनके अंदर
बच जाए अचानक कोई मरीज
तो भी ये तालियां नहीं बजाते
निर्लिप्त और निर्विकार
ये उदाहरण हैं जन्म से
ये जगत् के दु:ख-दर्द से परेशां
सब के सब बड़े ही दैन्य हैं।
साभार-जतन दिसम्बर 99