कविता
कुछ भी नहीं है नश्वर
मेरे सिवा
कलेवर जीवित रहेगा
दिसम्बर के बाद फिर-फिर
इस जगत का हर निर्जीव भी
अनश्वर
झूठे महात्माओं
ज्योतिषियों, पाखण्डियों का
अनश्वर है जगत्
और मेरा रोयां-रोयां नश्वर
याद रखना
दु:ख के पहाड़ पार ये सब
ये सब होंगे
होनी में हो चाहे
जंजाल दु:खों का कितना
पर होती हैं कहीं जुंबिश
ये वहीं है जुंबिश
जो रही हमारे बीच करोड़ों साल
लड़ते-झगड़ते करते बेतहाशा प्यार
और इस बेतहाशे प्यार के बीच में से
मुझे चलना है
न चाहने पर भी
मुझे चलना है
न केवल किया है, ये सचमुच
चलने और सफर में
नाशवान कुछ भी नहीं है
धर्म बकता है गलत
तू छील ले आंसुओं से अपना अन्दर
झींक ले/खीझ तो चाहे कितना भी
दही जमेगा तेरे घर
जिंदा दरवाजे/चिटखनियां
खुलेंगी, बंद होंगी/बार-बार
बारम्बार तू होगी
तू होगी
तुझे होना पड़ेगा जीवित
चूंकि तू जिंदा है
दु:खी होकर भी
तुम शरीक होना
निर्जीव चीजों की
सजीव कारवाइयों में
तुम बहुत हो परेशां
पर मैं करूं तो क्या
अब तो सभी कुछ तुम्हीं को करना है
अपने लिए न चाहो तब भी
मेरे लिए करना
मेरे नश्वरता के रोयें
रोपना सुख के लिए
अपने और मेरे इकलौते बेटे के लिए
सुखी नये जीवन के लिए रोपना
लड़ लेना सभी से
परिवार/समाज सबसे
लडऩा बेचैन होकर
लडऩा मेरी नश्वरता और जीवन की अनश्वरता के लिए
तुम सचमुच इस जीवन में सुख खोज लोगी
तुम बहादुर हो
मैं तुम जैसी बहादुर पत्नी का पति होने पर भी
नश्वरता से डरता हूं
चूंकि मेरी नश्वरता तुम्हारी बहादुरी पर हावी है
मेरी कमजोरी केवल तुम हो
तुम्हारे साथ जीना चाहता हूं
पर मैं क्या करूं
मुझे सचमुच चले ही जाना है
तुम्हें छोड़कर
जीवन की इस अनश्वर प्रतिक्रिया
और मेरी नश्वरता के लिए
एक प्रसिद्ध सिपाही हो तुम
इस अनश्वरता के लिए
लड़ते हुए जीना
हर पल जीना तुम…।