आई.सी.यू. – सरबजीत

कविता


मुझे शहतूत चाहिए
जल्लादी स्वप्नों का है संसार
प्रोफेशनल डाक्टर
करते मरीज का चैक-अप
उन्नींदा डकार ले रहा है
और यहां दर्द के जंगली झाड़
हिल रहे हैं चारों तरफ
मेरे पद वाले पेश के मरीज कम हैं
नौकरी-पेशा, नर्स, तार, टैलीफोन
कहीं चीख, कहीं चुप्प भयावह
हर मरीज के अंदर एक कलैंडर बिखरा पड़ा है
कोई नहीं है मददगार
खुद समेटना है सबको
ये नोकदार कलैंडर, अस्पताल
गहन कक्ष में गहन है लड़ाई
गहन है यह लड़ाई भयावह
समेट रहा यहह खुद असफल
एक कलैंडर बिखरा पड़ा है
डॉक्टर पैसे ले रहा है
रात है गहरी और गहन नजर रखी जा रही है
मरीज की चीख-पुकार पर
मरने तक
सफल है डॉक्टर
डॉक्टर यहीं तक देखता है
यहीं तक उसकी नौकरी है
और कुव्वत
हर मरीज के अंदर यहां
गहरा, गहन और भयावह जख्म  है
इन मरीजों के लिए
कोई नहीं जानता
कि भयावह मर्ज और दु:ख में भी
कैसे असहाय रहता है जीवन
और कैसे टूटता है जीवन
जैसे अंतिम समय है मेरा
मैं ‘कोमा’ में हूं
और मुझे पता है
मेरा बेटा स्कूल जा रहा है
और लिख-पढ़ रहा है
मेरी पत्नी
आई.सी.यू. के नीचे
कई दिनों से खड़ी है
और जबरदस्ती मेरी गलती पर भी
मुस्करा रही है
बिलख रहे हैं बूढ़े मां-बाप
और कुछ सगे-संबंधी सुन्न
मुझे दिख रहा है
गहन गहरे कक्ष में
पर डॉक्टर को नहीं दिखता है सब
मेरे अन्दर
वो पांच दिन से यही कह रहा है
मैं ‘कोमा’ में हूं
और मुझे चाहिए शहतूत, जामुन
और कच्चे अमरूद….।
 

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