राधावल्लभ त्रिपाठी
बादशाह शाहजहां के चार बेटों में दाराशिकोह सबसे बड़े थे। वे शाहजहां के सबसे छोटे बेटे औरंगजेब के द्वारा मारे गए। अगर औरंगजेब की जगह दारा को हुकूमत करने का मौका मिला होता तो शायद इस देश का इतिहास कुछ और होता। पर दारा अपनी रचनाओं के द्वारा जो हमें देकर गए हैं, उसे और उसके रचयिता को इतिहास में दफन नहीं किया जा सकता।
दाराशिकोह ने फारसी में अनेक किताबें लिखी। संस्कृत में भी वे लिखते थे। उनकी किताबों में मज्म-उल्-बहरिन् विशेष रूप से उल्लेखनीय है जिसे दारा ने फारसी तथा संस्कृत दोनों में लिखा। यह किताब दारा ने 42 साल की उम्र में सन् 1654 में लिखी।
पंडित दाराशिकोह कवि तथा स्वपनदर्शी थे। समुद्रसंगम पुस्तक की रचना राजनीति के वात्याचक्रों और तनावों के बीच हुई। ज़ाहिर है कि दारा के लिए बादशाह बनने से इस किताब को पूरा करना ज्यादा जरूरी था। अपने समय के श्रेष्ठ विचारकों, सिद्धों, ज्ञानियों और पंडितों के साथ दारा ने वर्षों तक जो विचार-विमर्श या शास्त्रों का आलोकन किया, समुद्रसंगम उसी का नतीजा है। इसकी भूमिका में दारा स्वयं कहते हैं-
अथ च कैश्चित् कैश्चित् परिपूर्णवैदिकै: सह विशेषतश्चैतन्यस्वरूप-ज्ञानमूर्ति-सद्गुरु-श्रीबाबालालस्य अन्तिके तपश्चर्याया: ज्ञानस्य सांबुध्यफलस्येश्ररप्राप्ते: शांति व प्राप्तवान् तेन च सह पुन: पुन: संगतीर्गोष्ठीश्चाकरवम्, परं परिभाषावेदातिरिक्त कमपि भेदं स्वरूपावासी नापश्यम्। अतश्च द्वयोरेकवाक्यतामकरयम्। (समुद्रसंगम, पृ. 2)
(इस विचार-विमर्श की पक्रिया में) मैंने कतिय परिपूर्ण वैदिक पंडितों का सान्निध्य भी प्राप्त किया, विशेष रूप से चैतन्यस्वयप, ज्ञानमूर्ति, सद्गुरु श्री बाबालाल के पास रहकर उनकी तपस्या, ज्ञान के अवबोध के फल ईश्वर की प्राप्ति तथा शांति का लाभ मैंने पाया। फिर मैं बार-बार उनके साथ संगति तथा संगोष्ठी करता रहा। पर मनुष्य के सच्चे स्वरूप की प्राप्ति में (इस्लाम तथा वैदिक मत के बीच में) परिभाषाओं के भेद के अलावा कोई तात्त्विक भेद मुझे नहीं दिखाई दिया। इसलिए मैंने इन दोनो के बीच समन्वय स्थापित किया है।
दरअसल दारा की चेतना पर वैदिक परम्परा तथा इस्लाम दोनों का संस्कार इतना गहरा है कि वे कुरान को ‘हमारा वेद’ कहते हैं (समुंद्रसंगम, पृ.34) वे कुरान तथा वेद दोनों को एक-दूसरे के संदर्भ में परिभाषित करते हैं तथा दोनों की अद्वितीयता के प्रति भी सचेत हैं। इस अर्थ में दारा एशियाई संस्कृति तथा इस महाद्वीप की दार्शनिक चेतना के पहले महत्वपूर्ण भाष्यकार कहे जा सकते हैं।
कवीन्द्राचार्य सरस्वती, पंडितराज जगन्नाथ जैसे उस युग के महान संस्कृत पंडितों से दारा का सम्पर्क था। पर समुद्रसंगम की समूची परिकल्पना उनकी अपनी लगती है। इसके पीछे सारी सोच भी उनकी है और भाषा भी उनकी अपनी है, जो पंडिताऊ भाषा नहीं है, बहुत सहज और पारदर्शी भाषा है। व्याकरण और रचना त्रुटियां उसमें बहुत हैं।
समुद्रसंगम ज्ञान की पिपासा, सत्य की खोज तथा रचनात्मक चिंतन के द्वारा राष्ट्र निर्माण की दिशा प्रशस्त करने वाली किताब है और यह किताब दारा ने केवल अपने समय के लिए ही नहीं, आने वाले समय के लिए भी लिखी थी। यह इस देश के लिए ही नहीं, समूचे एशिया महाद्वीप के लिए एक जरूरी किताब है। दारा की मौत के 120 वर्ष बाद अरबी में इसका पहला अनुवाद तैयार किया गया, उसके बाद और भी अनेक भाषाओं में इसके अनुवाद होते रहे (समुद्रसंगम, सं.पं. बाबूलाल शुक्ल, भूमिका, पृ.5)।
दारा ने बहुत सरल संस्कृत में यहां अपनी बात कही है। उनकी भाषा में संतों की वाणी की बानगी है। धार्मिक ग्रंथों का अनुशीलन ही नहीं, दारा का अपना अनुभव उसमें बोलता है। वे एक सर्वात्मक सत्ता को स्वीकार करते हैं और उसका निर्वचन इस प्रकार करते हैं-
प्रतिवेशी सवासी च सहग: सर्वमेव च।
पटच्चरे दरिद्रस्य क्षौमे राज्ञ: स सर्वत:।
भाति संसदि भेदो5यमभेदो रहसि स्फुट:।
ईशस्य शयनं भूयस्तच्छय: सर्वमेव स:।।
ईश्वर हमारा पड़ौसी भी है और साथ निवास करने वाला तथा साथ देने वाला भी है। यह सब कुछ वही है। दरिद्र के चीथड़े में तथा राजा के रेशमी कपड़े मेें भी वही रमा हुआ है। समाज के में उसका भेद प्रतीत होता है, एकांत में सबसे उसका अभेद झलकने लगता है। यह संसार ईश्वर की शैया भी है और शैया के भीतर भी वही है।
दारा ने वैदिक तथा इस्लामी परम्पराओं के बीच समाकारिता या साम्य निम्रलिखित आधारों पर देखा है-सृष्टिप्रक्रिया, पदार्थतत्व तथा मुक्ति की अवधारणा। उन्होंने इस्लाम और वेदांत के बीच सेतु बनाते हुए सृष्टि की प्रक्रिया का जो विवेचन किया है, उसमें हम देखते हैं कि पंच महाभूत की अवधारणा दोनों परम्पराओं में एक ही है। भूताकाश, चिदाकाश और चित्ताकाश। चिदाकाश से इश्क नामक पदार्थ उत्पन्न हुआ तथा वैदिक ऋषियों के सृष्टितत्वनिरूपण में बात एक ही कही गई है। वस्तुत: कुरान तथा उपनिषदों के तत्वदर्शन में चिंतन की एकाकारिता पर दारा ने पर्याप्त शोध किया। अनेक धर्मसिद्धांतों का आलोकन करके दारा ने यह सुनिश्चित मन्तव्य दिया है कि ईश्वर का साक्षात्कार हो सकता है। वे कहते हैं-परमेश्वर का दर्शन ज्ञानचक्षुओं के द्वारा मुनि लोग कर लेते हैं-इसमें न कोई शंका संभव है न परस्पर विरोध ही। जितने भी अपौरुषेय ग्रंथ या परिपूर्ण दर्शन हैं, उन सबकी इस विषय में स्वीकृति तथा श्रद्धा है-चाहे वह कुरान हो या वेद या तौरात या इंजील। सुन्नी मत का हवाला देते हुए दारा कहते हैं कि जब तक ईश्वर निर्गुण तथा निराकार है, तब तक उसका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता, जब वह परिच्छित हो जाता है, तभी प्रत्यक्षगोचर हो पाता है। (वही पृ.२६)
दारा ने ईश्वरदर्शन की जो कोटियां बताई हैं उनके द्वारा वे नये दर्शन का निर्माण करते हुए प्रतीत होते हैं। प्रथम दर्शन स्वप्र मेंं मन की आंख से होता है। द्वितीय दर्शन जाग्रत अवस्था में मस्तिष्क की आंख से होता है। तृतीय दर्शन स्वप्र और जागरण के बीच विशेष निरहंकार रहने की स्थिति में होता है। चौथा दर्शन सीमित चेतना के भीतर होता है। पांचवीं कोटि में मनुष्य ईश्वर के सर्वथा एकाकार होता है। (समुद्रसंगम, पृ. 32)
ईश्वरदर्शन की कोटियों के अनुसार ही मुक्ति की भी विविध कोटियां बनती हैं। कुंजान-अकबर या फिरदौस्स् आला में लयहोना महामुक्ति या परम मोक्ष है। यह मुक्ति तीन प्रकार ही है-प्रथम जीवन्मुक्ति, दूसरी सर्वमुक्ति, जिसे विदेह मुक्ति भी कहा गया है। दारा ने इसकी व्याख्या सबकी मुक्ति के रूप में की है। तीसरी मुक्ति सर्वदा मुक्ति या नित्य मुक्ति है। दारा के इस विवेचन से मुक्ति का स्वरूप बदल जाता है, वह पहली दो कोटियों में निरपेक्ष सत्ता नहीं है।
दारा की दृष्अि विभिन्न धर्मग्रंथों की मूलभूत एकता को समझाने में है, पर इन पंथों में चिंतनगत वैषम्य को उन्होंने अनदेखा नहीं किया है। ऐकात्म्यवादी इस्लाम में दो ही गुणों के द्वारा सृष्टि का प्रादुर्भाव माना गया है-जलाल तथा जमाल। वैदिक परम्परा के दर्शन तीन गुण मानते हैं-सत्व, रजस् और तमस्। रजोगुण से उत्पत्ति, सत्व गुण से पालन तथा तमोगुण से लय होता है। इस्लाम की दृष्टि से जमाल के द्वारा उत्पत्ति और पालन दोनों सम्भाव्य हो जाते हैं। ईश्वर के साक्षात्कार के विषय में इस्लाम, वैदिक दृष्टि तथा सूफी मतों में परस्पर अंतर है। पर दारा इस तरह के दृष्टिभेद के पार देखते हुए तात्त्विक दृष्टि से सारे मतों में अभेद पाते हैं। ईश्वर का साक्षात्कार चर्मचक्षुओं से संभव नहीं। निस्सीम को सीमा में कैसे बांधा जा सकता है? जब हम अपनी सीमाएं तोड़ कर स्वयं असीम हो जाते हैं, तब न देखने वाला रह जाता है, न देखा हुआ रह जाता है-दृष्टा और दृश्य में अंतर नहीं होता। तब ईश्वर को देखा-वह भाषागत व्यवहार मात्र है। भाषा के इस व्यवहार की अपनी सीमा होती है, इसके कारण अलग-अलग पंथ अलग-अलग दृष्टि से ईश्वर का स्वरूप बता सकते हैं। पैगम्बर कहते हैं कि मैंने ईश्वर को दिव्य प्रकाश के रूप में देखा है। उपनिषद् इसे अपनी भाष में कहता है कि परम तत्व ज्योति:स्वरूप तथा स्वयंप्रकाश्य है। पैगम्बर के कथन की यह व्याख्या दारा असंगत मानते हैं कि परमेश्वर का साक्षात्कार असंभव है। (समुद्रसंगम, पृ. 31)। साक्षात्कार का अनुभव इतना अद्वितीय तथा अनिर्वचनीय होता है कि यदि उसके विवरण को शब्दों में बांधने की चेष्टा की जाए तो ऐसे विवरण परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं, जबकि तात्त्विक दृष्टि से देखा जाए, तो ये विरोध नहीं रह जाते।
दारा की व्याख्याएं कई जगह साहसिक भी हैं और मौलिक सोच से उपजी हुई भी। प्रणव या ओंकार परमात्ममा के निश्वास से उपन्न है। यही वेद है। अरबी में इसी को ‘कुन’ कहा गया है। शुद्ध नाद के रूप में यही सरस्वती है। इसी प्रकार भारतीय मिथक शास्त्र के देवगणों में ब्रह्मा, विष्णु और महेश दारा की दृष्अि में क्रमश: रजस्, सत्त्व और तमस्-इन तीन गुणों के प्रतीक हैं। इस्लामी दर्शन में ये ही ‘जबरईल’, ‘मीकाईल’ तथा ‘इसराफील’ हैं। (समुद्रसंगम, पृ.15)। इस व्याख्या-पद्धति को आगे ले जाते हुए दारा इन तीनों को क्रमश: जल, तेजस् तथा वायु-इन तीन भूतों से संबंधित करते हैं। इस्लामी परम्परा में ‘रूहे-जुजवी’ तथा ‘रूहे-कुली’ को दारा ने औपनिषदिक चिंतन के जीवात्मा और परमात्मा का पर्याया माना है।
दाराशिकोह नेउपनिषदों तथा भगवद्गीता का फारसी में अनुवाद भी किया था तथा सूफी मत पर भी कई किताबें लिखी। पर उनकी रचनाओं में समुद्रसंगम निश्चय ही सर्वाधिक महत्व की है। यह दारा के अध्ययन और अनुभव दोनों के कारण अपने ढंग की बेजोड़ कृति बन गई है और यह संस्कृतियों तथा चिंतन पद्धतियों की उस सामासिकता और संश्लेषणात्मकता को सामने रखती है, जो आज के संदर्भ में हमारे लिये और भी प्रासंगिक हो गई हैं।
साभार : पुरोवाक् 2
https://youtu.be/7KUg8oxxfOI
हमारे इतिहास का बेहद सुन्दर अध्याय रहा ये
तस्वीर यक़ीनन कुछ होती जो दारा बादशाह हुए होते