दंगे में प्रशासन – विकास नारायण राय

विकास नारायण राय

स्वतंत्र देश में 1947 के बाद पहली बार कहीं भी खुली राजकीय शह पर अल्पसंख्यकों के  खिलाफ हिंसा का व्यापक तां  व नवम्बर 1984 के सिख दंगों में दिखाई पड़ा। तब तक ‘स्वाभाविक प्रतिक्रिया’ की हिन्दू जमीन तैयार हो चुकी थी, क्योंकि तब शह केंद्रीय सरकार की ओर से थी, लिहाजा उत्पात कई अनुकूल राज्यों में फैल सका। 1980 में पुन: प्रधानमंत्राी पद पाने के बाद इंदिरा गांधी और उनके गृहमंत्राी जैल सिंह द्वारा पंजाब की चुनावी बिसात पर अकालियों को शिकस्त देने के लिए आगे बढ़ाया मोहरा-भिंडरा वाले-भस्मासुर बनता जा रहा था। पड़ोस के आतंकवादी तनाव की परछाई हरियाणा में भी पड़ती देखी जा सकती थी। 1982 के दिल्ली के एशियाई खेलों में व्यवधान डालने के सिख उग्रवादियों के आह्वान के मुकाबले केंद्र एवं हरियाणा की कांग्रेसी सरकारों ने हरियाणा में सिखों को, सुरक्षा के नाम पर, अलग-थलग करने का सिलसिला शुरू कर दिया। यहां तक कि पाक समर्थिक सिख आतंकवादी गिराहों को स्थानीय भर्ती की पहली बड़ी खेप इस दौर के भुक्तभोगियों के बीच से ही मिली।

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          इंदिरा गांधी अकालियों के साथ ‘चित मैं जीती पट तुम हारे’ वाला खेल खेल रही थी। सिखों का गैर-अकाली तबका पारम्परिक रूप से कांग्रेस का वोट बैंक था, पर सफल चुनावी समीकरण के लिए जरूरी था कि साथ में हिन्दू वोटों का धु्रवीकरण भी उसके पक्ष में हो। अन्यथा जब भी हिन्दू वोट बंटकर भाजपा, जो अकालियों की सहयोगी पार्टी रहती आई, की झोली में पहुुंचते तो कांग्रेस पीछे रह जाती। अकालियों की नर्म साम्प्रदायिक अपील के मुकाबले भिंडरावाले की उग्र अपील को बढ़ावा देकर कांग्रेस अकालियलों को उग्रतर चोला पहनने को उकसा रही थी। संदेश साफ था कि उनसे डरे हिन्दू केंद्र सरकार यानी कांग्रेस की शरण में जाएं। अंतत: भिंडरावाले के भस्मासुर बन जाने पर उसका सफाया कर सारे देश के हिन्दुओं को कांग्र्रेस का ऋणी बनाकर भी वही मंशा सफल हुई। दरअसल साम्प्रदायिक चुनाव रणनीति का नंगा नाच था यह। सिख-राज में हिन्दुओं को अभयदान, नहीं तो हिन्दू राष्ट्र के सामने सिर उठाते सिख-उपनिचवेश को उसकी औकात दिखाना।

            गुजरात में संघ परिवार ने भी इसी चुनावी एजेंडे पर अमल किया है। जाहिर है एक साम्प्रदायिक मुखौटे का हथकंडा एक गैर साम्प्रदायिक मुखौटे के हथकंडे से कुछ अलग दिखेगा। हिन्दुत्ववादियों ने मुस्लिम इतिहास, मुस्लिम जनसंख्या, मुस्लिम आतंकवाद एवं मुस्लिम व्यवसाय के मनचाहे घालमेल से ऐसा भस्मासुर गढऩा चाहा है जो हिन्दुओं  में भय, घृणा एवं अविश्वास को व्याप्त रखे। इस भस्मासुर से हिन्दुओं को अभयदान के लिए ‘हिन्दू राष्ट्र’ द्वारा मुस्लिम उपनिवेश को, गुजरात शैली में, समय-समय पर उसकी औकात दिखाई जा सकेगी।

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            एक पुलिस अधिकारी के रूप में साम्प्रदायिक घटनाओं से मेरा पहला परिचय 1983 में हुआ। इस सच के साथ कि ऐसी झड़पों में निहित स्वार्थ ही टकराते हैं, जिन्हें प्रशासनिक तत्परता से निष्क्रिय किया जा सकता है।

            फरीदाबाद के धौज नामक एक मेव (मुस्लिम) बहुत गांव में गौ-कशी की शिकायत पर पुलिस ने छापा मारा। मेव राजनीति में एक प्रभावी परिवरा से संबंध रखने वाले चंद आरोपियों ने प्रतिरोध किया पर अंतत: पकड़े गयों से पूछताछ में सामने आया कि बेहद सस्ता होने के कारण गौ-मांस बहुत से हिन्दू भी खरीदते थे और कि मेवात में गौ-कशी का मुख्य व्यापार मांस के लिए नहीं, बल्कि चमड़े के लिए होता है, जिसे मुख्यत: हिन्दू व्यापारी चलाते हैं। यह भी खुली जानकारी जैसा है कि मेवात में पशु अधिकतर पड़ोसी राजस्थान से लाए जाते हैं तथा बिक्री/खरीद/परिवहन के इस व्यापार में भी हिन्दू व मुस्लिम दोनों समुदायों के व्यापारी शामिल हैं। मेवात में गौ-कशी रंगे हाथ पकडऩा तभी आसान हो पाता है जब  कोई जानकार मुखबिर छापा मारने वाले दल को अचानक मौके पर ला सके। घौज में भी एक मुस्लिम मुखबिर था पर जिस पक्ष के लोग पकड़े गए थे, उन्होंने प्रशासन पर दबाव बनाने के लिए गांव के हिन्दुओं पर उंगली उठाकर मामले को साम्प्रदायिक रंग देना चाहा। इस पक्ष ने दिल्ली से जामा मस्जिद के इमाम बुखारी को बुला भेजा। इस बीच गांव का दूसरा पक्ष भी (मेव ही) सक्रिय हो गया था। जब बुखारी गांव के बाहर पहुंचा तो एक पक्ष उसके स्वागत में और दूसरा गालियां निकालने को तैयार था। पुलिस के बीच में पडऩे से वे सभी गांव के चौपाल में जाकर बुखारी को सुनने को राजी हो गए। बुखारी से पहले गांव के दोनों पक्षों के लोग बोले। दोनों में फर्क इतना ही था कि पुलिस की धरपकड़ की चपेट में आया पक्ष बुखारी के सामने पुलिलस की ज्यादतियों से बचाए जाने की मांग भी रख रहा था, जबकि उनके विपक्षी इस बात को रेखांकित करना नहीं भूल रहे थे कि ‘किसी’ को बाहर से आकर गांव के हिन्दू-मुसलमानों में झगड़ा नहीं खड़ा करने  दिया जाएगा, अन्यथादोनों ही पक्ष यह बताना नहीं भूले कि उनका गांव भगवान कृष्ण के गोत्रा वंशियों का गांव है और देश विभाजन के समय गांधी जी के कहने से ही मेवों ने पाकिस्तान न जानेू का फैसला लिया था।

            बुखारी की बारी आई तो वह लगभग बगलें झांकता हुआ खड़ा हुआ। वह बमुश्किल पांच मिनट बोला, जिसका लब्बोलुबाल था कि जब कोई खास मसला ही नहीं है तो उसे बुलाया ही क्यों गया। जाते  हुए वह अपने बुलाने वालों पर भुनभुनाता गया। यहां तक  कि जब उनमें से किसी एक ने उसे थोड़ी देर के लिए अपने घर में आने की दावत दी तो उसने वह भी स्वीकार नहीं की।

            धौज से बीस किलोमीटर पर फरीदाबाद शहर के वल्लभगढ़ क्षेत्रा के मुख्य बाजार की सड़क पर एक छोटी-सी मस्जिद थी। वहां आसपास के हिन्दू दुकानदारों की नीयत मस्जिद के इर्द-गिर्द की जमीन पर पसरने की रही थी, जिसका मस्जिद का इमाम विरोध करता था। धौज में तनाव का लाभ उठाकर इन दुकानदारों ने कट्टरपंथियों से मिलकर गौ-हत्या के नाम पर वल्लभगढ़ बंद का आह्वान दे डाला। कहीं कोई तनाव नहीं था पर सौ-पचास भाड़े के लुच्चों ने अचानक मस्जिद से दोपहर की नमाज पढ़कर निकलते मुसलमानों को पीटना शुरू कर दिया और मस्जिद में आग लगाने की कोशिश की। पांच मिनट में थाने से पहुंचे अतिरिक्त पुलिस बल की दो मिनट की लाठी-कार्यवाही ने उन बदमाशों का जोश ठंडा कर दिया।

            1983 में केंद्र में एवं हरियाणा में भी कांग्रेसी सरकारें थीं। हरियाणा में तो चुनावी नजरिए से मुसलमान महत्वहीन समूह होता है पर देश के पैमाने पर वह तब कांग्र्रेसी वोट बैंक का महत्वपूर्ण हिस्सा गिना जाता था। लिहाजा राजधानी के नजदीक उस जरा से तनाव की खबर ने भी सत्ताधारियों की त्योरियां चढ़ा दी। यहां  तक  कि कुछ समय तक स्थिति पर लगातार जिला प्रशासन ने रपटें मांगी जाती रहीं।

            1984 में मैं करनाल पहुंच गया। करनाल जिला भौगोलिक रूप से ही पंजाब के करीब नहीं है, वहां सिखों एवं हिन्दुओं की भी खासी आबादी है। तब पानीपत, जो अब अलग जिला है, करनाल का ही हिस्सा था। दरअसल पानीपत शहर हर लिहाज से करनाल शहर से बड़ा था-जनसंख्या, अपराध एवं औद्योगिक गतिविधियों में तो निश्चय ही। पंजाब में चल रहे आतंक के दौर का तनाव सारे जिले में देखा जा सकता था। करनाल शहर के पुराने हिस्से में कई सालों से आपस में सटे एक गुरुद्वारे एवं एक मंदिर की होड़ चलायी जा रही थी। पुराना हिस्सा संकरी गलियों वाले रिहायशी इलाकों एवं तंग बाजारों से भरा था। वहीं कुछ अंदर एक छोटे से गुरुद्वारे से लगी एक दुकान को मंदिर में बदलने से होड़ शुरू हुई। गुरुद्वारे और मंदिर की ऊंचाई बढ़ाते-बढ़ाते कई-कई मंजिलों तक पहुंचाई जा चुकी थी। हर त्यौहार पर बढ़-चढ़कर प्रदर्शन से तनाव पैदा हो जाता था। ज्यों-ज्यों ये स्थल लोगों के बीच चर्चा का केंद्र होते गए, आसपास के व्यवसायिक हितों की दिलचस्पी इस प्रतिस्पर्धा को बढ़ाने में होती गई। हर आयोजन पर पुलिस की उपस्थिति भी अनिवार्यत: बढ़ती गई और जैसा कि होता है शांति रखने के नाम पर प्रशासन की बातचीत करने का सिलसिला भी बढ़ता गया। ऐसी प्रशासनिक कवायदों से वास्तव में जो हासिल होता रहा वह इस प्रकार है–साम्प्रदायिक तत्वों को एक सीमा तक तनाव पैदा करने एवं छिटपुट वारदातों की छूट, तमाम सामुदायिक मामलों में उनके दखल की घोषित स्थापना, व्यवसायिक निहित स्वार्थों को प्रोत्साहहन कि वे साम्प्रदायिक रास्तों का इस्तेमाल कर सकते हैं।

            याद रखिए समाज में साम्प्रदायिक स्वार्थों को वैधानिकता/स्वीकार्यता चरण दर चरण मिलती है न कि अचानक किसी मोदी के सत्तासीन हो जाने से। कोई भिंडरावाला आसमान से नहीं टपकता।

            करनाली 1982 में ही इंदिरा गांधी के आगामी सिख भस्मासुरी प्रयोगों की एक झलक पा भी चुका था। एशियाई खेलों के दौरान विरोध दर्ज कराने के लिए सैंकड़ों की संख्या में पंजाब से ट्रकों, बसों, ट्रैक्टर-ट्रालियों में दिल्ली के लिए चले सिखों को करनाल शहर से दस किलोमीटर दिल्ली की तरफ मुख्य राजमार्ग पर मधुबन (मुख्यालय, हरियाणा सशस्त्रा पुलिस) पर घेरा जा सका। वहां घंटों की कशमकश एवं बाद में लाठी/गोली के प्रयोग के बाद भीड़ तितर-बितर हुई। बहुतों को चोटें आई, पचासों गिरफ्तार हुए और शेष तामझाम को पंजाब  के रास्ते पर वापिस धकेल दिया गया। उस दौरान पंजाब से लगती सारी हरियाणा सीमा पर, उत्तर में अम्बाला से पश्चिम में सिरसा तक, पुलिस द्वारा पंजाब की नाकेबंदी की हुई थी। पंजाब में छुट्टा छोड़े भिंडरावाले गिरोह के उत्तेजनापूर्ण बयानों की पृष्ठभूमि में ऐसी सरकारी कवायदें आशंकित हिन्दुओं को ‘आश्वस्त’ करने के लिए होती थीं? अन्यथा इसके भी काफी बाद, तब कांग्र्रेस में महासाचिव, राजीव गांधी ने चंडीगढ़ में भिंडरावाले को संत बताया।

            उत्तरोत्तर यह स्पष्ट होता जा रहा था कि बतौर एक मुखौटा पंजाब में भिंडरावाले की उपयोगिता पाक सत्ताधारियों द्वारा समर्थित उग्रवादी गिरोहों के लिए ज्यादा थी, न कि अकालियों से चुनावी लड़ाई में इंदिरा कांग्रेस के लिए। पर पंजाब से बाहर उग्रवाद का होवा कांग्र्रेस के पक्ष में जा रहा था। अगले आम चुनाव 1985 में होने थे, उससे पहले कभी भी इस मुखौटे को धराशायी कर व्यापक जन समर्थन की आशा की जा सकती थी। इस बीच, चोट से पहले, लोहे को ओर गर्म होने दिया जा सकता था।

            जून 1984 में स्वर्ण मंदिर में भिंडरा-गिरोह पर सरकारी चढ़ाई से पहले, हरियाणा में उबाल वाली स्थिति पहुंच चुकी थी। उत्तर भारत में पहला जानलेवा सिख विरोधी उत्पात 19 फरवरी 1984 को पानीपत में हुआ, जिसमें राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थिति एक गुरुद्वारा जलाकर आठ व्यक्तियों  को जान से मार दिया गया। सरकारी रणनीति रही थी कि हिन्दुओं को सिख उग्रवाद से डराओ और फिर उससे सुरक्षा या  उसके सफाए के नाम पर वोट बटोरो। पंजाब में, उग्रवादियों द्वारा हजार उकसाने के बाद भी, सामुदायिक सामंजस् ऐसा था कि एक भी हिन्दू विरोधी दंगा नहीं हो सका था। पर यदि हरियाणा या अन्य जगहों पर सिख विरोधी दंगे चल पड़ते तो पंजाब में उग्रवाद का जनाधार व्यापक होना सुनिश्चित था। दूसरे सिख दंगों को रोकने में होने वाला सरकारी बल प्रयोग कांग्रेस के पक्ष में हिन्दू वोटों के धु्रवीकरण की राह में बाधा बनता। पानीपत के उत्पात से इंदिरा सरकार के चौकन्ना होने का आलम यह था कि 19 फरवरी ‘84 की शाम ही केंद्रीय ग्रह मंत्राी ने वहां का दौरा किया। उसके बाद भिंडरावाले के सफाए को उसका अकाल तख्त में होना भी नहीं रोक सका।

            19 फरवरी ‘84 की दहलीज पर हरियाणा में हिन्दू-सिख तनाव के अगुवा भाजपाई नहीं कांग्रेसी पृष्ठभूमि के लोग थे। पंजाब में पारम्परिक हित में अकाली व भाजपाई मिलकर कांग्रेस के विरुद्ध चुनाव लड़ते थे। देश के इस भाग में विभाजन के अनुभवों से घनीभूत कट्टर भाजपाई संस्कारों में एक यह भी है कि सिख भी हिन्दू राष्ट्र का अभिन्न हिस्सा होता है। हरियाणा में भी बढ़ती उग्रवादी वारदातों को लेकर भाजपाई स्वाभाविक असमंजस में थे। पर कांग्रेस में कोई असमंजस नहीं था। करनाल में भी कांग्रेसी सेवा दली से जुड़े लोग तनाव के मुख्य किरदार बने हुए थे। पर जहां व्यवसायिक हितों का दखल आ जाता, कांग्रेसी या भाजपाई एक जैसे हो जाते। उस दौरान प्राय: यह घटनाक्रम देखने को मिलता: उग्रवादियों द्वारा कहीं कोई सनसनीखेज वारदात होती (जिसमें ज्यादा लोग मारे गए हों या या किसी नामी हस्ती पर आक्रमण हुआ हो) अखबारों में भड़काऊ तस्वीरें एवं बयान छपते, मुख्य किरदारों द्वारा बंद/प्रदर्शनप की पुकार दी जाती, भाड़े के लुच्चावें पर इक्का-दुक्का सिखों को अपमानित करने/पीटने का सिलसिला चलाया जाता, किसी सिख की दुकान या अलग-थलग गुरुद्वारा पथराव-आगजनी का निशाना बनता, अफववाहों की हवा पर अलग-थलग गुरुद्वारा पथराव-आगजनी का निशाना बनता, अफवाहों की हवा पर तैरता तनाव शहर में एक छोर से दूसरे छोर तक डोलता रहा। यहां तक कि जबरदस्ती बंद की गई दुकानें, उत्तेजित तमाशाबीन और मुख्य किरदारों की आड़ में सक्रिय लुच्चों का समूह ‘स्वाभाविक प्रतिक्रिया’ के किरदार में नजर आने लगते।

            तो भी तब के हरियाणा में संवेदनशील जगहों पर प्रशासन को एक संतुलित शक्ल देने की कोशिश की जाती थी। मसलन करनाल में पुलिस के मुखिया (एसपी) एक ऐसे व्यक्ति थे, जिनका तनाव के प्रमुख हिन्दू किरदारों से सौहार्दपूर्ण रिश्ता जगजाहिर था। मुझे ऐसों के प्रति सख्त रवैये वाला अधिकारी माना जाता था। उपद्रवियों से निपटने में प्राय: एसपी के विमर्श से अधिक कठोर कार्यवाही करने पर भी ऊपर से मेरी रोकटोक नहीं होती थी। सरकार ने वहां एक नर्म छवि के सिख सज्जन को बतौर उपायुक्त लगाया हुआ था, जिससे आम सिखों में सुरक्षा को लेकर ढांढस रहे। पर इस तस्वीर से सिर्फ अस्पष्ट संकेत ही लोगों तक पहुंच सकते थे।

            उस दौर में स्थानीय प्रशासन को जैसे स्पष्ट दिशा-निर्देशों की जरूरत थी, वह कांग्रेसी सरकारों  की परम्परा में शायद ही कभी शामिल रहा हो। तभी देश में कांग्रेस के लंबे शासन में तमाम राज्यों में जब-जब साम्प्रदायिक उत्पातों  का सिलसिला भी चलता ही रहा है। ऐसी स्थिति में यह स्थानीय प्रशासन की सुविधा पर निर्भर होता है कि वह निहित स्वार्थों के बीच क्या भूमिका कहां तक निभा पाता है। तो भी तब चुनावी/व्यवसायिक संदर्भों में कांग्रेसी सरकारें साम्प्रदायिकता की प्रशासनिक कवायदों को वैसे आतंकवादी आयाम नहीं दे पाती थीं, जैसे अब गुजरात में भाजपाई सरकार के लिए संभव हुए हैं। दोनों दलों में यही मूलभूत भिन्नता बनी रही है। श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या पर  सिख-संहार के आयोजन व्यापक कांग्र्रेसी राजनीति का नहीं, कांग्रेस में छाते नौसिखिया एवं लुच्चा  प्रभाव का परिचायक थे, अन्यथा कट्टर आतंकवाद की पृष्ठभूमि में हुई उस हत्या ने चयुनावों में कांग्रेस की अभूतपूर्व सफलता वैसे ही निश्चित कर रखी थी।

            करनाल शहर में तनाव के पैटर्न को समझने में हमें ज्यादा दिन नहीं लगे और न उससे निपटने के तरीके बनने में। सारी दुनिया में जेहा दी आयोजनों के कार्यकत्र्ता आर्थिक रूप से पिछड़े तबकों से मिलते हैं। करनाल में भी बंद की पूर्व संध्या पर ऐसी बस्तियों के चुनिंदा ठिकानों पर चुपचाप रुपया और शराब पहुंचा कर अगली सुबह की भड़काऊ कार्यवाही सुनिश्चित की जाती थी। हमने भ शाम से ही अगले दिन तनाव की समाप्ति तक ऐसे संभावित ठिकानों के आसपास पुलिस की तेजतर्रार उपस्थिति रखनी शुरू कर दी। इससे भाड़े के कार्यकर्ताओं की गतिविधियों पर खासी लगाम लग जाती। उपद्रवियों की अगली कतार जिससे हमें  निपटना था, मध्यवर्गीय साम्प्रदायिक स्वयंसेवकों की होती, जिनमें बहुतायत व्यवसाई तबके की रहती। ये पुराने शहर की संकरी गलियों से झुंड बनाकर बाहर निकलते और आसपास की मंडियों व बाजारों में पसर कर जबरदस्ती दुकानें बंद कराते तथा चुनिंदा सिख दुकानों व प्रतिष्ठानों को तोड़-फोड़/आगजनी का निशाना बनाते। जब तक एक जगह उनके सक्रिय होने की खबर आती तो वे पुलिस के पहुंचने तक कहीं ओर निकल गए होते। पुलिस को देखकर तितर-बितर हो जाना और थोड़ी ही देर में पुन: झुंड बना लेना भी उनकी तरकीब में होता। जवाब में  तनाव के दिन हमपने पुराने शहर से निकलने वाली गलियों को काफी पहले यानी आधी रात के बाद से ही उनके मुहाने पर पुलिस लगाकर नियंत्रित करना शुरू कर दिया। इन मुहानों पर अक्सर पुलिस पर अंदर से जमकर पथराव होता। कई बार उत्पादियों के समूह हमारे लाठीचार्ज का भी डटकर मुकाबला करते। मेरा सिद्धांत था कि उत्पातियों की मंशा प्रकट होते ही प्रभावी लाठीचार्ज हो जो औरों के लिए भी सबक बने। यह फलदायक होते हुए भी हमेशा लागू नहीं हो पाता था। पर हर जगह मैंने कनिष्ठ पुलिसकर्मियों को अपने वरिष्ठों का आसानी से अनुसरण करते पाया। यानी यदि नेतृत्व सही रहता तो कार्यवाही भी ठीक होती थी, अन्यथा उत्पाती कुछ न कुछ कर जाते।

            यदि पुलिस की कार्यवाही भारी पडऩे लगती, तो  उत्पातियों की ढाल बनकर उनकी अग्रिम पंक्ति के नता निकलने लगते। इनमें शहर के रसूख वचाले लोग होते–मुख्यमंत्राी या मंत्रियों के आगमन पर उनके इर्द-गिर्द डोलने वाले, व्यापारिक संगठनों में शामिल लोग, अधिकारियों के साथ शांति कमेटियों में हिस्सा लेने वाले और रोजमर्रा के प्रशासनिक कामों में दखल रखने की हैसियत  के मालिक। ये लोग प्रशासन पर ज्यादती का आरोप लगाते हुए मौके के पुलिस वालों पर चीखते-चिल्लाते, ड्यूटी पर प्रशासनिक अधिकारियों से बहस में उलझते और चंडीगढ़/दिल्ली फोन घुमाना शुरू कर देते। पुलिस अधीक्षक एवं उपायुकत तक पहुंचना उनके बेहद सरल होता। उनकी भागदौड़  के परिणामस्वरूप ‘ऊपर’ से सलाह आने लगती कि स्थिति को ‘टैक्ट’ से निपटा जाए। दोपहर ढलना शुरू होते-होते शहर में तनाव भी ढलना शुरू हो जाता और सारा ध्यान उन थानों/चौकियों पर केंद्रित हो जाता, जिनमें उपद्रव के दौरान पकड़े गए लोग रखे गए होते। उत्पाती नेताओं और जिला अधिकारियों के प्राय: शाम तक ‘बीती ताहि बिसार दे’ की मुद्रा में पहुुुुंचने पर अधिकांश को छोड़ दिया जाता।

            उस माहौल के तनाव में यह आश्चर्यजनक ही कहा जाएगा कि सिख प्रतिनिधियों के लिए उपायुक्त से और हिन्दू नेतागण का पुलिस अधीक्षक से मिनटों में सम्पर्क बन जाता था। प्रशासनिक लिहाज से  किसीी विस्फोटक स्थिति में बीच-बचाव के लिए यह समीकरण फायदेमंद रहता, पर स्पष्ट था कि सरकारी दिशाहीनता से निकला प्रशासनिक दिशाहीनता का रास्ता जनता को भटका रहा था। एक स्वस्थ समाज में जिन लोगों की औकात दो टके की होनी चाहिए थी वे उस तनाव भरे माहौल में सामुदायिक राजनीति पर छाए जा रहे थे।

            19 फरवरी 1984 की घटना को बचाया जा सकता था। पर यह शायद कुछ ऐसा ही तर्क कि स्वर्ण मंदिर के विध्वंस से बचा जा सकता था या पंजाब त्रासदी की जरूरत ही नहीं थी। 19 फरवरी को एक बंद का आह्वान किया गया था। करनाल शहर की जिम्मेदारी मेरी थी। राज्य गुप्तचर विभाग की खबर थी कि बड़े पैमाने पर हिंसा हो सकती है, विशेषकर पानीपत शहर में जहां दो लफंगे सिरफिरों ने ‘हरियाणा देशम’ नाम की पार्टी के गठन का इसी अवसर पर ऐलान कर दिया था। उनकी आड़ में हिन्दू साम्प्रदायिक स्वार्थों ने उस अवसर पर हिंसा फैलाने में अपनी ताकत झोंक दी थी। उस दिन वहां के उपपुलिस अधीक्षक (डिप्टी एसपी) तथा उपमंडल मैजिस्ट्रेट (एसडीएम) पूरी तरह नकारा सिद्ध हुए। दो दिन पहले से ही ऊपर से बार-बार उनसे दोनों लफंगों को गिरफ्तार करने को कहा जा रहा था। जहां तक  मुझे याद पड़ता है एक शाम पहले खुद मुख्यमंत्राी ने भी करनाल एसपी को इस बाबत फोन पर कहा, पर वे दोनों पानीपत पलिस द्वारा काबू नहीं किए जा सके।

            सुबह से ही करनाल शहर में भी माहौल गर्म होने लगा। हमने संवेदनशील बस्तियों की नाकेबंदी और पुराने शहर की गलियों की घेराबंदी में ढील नहीं आने दी। कई जगह पथराव इत्यादि के बीच लाठीचार्ज किया गया और दस-साढ़े दस तक तनाव ठंडा पडऩे लगा। रात का निकला मैं घर में घुसा ही था कि पुलिस वायरलेस पर खबर आने लगी कि पानीपत में स्थिति बिगड़ रही है और भारी भीड़ ने राष्ट्रीय राजमार्ग पर गुरुद्वारे को घेर रखा है। वहां से अतिरिक्त पुलिस बल मांगा जा रहा था। कुछ ही समय में पुलिस अधीक्षक ने मुझे दो प्लाटून (करीब 40 पुलिस कर्मी) के साथ पानीपत जाने को कहा। 35 किलोमीटर की दूरी तय कर जब मैं वहां पहुंचा तो हजारों की भीड़ से सारा मार्ग अवरुद्ध था। गुरुद्वारे के दोनों ओर राजमार्ग पर आधा-आधा किलोमीटर तक लोग ही लोग थे। पर थे वे तमाशबीन ही, क्योंकि मेरी जीप और पीछे आ रही दोनों बसों को गुरुद्वारे के पास तक पहुंचने का रास्ता मिलता गया। आसपास की गलियों में भी लोग जमा थे और जहां नजर जाती लोग छतों को भी भरे हुए थे। गुरुद्वारे का मुख्य द्वार बगल की गली में था। वहां और गुरुद्वारे के सामने राजमार्ग पर पचासों पुलिस वाले हताश से बिखरे खड़े थे।

            सक्रिय उत्पातियों की संख्या पांच सौ से ज्यादा नहीं रही होगी और वे बिखर कर गुरुद्वारे की ओर बीच-बीच में पत्थर मार रहे थे–बहुतों के हाथ में लाठियां भी थीं। पुलिस ने बस किसी तरह उन्हें गुरुद्वारे में घुसने से रोका हुआ था। हमने पहइुंचते ही मुख्य द्वार वाली गली  में हल्ला बोला और वहां से उत्पातियों को खदेड़ दिया, पर वे घूम कर अन्य तरफ पहुंच गए और प्रतिक्रिया में पत्थर वर्षा तेज हो गई, आसपास की कुछ छतों से भी। तमाशबीनों के भी दो हिस्से थे–करीबतर छोटा हिस्सा उत्पातियों का मनोबल बढ़ा रहा था और दूर वाला हिस्सा पूरी तरह निष्क्रिय था। समस्त पुलिस दल को संगठित रूप से गुरुद्वारे के चारों तरफ तैनात करने में और 15-20 मिनट लगे। उन हालातों में यह रक्षात्मक तैनाही ही हो सकती थी। उतनी बड़ी उग्र भीड़ पर लाठीचार्ज का कोई मतलब नहीं होता और जहां तक गोली चलाने के विकल्प की बात थी उस लिहाज से स्थिति के आंकलन में बहुत से तमाशबीनों के निशाना बनने का खतरा भी शामिल होता।

            जाहिर था कि स्थिति को वहां तक प्रशासनिक निष्क्रियता से ही पहुंचने दिया गया था–उत्पातियों का कानून से भय का रिश्ता नहीं रह गया था, एक समर्थक हजूम का कवच मिला हुआ था और हजारेां की संख्या में तमाशाबीन किसी प्रभावी पुलिस कार्रवाई की संभावना की राह में रोड़ा बने हुए चारों ओर जमे हुए थे।

            प्रशासन शायद इस इंतजार में हाथ पर हाथ धरे सुबह से मूकदर्शक रहा था कि तनाव के बावजूद बंद का आह्वान हमेशा की तरह कुछ छिटपुट वारदातों के साथ गुजर जाएगा। सुबह से ही शहर में जगह-जगह उत्तेजित समूह में इक्_ा होने का सिलसिला चल रहा था, फिर शहर के तमाम इलाकों से होता हुआ उत्तेजित नारों से भरा हुआ जुलूस शुरू हुआ जिसमें लाठी-डंडे वाले भी शामिल होते गए। जीटी रोड पर पहुंचने पर अचानक अफवाह शुरू कर दी गई कि जीटी रोड वाले गुरुद्वारे  में बाहर से आतंकवादी आए हुए हैं। इस तरह जुलूस को गुरुद्वारे  पर ले जाकर खड़ा कर दिया गया। यद्यपि जुलूस ने रास्ते में इक्का-दुक्का मिलने वाले सिखों को अपमानित भी किया था। पर उल्टे शहर में प्रचार किया गया कि गुरुद्वारे के अंदर से जुलूस पर गोली चलाई गई है। लिहाजा गुरुद्वारे पर तमाशबीनों की भीड़ बढ़ती गई और बात पुलिस के वश से बाहर होती गई।

            उस दिन इतवार के कारण आसपास के गांवों से भी लोग गुरुद्वारे में आए हुए थे। इसी बिना पर ही बाहर से उग्रवादियों के आने की बात फैलाई गई थी। जो लोग पानीपत शहर के थे और बहुत से अन्य भी भीड़ की उग्रता भांप कर गुरुद्वारे से निकल गए पर दूर असंध एवं निसिंग इलाके के करीब 60 मर्द, औरतें, बच्चे अंदर फंसे रह गए।

            किसी प्रकार पुलिस की टुकडिय़ों को रक्षात्मक रूप से तैनात करके मैंने अपने साथ लाई दोनों पुलिस बसों को गली में गुरुद्वारे के दरवाजे पर लगाया। इन बसों में पथराव से बचयने के लिए शीशों पर लोहे की जालियां लगी हुई थीं अंदर जाकर हमने सभी फंसे लोगों  को बाहर बसों में बैठने को कहा, जिससे उन्हें सुरक्षित कहीं ओर ले जाया जा सके। प्रशासन पर उनके अविश्वास का आलम यह था कि करीब आघा घंटा लगा सभी को समझा कर बाहर बसों में बिठाने में। आगे मैंने अपनी जीप लगाई और बरसते पत्थरों के बीच हम धीरे-धीरे भीड़ से बाहर निकलते गए। हमें कई हवाई फायर करने पड़े और साथ पैदल चल रहे पुलिस कर्मिैयों ने अपनी बांस की टोकरियों पर पत्थर झेले और यदा-कदा लाठी भी चलाई। गनीमत है कि भीड़ पर सीधे गोली चलाने से हम बच सके, अन्यथा तमाशबीन तो मरते ही, अफवाहें शहर के दूसरे हिस्सों में भी हिंसा को ले जातीं।

            पानीपत-करनाल राजमार्ग पर पानीपत से करीब 18 किलोमीटर दूर घरौंडा थाना है। वहां उन फंसे हुए लोगों को सुरक्षित उतार कर जब मैं पानीपत की ओर लौटने लगा तब तक करनाल से पुलिस अधीक्षक भी वहां आ पहुंचे। हमने इक्_े पानीपत पहुंचने पर पाया कि तमाशबीनों से घिरा गुरुद्वारा जल रहा है और अंदर-बाहर सात सिखों की लाशें पड़ी हैं। बाद में एक और सिख की लाश कुछ दूर एक गली से मिली। ये आठों पुलिस से छिपकर गुरुद्वारे के बारातघर में चारपाइयों इत्यादि की आड़ में रह गए थे। यहां तक कि उन्होंने बारातघर में बाहर से ताला भी लगवा रखा था। उन्हें प्रशासन पर भरोसा था ही नहीं कि उनकी भीड़ से जान बचाई जा सकेगी।

            हुआ यह कि हमारे घरोंडा की ओर जाने के बाद उत्पाती गुरुद्वारे में घुसे और आग लगा दीं  उनसे व आग से बचने के लिए छपे लोग इधर-उधर भागे और डंडों से पीट-पीट कर मार दिए गए। पानीपत के डीएसपी के पास सैंकड़ों पुलिस वाले होते हुए भी उसने कुछ नहीं किया जबकि उस समय पुसि का गोली तक चलाना हर लिहाज से वैध था। मैं नहीं समझता कि वह डीएसपी उत्पातियों से मिला हुआ था। पर निश्चित ही वह किकर्तव्यविमूढ़ था जिससे उत्पातियों के हौसले बढ़ते चले गए थे। रात आने तक सरकार ने उसे निलंबित कर दिया और उसके विरुद्ध ड्यूटी में कोताही दिखने के लिए विभागीय जांच के आदेश भी दे दिए। 1986 में एक दूसरी सरकार (कांग्रेेसी ही) आई। उसने इस डीएसपी को न सिफ बहाल कर जांच समाप्त कर दी, बल्कि किन्हीं पूर्व सेवाओं के एवज में उसे रिटायरमेंट के बाद हरियाणा के सबआर्डिनेट सेलेक्शन बोर्ड का चेयरमैन भी बना दिया। में तमाशबीनों को उस पशुवत हत्याकांड में शरीक नहीं समझता, यद्यपि पुलिस की उपस्थिति ने भी उनकी नैतिक या सामाजिक जवाबदेही को कूंद रखने में सहयोग दिया होगा। गुजरात में दंगों के बंाद उत्सुकतावश मैंने हत्या व आगजनी के उस मुकद्दमें के नतीजे का पता किया तो बताया गया कि कुल 55 अभियुक्तों के विरुद्ध 18 साल बीतने पर भी अदालत में चार्ज नहीं लग सका है।

            अभी हम घटनास्थल पर ही थे कि अचानक बेमौसम तेज-तेज ओले पडऩे शुरू हुए और करीब आधा घंटे पड़ते ही रहे। इससे उत्तेजना पर अवसाद हावी हो गया और लोग तेजी से तितर-बितर होते गए। हम शहर में गश्त पर निकले तो माहौल से लगा कि जैसे हिन्दू-सिखों  के उस रले-मिले शहर को सामूहिक पश्चाताप से अपने मजबूत घूटनों में जकड़ रखा हो। देर शाम मैं माडल टाऊन में एक पुराने सहयोगी रिटायर सिख डीएसपी के घर उन्हें ढांढस देने गया। सरदारनी एक ही सांस में अमृतसर के अकाल तख्त में छिपे भिंडरवाले और दिल्ली  के तख्त पर बैठी इंदिरा गांधी को गालियां दे रही थी। यानी ऐसा  नहीं था कि लोग उस राजनीति से अनजान थे जो उनके जीवन को अस्थिर एवं असुरक्षित बना रही थी।

            मुश्किल से डेढ़-एक महीना निकला होगा कि एक अन्न्य सनसनीखेज वारदात (संभवत: ‘पंजाब केसरी’ घराने के प्रमुख रमेश चंद्र की हत्या) को लेकर एक ओर आक्रामक बंद का आह्वान किया गया। आशंका थी कि इस बार पानीपत में और अधिक बवाल खड़ा किया जाएगा। आतंकवादी  गिरोहों की सीनाजोरी और उनसे निपटने में सरकारी विफलता के चलते लोगों में असुरक्षा एवं रोष की गहरी भावना थी। इसकी आड़ में सिखों के विरुद्ध हमलों के आयोजन को ‘स्वाभाविकता’ में शामिल किया जा सकता था, विशेषकर क्योंकि उस आतंकवाद की केंद्रीय कमान सिख धर्म के पवित्रातम स्वर्ण मंदिर से काम कर रही थी। मुझे एक दिन पहले ही अतिरिक्त पुलिस बल के साथ पानीपत भेज दिया गया।

            हमारी रणनीति यह रही कि उत्पादी समूहों को एक साथ इक्_ा न होने दिया जाए, जिससे वे भीड़ या जुलूस की शक्ल न ले पाएं। ज्ञात शरारती तत्वों पर इस बार पहले से दबिश डाली जा रही थी और संवेदनशील इलाकों में रात से ही पुलिस लगाई हुई थी। यह सब पुलिस  के जाने-पहचाने तरीके होते हैं और उत्पातियों द्वारा इनकी काट निकाल लेना भी मुश्किल नहीं होता। मसलन, एक-दो दिन पहले से ठिकाना बदल लेना, जिससे पूर्व गिरफ्तारी से  बचा जा सके या किसी ऐसे इलाके में अचानक उतपात छेडऩा जहां पुलिस कम दिखे, क्योंकि हर समय हर जगह बड़ी संख्या में पुलिस हो नहीं सकती। लिहाजा हमने अनेकों  गतिशील हस्तक्षेपी दस्ते बनाए जिनके बीच सारे शहर में घूमते रहने और संभावित उत्पाती समूहों के विरुद्ध कार्यवाही का जिम्मा बांट दिया गया। प्रत्येक दस्ते में एक जीप में वरिष्ठ अधिकारी, साथ में एक बड़ी गाड़ी में 20-25 लाठीधारी व 3-4 रायफलधारी और पीछे कुछ पुलिस वाले एक खाली ट्रक में होते, जिसमें मौके से पकड़े लोगों को रखा जाता। मुख्य दस्ता, जिसके जिम्मे राजमार्ग उवं साथ लगते इलाके थे, सीधे मेरे नेतृत्व में था।

            उस रोज हम बेहद प्रभावी सिद्ध हुए दरअसल हमारे सुबह आठ बजे से शुरू होने  के दो घंअे के भीतर ही उबाल का सारा दौर चूक गया। कई जगह हम पर पत्थर भी पड़े और मुकाबला भी हुआ। पर ज्यादातर उत्पाती इक्_ा होना शुरू करते हीं कि कया गली कया सड़क बस हमारे डंडे शुरू हो जातमे। मुझे पिछले अनुभवों से आभास था कि ऐसे समूहों को सिफ तितर-बितर  करने से वे जल्द ही पुन: इक्_ा हो जाते हैं और यदि पुलिस के हाथों चोट खाए हों तो और भी उत्तेजना के साथ। लिहाजा हर ऐसे  समूह से कुछ एक के हाथ-पैर तुड़वाकर अस्पताल पहुंचने के साथ जब दो-चार की धरपकड़ भी की गई तो उनके शुभंचिंतकों का ध्यान भी तामीरदारी उवं पैरवरी पर जा लगा और जल्द ही सड़कें और गलियां सामान्य अवस्था में लौटनी शुरू हो गई।

            सुरक्षा एवं शांति बनाए रखने के लिए किसी ने हमें तगमे तो नहीं दिए पर किसी ने उन कठोर कदमों के लिए टोका भी नहीं। जाहिर था कि सरकार 19 फरवरी जैसीे जवाबदेही से बचना चाहती थी। मुझे अच्छी तरह याद है कि पानीपत के एक बड़े उद्योगपति ने मुझे एक मुहल्ले में रोक लियां वह अपने चमचों से घिरा चीख रहा था कि मुख्यमंत्राी का ठिकाना बताओ और पुलिस की ज्यादतियों  के लिए वह मुझे सबक सिखाएगा। उसे न सिर्फ मुंहतोड़ जवाब दिया गया बल्कि यह भी जता दिया गया कि यदि वह भी कानून तोड़ता मिला तो उसका भी हश्र दूसरों जैसा ही होगा। क्या उत्पातियों व उनके रहनुमाओं को सबक सिखाने वाली वह वही  पुलिस नहीं थी जो 19 फरवरी को  मूकदर्शक बनी बर्बर संहार देती रही थी? क्या अपने-अपने काम में लगा यह वही शहर नहीं था जो  19 फरवरी को तमाशबीन बना अंधे कुएं में मौत की छलांगें देख रहा था? तब से बदला क्या था? आज प्रशासन के सामने दिशा थी और उत्पातियों के सामने दीवार।

            उत्पातियों की प्रशासनिक रोकथाम की कुंजी रही–उनके स्वार्थ का निषेध एवं उनके लिए खतरों की पराकाष्ठा। साम्प्रदायिक दंगों के आयोजक चाहे जितने भी आध्यात्मिक तर्क दे लें पर साध वे किसी न किसी भौतिक स्वार्थ के ही रहे होते हैं और यदि कुकर्म सार्वजनिक रूप से किए जा रहे हैं तो जाहिर है कि उनके सामने खतरों का अभाव है।

(लेखक भारतीय पुलिस सेवा के एक वरिष्ठ अधिकारी रहे हैं)

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