हमें गुमराह करके हँस रहा है,
ये रहबर तो यक़ीनन मसख़रा है।
जो सब को छोडक़र ऊपर चढ़ा था,
वो सब नज़रों से गिरता जा रहा है।
हमें गुमराह करके हँस रहा है,
ये रहबर तो यक़ीनन मसख़रा है।
यहाँ हर शख़्स गुमसुम सा खड़ा है,
यक़ीनन कोई हंगामा हुआ है।
जो सब को छोडक़र ऊपर चढ़ा था,
वो सब नज़रों से गिरता जा रहा है।
वहाँ जंगल में थे ख़ूंख़ार वहशी,
यहाँ बस्ती में ज़हरीली हवा है।
ज़माना हो गया है लुटते-लुटते,
बचाने के लिए अब क्या बचा है?
बढ़ी कुछ इस क़दर उस की बुलन्दी,
मेरा क़द ख़ुद ही छोटा हो गया है।
नज़र है आदमी की कहकशाँ पर
सितारों पर कमन्दें फैंकता है।
उसे किस नाम से कोई पुकारे,
जो नफ़रत हर तरफ फैला रहा है।
चुराते हैं जो मुझ से लोग नज़रें,
सिला ये हक़परस्ती का मिला है।
जो आया था कभी सहरा मिटाने,
सुना है वो समन्दर पी गया है।
गई ‘राठी’ की वो हर-दिल अज़ीज़ी,
भला अब कौन उस को पूछता है।