हरियाणा सृजन उत्सव में 24 फरवरी 2018 को ‘दलित जब लिखता है’ विषय पर परिचर्चा हुई जिसमें प्रख्यात दलित कवि मलखान सिंह तथा कहानीकार रत्न कुमार सांभरिया ने परिचर्चा में शिरकत की। अपने अनुभवों के माध्यम से भारतीय समाज व दलित साहित्य से जुड़े ज्वलंत और विवादस्पद सवालों पर अपने विचार प्रस्तुत किए। मलखान सिंह ने इस अवसर पर अपनी दो कविताएं सुनाई। इस परिचर्चा का संयोजन अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद के अंग्रेजी विभाग में एसिस्टेंट प्रोफेसर पद पर कार्यरत सामाजिक-साहित्यिक चिंतक जय सिंह ने किया। प्रस्तुत हैं परिचर्चा के मुख्य अंश – सं.
जय सिंह- हाशिये का दर्द अपने आप में एक बहुत बड़ा दर्द है। दलित वर्ग के सामने जाति, धर्म, वर्ण, ऊंच-नीच आदि अनेक बाधाएं एवं चुनौतियाँ कदम-कदम पर खड़ी हैं, जिनसे दो-दो हाथ करते हुए दलित व्यक्ति को आगे बढ़ना है। दलित के दर्द को कोई सुनना नहीं चाहता। दलित जब लिखता है तो वह बहुत बड़े संघर्ष से होकर गुजरता है।
रत्न कुमार सांभरिया- वास्तव में हिंदू में धर्म वर्ण तो तीन ही हैं। ब्राह्मण, क्षत्रीय और वैश्य। चौथा शूद्र वर्ण वर्ण नहीं है, बल्कि एक वर्ग है। जिसमें छह हजार से ज्यादा जातियां आती हैं। शूद्र, अति शूद्र, दलित, पिछड़े सभी इसी वर्ग में आते हैं, जो पहले भी वर्ग था और आज भी वर्ग ही है। बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर के प्रथम गुरू गौतम बुद्ध हैं। बुद्ध भारत के प्रथम महापुरुष हैं, जिन्होंने दलित-पिछड़ों को गले लगाया और उन्हें धम्म दीक्षा दी। गौतम बुद्ध का एक प्रसंग आता है कि एक बार वह एक नगर से जा रहे थे तो सुनीत नामक भंगी गली में झाडू लगा रहा था। बुद्ध जब उस भंगी के पास पहुंचे तो वह व्यक्ति थोड़ा पीछे हट गया ताकि बुद्ध से वह छू न जाए क्योंकि उसे अछूत माना जाता था। गौतम बुद्ध थोड़ा और उसके पास आये, तो वह डर कर पीछे हट गया। बुद्ध आगे बढ़ते गये और सुनीत पीछे-पीछे हटता गया। अंत में वह दीवार से सट कर खड़ा हो गया। लेकिन गौतम बुद्ध ने उसे गले लगाया, दीक्षा देकर उसे संघ में शरण दी। इसलिए तथागत बुद्ध दलित लेखकों के प्रेरणास्रोत हैं। दलित साहित्य किसी से भेदभाव नहीं करता। दलित साहित्य में नफरत और भेदभाव के लिए कोई स्थान नहीं है। दलित लेखक बुद्ध, कबीर, रविदास, फुले सरीखे महापुरूषों को अपना आदर्श मानते हैं और इन्हीं से प्रेरणा प्राप्त करते हैं।
बाबा साहब के दूसरे गुरू संत कबीर हैं, जिन्होंने कहा, जे तू बामन बामनी का जाया। तो आन बाट, काहे नहीं आया। यह अपने आप में एक बहुत बड़ी चुनौती है। इसी प्रकार मीरा बाई जैसी महारानी ने भी संत रविदास को अपना गुरु बनाया जो जातिवाद के ऊपर एक बहुत बड़ा प्रहार है। महात्मा फूले को बाबा साहब ने अपना तीसरा गुरु माना जो पेशवाओं की धरती से आते हैं। जहां दलितों के मुंह के आगे हांडी और पीछे झाडू बंधी होती थी ताकि इनकी थूक धरती पर ना गिरे और झाडू से इनके कदमों के निशान मिटते चले जाएं। इसी भयावह स्थिति से निपटने के लिए फूले ने अन्त्यज वर्गों के लिए स्कूल खोले। ज्योतिराव फूले ने अपनी पत्नी सावित्रीबाई फूले को पढ़ाया जो भारत देश की प्रथम महिला शिक्षिका बनीं। जिन्होंने आगे चलकर महिलाओं को पढ़ाने का काम शुरू किया। उन्हें भी समाज ने तिरस्कृत किया। उन पर गोबर और कीचड़ फेंका गया था। उन्होंने महिलाओं को पढ़ाना बंद नहीं किया बल्कि अपने साथ दो साड़ियां रख लीं। जितने भी तथागत बुद्ध से लेकर बोधिसत्व बाबा साहब तक के महापुरुष हैं, ये सभी दलित लेखन के प्रेरणा स्रोत हैं। मेरी प्रथम कहानी “फुलवा” हंस में छपी थी, जो आज देश के दस विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती है।
आज दलित वर्ग का युग परिवर्तित हो रहा है। एक बार मुझे लखीमपुर खीरी एक प्रोग्राम में बुलाया गया। प्रोग्राम के अगले दिन लेखकों को राष्ट्रीय वन्य जीव उद्यान में हाथी पर बैठाकर घुमाया गया। ये वही जंगल है, जिनमें मेरे पिता जी 1970 के दशक में लकड़ी काटा करते थे। एक युग में इन जंगलों में हमारे पूर्वज लकड़ी काटते थे और आज इन्हीं जंगलों में शिवमूर्ति और मुझ जैसे दलित लेखकों को हाथी पर घुमाया जाता है। यह अपने आप में एक बहुत बड़ा बदलाव है। आज दलित का युग बदल रहा है, उसके पास कोई दूसरा हथियार नहीं हे, उसके पास सिर्फ शिक्षा है। शिक्षा से ही दलित समाज अपनी दशा आौर दिशा बदल सकता है।
मलखान सिंह- गोर्की का कथन है – संस्कृति के निर्माताओं तय करो कि किस ओर हो तुम। मुक्तिबोध की पंक्ति है, ‘अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे’। दलित कविता इन सारे खतरों को उठा रही है। लेकिन समाज सुनने को तैयार नहीं है।
आज भारतीय समाज टूटने के कगार पर जा पहुंचा है। ये ऊपर से जितना सुंदर दिखाई देता है अंदर से उतनी ही सड़ांध आती है। भारत की जाति-व्यवस्था और ब्राह्मणवाद व्यक्ति को बौना बना रहा है। सिर्फ दलित ही नहीं बल्कि प्रत्येक व्यक्ति इस जाति-व्यवस्था से पीड़ित है। आज दलित भी खूब ब्राह्मणवादी हैं, वो मंदिर जाते हैं, आज जब देवी आती है तो वह दलित व्यक्तियों में ही सबसे ज्यादा आती है। व्रत, पूजा-पाठ में सबसे ज्यादा दलित समाज लिप्त है। इस ब्राह्मणवाद से कोई नहीं बचा है। दलित साहित्य का सौंदर्य बोध मानवीय समानता पर विश्वास करता है। यह मान कर चलता है कि जन्म से सभी समान हैं। समता मूलक समाज की समानता इस सौंदर्य बोध के अंतर्गत आते हैं।
एक बार अमेरिका में जब ब्लैक लिटरेचर लिखा जा रहा था तो एक गोरे ने एक काले व्यक्ति से पूछा था कि क्या मेरे द्वारा लिखा हुआ साहित्य ब्लैक लिटरेचर नहीं हो सकता। तब उस काले व्यक्ति ने जवाब देते हुए कहा था कि एक दिन के लिए आप मेरी काली चमड़ी पहन कर मेरे घर में बिता दीजिए। तब आपको मालूम पड़ेगा कि ये गोरे अंग्रेज काले व्यक्ति के साथ कैसा भेदभाव करते हैं। आप को खुद ज्ञात हो जाएगा कि क्या गोरे व्यक्ति का लिखा हुआ साहित्य ब्लैक लिटरेचर हो सकता है कि नहीं। बिल्कुल यही स्थिति दलित साहित्य के साथ है। दलित व्यक्ति ने समाज के तमाम कार्य किए, पैर धोए, झाडू लगाया, मरे मवेशी उठाए इत्यादि लेकिन फिर भी दलित आज भी अछूत का अछूत ही है।
सारे सवालों के जवाब खुद ही देने होंगे क्योंकि जब सवाल आपके पास हैं तो जवाब भी आपके ही पास है।
सुनो ब्राह्मण
हमारी दासता का सफर
तुम्हारे जन्म से शुरू होता है
और इसका अंत भी
तुम्हारे अंत के साथ होगा
2
सुनो ब्राह्मण
हमारे पसीने से
बू आती है तुम्हें।
फिर ऐसा करो
एक दिन अपनी जनानी को
हमारे जनानी के साथ
मैला कमाने भेजो।
तुम! मेरे साथ आओ
चमड़ा पकाएंगे
दोनों मिल बैठ कर।
मेरे बेटे के साथ
अपने बेटे को भेजो
दिहाड़ी की खोज में।
और अपनी बिटिया को भेजो
हमारी बिटिया के साथ
भेजो कटाई करने
मुखिया के खेत में।
शाम को थक कर
पसर जाओ धरती पर
सुंघो खुद को
बेटे को
बेटी को
तभी जान पाओगे तुम
जीवन की गंध को
बलवती होती है जो
देह की गंध से
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3
हम जानते हैं
हमारे सब कुछ
भौंडा लगता है तुम्हें।
हमारी बगल में खड़ा होने पर
कद घटा है तुम्हारा
और बराबर खड़ा देख
भवें तन जाती हैं।
सुनो भू-देव
तुम्हारा कद
उसी दिन घट गया था
जिस दिन कि तुमने
न्याय के नाम पर
जीवन को चौखटों में कस
कसाई बाड़ा बना दिया था।
और खुद को शीर्ष पर
स्थापित करने हेतु
ताले ठुकवा दिए थे
चौमंजिला जीने पे।
वहीं बीच आंगन में
स्वर्ग के नरक के
ऊंच के नीच के
छूत के अछूत के
भूत के भभूत के
मंत्र के तंत्र के
बेपेंदी के ब्रह्म के
कुतिया, आत्मा, प्रारब्ध
और गुण-धर्म के
सियासी प्रपंच गढ़
रेवड़ बना दिया था
पूरे के पूरे देश को।
तुम अकसर कहते हो कि
आत्मा कुंआ है
जुड़ी है जो मूल सी
फिर निश्चय ही हमारी घृणा चुभती होगी तुम्हें
पके हुए शूल सी।
यदि नहीं-
तुम सुनो वशिष्ठ!
द्रोणाचार्य तुम भी सुनो
हम तुमसे घृणा करते हैं
तुम्हारे अतीत
तुम्हारी आस्थाओं पर थूकते हैं
मत भूलो कि अब
मेहनतकश कंधे
तुम्हारे बोझ ढोने को
तैयार नहीं हैं
बिल्कुल तैयार नहीं है।
देखो!
बंद किले से बाहर
झांक कर तो देखो
बरफ पिघल रही है
बछड़े मार रहे हैं फुर्री
बैल धूप चबा रहे हैं
और एकलव्य
पुराने जंग लगे तीरों को
आग में तपा रहा है
सफ़ेद हाथी
गाँव के दक्खिन में पोखर की पार से सटा,
यह डोम पाड़ा है –
जो दूर से देखने में ठेठ मेंढ़क लगता है
और अन्दर घुसते ही सूअर की खुडारों में बदल जाता है।
यहाँ की कीच भरी गलियों में पसरी
पीली अलसाई धूप देख मुझे हर बार लगा है कि-
सूरज बीमार है या यहाँ का प्रत्येक बाशिन्दा
पीलिया से ग्रस्त है।
इसलिए उनके जवान चेहरों पर
मौत से पहले का पीलापन
और आँखों में ऊसर धरती का बौनापन
हर पल पसरा रहता है।
इस बदबूदार छत के नीचे जागते हुए
मुझे कई बार लगा है कि मेरी बस्ती के सभी लोग
अजगर के जबड़े में फंसे जि़न्दा रहने को छटपटा रहे है
और मै नगर की सड़कों पर कनकौए उड़ा रहा हूँ ।
कभी – कभी ऐसा भी लगा है कि
गाँव के चन्द चालाक लोगों ने लठैतों के बल पर
बस्ती के स्त्री पुरुष और बच्चों के पैरों के साथ
मेरे पैर भी सफेद हाथी की पूँछ से
कस कर बाँध दिए है।
मदान्ध हाथी लदमद भाग रहा है
हमारे बदन गाँव की कंकरीली
गलियों में घिसटते हुए लहूलूहान हो रहे हैं।
हम रो रहे हैं / गिड़गिड़ा रहे हैं
जिन्दा रहने की भीख माँग रहे हैं
गाँव तमाशा देख रहा है
और हाथी अपने खम्भे जैसे पैरों से
हमारी पसलियाँ कुचल रहा है
मवेशियों को रौंद रहा है, झोपडि़याँ जला रहा है
गर्भवती स्त्रियों की नाभि पर
बन्दूक दाग रहा है और हमारे दूध-मुँहे बच्चों को
लाल-लपलपाती लपटों में उछाल रहा है।
इससे पूर्व कि यह उत्सव कोई नया मोड़ ले
शाम थक चुकी है,
हाथी देवालय के अहाते में आ पहुँचा है
साधक शंख फूंक रहा है / साधक मजीरा बजा रहा है
पुजारी मानस गा रहा है और बेदी की रज
हाथी के मस्तक पर लगा रहा है।
देवगण प्रसन्न हो रहे हैं
कलिया भैंसे की पीठ चढ़ यमराज
लाशों का निरीक्षण कर रहे हैं।
शब्बीरा नमाज पढ़ रहा है
देवताओं का प्रिय राजा मौत से बचे
हम स्त्री-पुरूष और बच्चों को रियायतें बाँट रहा है
मरे हुओं को मुआवजा दे रहा है
लोकराज अमर रहे का निनाद
दिशाओं में गूंज रहा है…
अधेरा बढ़ता जा रहा है और हम अपनी लाशें
अपने कन्धों पर टांगे संकरी बदबूदार गलियों में
भागे जा रहे हैं / हाँफे जा रहे हैं
अँधेरा इतना गाढ़ा है कि अपना हाथ
अपने ही हाथ को पहचानने में
बार-बार गच्चा खा रहा है।
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (मई-जून 2018), पेज – 37 से 39
भाई मलखान सिंह की कविता सुनो ब्राह्मण और सफ़ेद हाथी पढने को मिली। दलित समाज की समसामयिक अवस्था का ज़िक्र किया गया है। परन्तु मूलभूत प्रश्न जो मेरे सामने आता है कि दलित कौन है एवं क्या केवल दलित वह है जिसके ऊपर भारतीय संविधान द्वारा आरोपित अनुसूचित जाति अथवा जन-जाति का ठप्पा लगा है। क्या ब्राह्मण कभी भी दलित नहीं हुआ। भारतीय इतिहास में अनेक ऐसे उदाहरण मेर्रे सामने आते हैं जहां भारतीय ज्ञान परम्परा को अग्रसरित एवं पोषित करने वाला व्यक्ति राजनीतिक सत्ता के सामाजिक गलियारों में धर्षण का पात्र बना एवं उसका अपमान हुआ। उदाहरण के तौर पर विष्णुगुप्त अथवा चाणक्य । कृषि कर्म ज्ञान निष्ठ ब्राह्मण की आजीविका का साधन मात्र रही जिसने मानवीय संस्कॄति को पोषित करने का प्रयास किया। राजनीति एवं मनुष्य की मदान्धता के कारण जाति परम्परा को अग्रसरित करने के प्रयासों में मनुष्य की निष्ठा का अपमान करना कहां तक सही हो सकता है, यही विचारणीय प्रश्न है।