ग़ज़ल
नफ़रत वालों ने हर जानिब1 इक तूफ़ान उठाए रक्खा,
लेकिन हमने हर तूफ़ां में प्यार का दीप जलाए रक्खा।
छोटे-छोटे से टुकड़ों में बाँट दिए सब ख़्वाब हमारे,
छोटे-छोटे जाल बिछा कर तुमने हमें उलझाए रक्खा।
तुम ने हमारी ख़ातिर ढूंढी उलटी राहें, फ़रज़ी मंजि़ल,
झूठे रहबर2 बन कर हम को राहों में भटकाए रक्खा।
तुमने चाहा बाज़ी हारें लेकिन हम ने राहे-वफ़ा में,
प्यार की साख बनाए रक्खी, दिल को रोग लगाए रक्खा।
मुद्दत पहले तुम तो हम पर अपना बोझ भी डाल चुके थे,
अपनी हिम्मत देखो हम ने सब का बोझ उठाए रक्खा।
हम से सादा-दिल लोगों की ऐसे अपनी उम्रें गुज़रीं,
औरों का दु:ख अपना समझा, अपना दर्द भुलाए रक्खा।
अपनी तो दुनिया से यूँ ही रहनी थी पहचान अधूरी,
दुनिया ने हम से तो अपना असली रूप छुपाए रक्खा।
जिनके क़ब्ज़े में सूरज था, उनकी नीयत ठीक नहीं थी,
उन लोगों ने घोर अंधेरा हर जानिब फैलाए रक्खा।
समझाने पर भी ‘राठी’ जी अपनी जि़द्द से बाज़ न आए,
दुनिया-भर के हंगामों में नाम अपना लिखवाए रक्खा।
—————————