तेरी बातों में आ गया, मैं भी,
छोड़ आया वो क़ाफ़िला, मैं भी।
तुम भी चुप थे मिरी ख़ताओं1 पर,
कैसे करता कोई गिला मैं भी।
लोग भी अब बदल गये लेकिन,
पहले जैसा कहाँ रहा मैं भी।
छोड़ कर तुमको मैं कहाँ जाता,
पास तेरे खड़ा रहा मैं भी।
मुझ को नीचे धकेलने वाले,
रुक गये जब खड़ा हुआ मैं भी।
फिर तबाही न रास आती मुझे,
बन तो सकता था ज़लज़ला2 मैं भी।
तक रहे थे वो यूँ मुझे शायद,
बिफरी मौजे से डर गया मैं भी।
हम सफ़र ही कोई न था वरना,
ढूंढ लेता वो रास्ता मैं भी।
लोग हैं मुद्दतों से भटके हुए,
आज यारो भटक गया मैं भी।
जिस पे तुम छोड़ कर गये थे मुझे,
छोड़ आया वो रास्ता मैं भी।
बात कुछ तो तिरी सदा में है,
वरना यूँ क्यों बहक गया मैं भी।
बात ‘राठी’ की मान कर अब तो,
क़ाफ़िले ही में आ मिला मैं भी।
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- कसूर 2. भूचाल