ग़ज़ल
तुम्हें ग़र अपनी मंजि़ल का पता है फिर खड़े क्यों हो,
तुम्हारा कारवां1 तो जा चुका है फिर खड़े क्यों हो।
उजाला तुम तो ला सकते हो लाखों आफ़ताबों2 का,
अंधेरा हर तरफ गहरा गया है फिर खड़े क्यों हो।
तबाही और होती है-तमाशा और होता है,
नगर कब से जलाया जा रहा है फिर खड़े क्यों हो।
अभी तो अपनी मंजि़ल की तरफ कुछ दूर आए हो,
अभी पूरा सफ़र बाक़ी पड़ा है फिर खड़े क्यों हो।
ख़ुशी जब ख़ुद सिमट कर कुछ घरों में बंद हो जाए,
जहाने ग़म मसल्सल3 फैलता है फिर खड़े क्यों हो।
मुसीबत कब तलक झेलोगे तुम दु:ख झेलने वालो,
बग़ावत4 का तो वक़्त अब आ गया है फिर खड़े क्यों हो।
ये मुमकिन था कि चौराहे पे तुम सहमें खड़े रहते,
मगर अब रास्ता भी मिल गया है फिर खड़े क्यों हो।
जो तूफ़ां से बचा कर तुम को लाया अपनी किश्ती में,
तुम्हारे सामने वो डूबता है फिर खड़े क्यों हो।
बहुत दुश्वार5 थी राहें, सफ़र से डर गये होंगे,
मगर आगे तो आसां6 रास्ता है फिर खड़े क्यों हो।
तुम्हें खुद रहबरी7 के वास्ते जिस पर भरोसा था,
वहीं ‘राठी’ तुम्हारा रहनुमा8 है फिर खड़े क्यों हो।
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