ग़ज़ल
अभी तक आदमी लाचार क्यों है सोचना होगा,
मज़ालिम1 की वही रफ़्तार क्यों है सोचना होगा।
ये दुनिया जिसको इक जन्नत बनाने की तमन्ना थी,
अभी तक इक जहन्नुमज़ार2 क्यों है सोचना होगा।
निकलने थे जहाँ से फूट कर चश्में मुहब्बत3 के,
वहां नफ़रत का कारोबार क्यों है सोचना होगा।
ये माना हम को विरसे4 में मिली है अपनी वहशत5 भी,
मगर ये इस क़दर खुँख़्वार क्यों है सोचना होगा।
तकब्बुर6 से, तसद्दुद7 से, तबाही से, मज़ालिम से,
अभी तक आदमी को प्यार क्यों है, सोचना होगा।
सभी इंन्सां बराबर हैं ये सीधी बात है ‘राठी’,
मगर इस बात से इन्कार क्यों है सोचना होगा।
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- जुल्मों 2. नारकीय 3. प्यार के झरने 4. विरासत 5. दानवता 6. घमण्ड 7. हिंसा