ग़ज़ल
मेरे पीछे सूनी राहें और मेरे आगे चौराहा,
मैं ही मंजि़ल का दीवाना मुझ को ही रोके चौराहा।
हर कोई अपनी मंजि़ल के ख़्वाब सजा कर तो चलता है,
क्या कर ले जब वक़्त किसी के रस्ते में रख दे चौराहा।
मंजि़ल का सच्चा मुतलाशी1 सीधे रस्ते पर चलता है,
वो भी क्या मंज़िल ढूँढेगा जिसके साथ चले चौराहा।
ऐसे मुसाफ़िर भी थे जिनकी अक्सर यूँ भी उमे्रं गुज़रीं,
जिस भी सिम्त2 सफ़र को निकले उन को मिला आगे चौराहा।
सब की अपनी-अपनी मंजि़ल, हर मंजि़ल का अपना रस्ता,
जो राही वो रस्ता भूले उन की राह तके चौराहा।
चौराहे पर आकर सारी राहें गड्ड-मढ्ढ हो जाती है,
जो अपना रस्ता पहचाने उसका क्या कर ले चौराहा।
जिन दीवानों के क़दमों में मंजि़ल अपनी राह बिछा दे,
‘राठी’ ऐसे दीवानों को ख़ुद रस्ता दे दे चौराहा।
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- ढूंढने वाले 2. दिशा