ग़ज़ल
ऐसे ऐसे लोग भी शामिल थे अपने कारवाँ में,
ढूँढती थी जिनकी नज़रें अपनी मंजि़ल आसमाँ में।
दूरियाँ जिनको बुलाती हो हमेशा अपनी जानिब,
वो भला कब तक रहेंगे ख़ैमाज़न1 यूँ कारवाँ में।
बात मैंने सीधे-सादे साफ़ लफ़्ज़ों में कही थी,
फिर ये तीखापन कहाँ से आ गया मेरे बयाँ में।
गुफ़्तुगू जारी तो रखो दर्द के क़िस्से न छेड़ो,
जाने कैसा सानिहा2 मिल जाए किसकी दास्ताँ में।
ऐसी रुत में कौन दावत दे के आया है ख़िज़ाँ को,
आने वाली थी बहारें जब हमारे गुलसिताँ में।
इक सदा मुझ को मसल्सल3 क्यों सुनाई दे रही है,
कौन मेरे साथ शामिल हो गया है इम्तिहाँ में।
दर्द की मीठी कसक भी दर्द की तीखी कसक भी,
तुम को दोनों रंग मिल जाएंगे मेरी दास्ताँ में।
बात लफ़्ज़ों में अदा होती है वो भी पुर असर है,
और ही जादू मगर होता है आँखों की ज़ुबाँ में।
खुशनुमा मंज़र है ‘राठी’ जिह्न4 में इसको बसा ले,
दूर तक शामिल रहेगा ये तिरी हर दास्ताँ में।
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- गड़े तम्भू में रहने वाले 2. घटना 3. निरन्तर 4. जेहन