ग़ज़ल
ख़ौफ़ पैदा करने वाले यूँ तो क़िस्से भी बहुत हैं,
जि़न्दगी में बे सबब हम लोग डरते भी बहुत हैं।
झूठ से मरऊब होकर हम बहक जाते हैं वरना,
सच अभी क़ायम है यारो, लोग सच्चे भी बहुत हैं।
शौक है लोगों का कोई फ़िलसिफ़े की बात करना,
गो सुनाने को तो उनके पास क़िस्से भी बहुत हैं।
जि़ंदगी लगती है जिन की कोई ग़म की दास्तां सी,
वक़्त ने वो लोग तो सचमुच मरोड़े भी बहुत हैं।
ख़ौफ़ के मारे बहुत हैं साहिलों पर रुकने वाले,
वरना हर बिफरे समन्दर में उतरते भी बहुत हैं।
क्यों बुरा होने की तुहमत धर रहे हो हर किसी पर,
हमने देखा है यहाँ तो लोग अच्छे भी बहुत हैं।
गो ख़रीददारों ने इनकी कुछ तो क़ीमत भी गिरा दी,
आज कल ये ग़म के मारे लोग सस्ते भी बहुत हैं।
यूं अगर देखें तो दुनिया ख़ूबसूरत भी बहुत है,
बदनुमा इस को मगर हम लोग करते भी बहुत हैं।
रास्ते में गिरने वाले मुन्तिज़र हैं किस के ‘राठी’,
वरना अक्सर गिरने वाले ख़ुद ही उठते भी बहुत हैं।